adopted family in Hindi Moral Stories by bhagirath books and stories PDF | एडोप्टेड फैमिली

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एडोप्टेड फैमिली

“जानते हो पापा आजकल किसी के चक्कर में फंस गए है।”                                                                

“अच्छा! किसके चक्कर में?”

“कोई बाल बच्चेदार महिला है, उससे फेसबुक पर दोस्ती कर ली, बस फिर क्या! उसीके साथ सपने बुनते रहते हैं।”

“तुम्हें कैसे पता चला?”

“इनके दोस्त ने इशारा किया था।” दोनों भाई बहन आपस में बातें कर रहे थे। वे कुछ पापा से कह भी नहीं सकते थे।  

पापा विधुर थे पत्नी को स्वर्ग सिधारे तीन वर्ष गुजर गए थे। निपट अकेले रहते थे। खाना-पीना मन होता तो बना लेते, नहीं तो टिफिन मंगा लेते, पढने-लिखने वाले हैं, दिन इसी में गुजर जाता है फिर आजकल लैपटॉप है सो उसमें लगे रहते हैं, तन-मन से स्वस्थ है। बेटों के यहाँ बुलाने पर भी नहीं जाते। कहते – नहीं मैं यहाँ ठीक हूँ। 

वे अपनी स्टडी में बैठे-बैठे किताब के पन्ने पलट रहे थे। इतने में महिला मित्र ज्योति का विडिओ कॉल आ गया। ज्योति इसी शहर में रहती है।

“नमस्कार भाई साहब!”

“ऐ ज्योति! आज उदास सी लग रही है। क्या बात है?”

“क्या बताऊँ भाईसाहब, वे बीमार चल रहे हैं, अस्पताल में भर्ती है। अस्पताल वाले एक लाख रुपया तुरंत जमा करवाने की कह रहे हैं। अब इतने रूपये कहाँ से लाऊँ!” वह सुबकने लगी। भाईसाहब द्रवित हो गए।  

“बस इतनी सी बात, चल एकाउंट नंबर बता, अभी ट्रान्सफर कर देता हूँ।” ज्योति ने व्हाट्स अप से अकाउंट नंबर बैंक का नाम और आईएसडी कोड भेज दिया। सुभाष गुप्ता जी ने बिना हिचके पैसे ट्रांसफर कर दिए।

भाईसाहब सुभाष गुप्ता जी खुद स्कूटर चलाकर महिला मित्र के घर गए। ज्योति के दो बच्चे हैं- एक तेरह साल की लड़की अनु और दस का लड़का हर्ष। उन्हें फाइव स्टार चॉकलेट थमा कर गालों को सहला देते हैं।

मम्मी कहती है, “हम अस्पताल जा के आते हैं तुम लोग घर पर ही रहना।”           

गुप्ताजी सारा प्रेम उस महिला मित्र ज्योति पर लुटा देते हैं। और लुटाएं भी किस पर! अस्पताल में उसके पति को देखा, हालचाल मालूम किया और अस्पताल के लॉन में आकर बैठ गए।

“मुझे तो तुम्हारा परिवार ही अपना परिवार लगता है। देखो न तुम्हारे पति, बच्चे सब तो मुझे चाहते हैं।”

“मैं कौनसा तुम्हें कम चाहती हूँ आप हैं ही इतने अच्छे।”                        

“अच्छी तो आप है जो हमें इतना चाहती हैं।”  

वे इमोशनली उससे इतना अटैच्ड है कि घंटो फोन से बातें होती रहती है। एक दूसरे को देखने की इच्छा हो तो विडिओ कॉल भी कर लेते है।  

बेटा-बेटी आपस में तय करते हैं कि पापा से इस बारे में बात की जाय। बेटा-बहू, बेटी-दामाद सभी आ जाते हैं। पहला दिन सामान्य सा बीत जाता है। बात छेडने का कोई अवसर नहीं मिलता। दूसरे दिन नाश्ते के बाद उस महिला का फोन आ ही जाता है।                                                                                         

“पापा किसका फोन था?”                                                                                                         

“अपनी लेखिका मित्र का।” पापा पहली दफा बच्चों से झूठ बोले।      

 “नहीं पापा आप कुछ छुपा रहे हो।” बेटे ने शंका व्यक्त की।                   

“नहीं, नहीं, लो तुम ही बात कर लो।” उन्होंने विश्वास दिलाने के अंदाज में फोन बेटे के हाथ में दे दिया।  

“रहने दो पापा, हम सब जानते हैं।”                                           

“क्या जानते हो? ठीक है वह मेरी महिला मित्र है पर तुम्हें इस पर एतराज क्यों है?”                                                                       

“आप लाखों रुपये उसके खाते में डालते जरा भी नहीं हिचकते। यह आर्थिक शोषण है मित्रता के नाम पर।”  

“तो तुम्हें डर है कि मैं अपनी सम्पत्ति उसके नाम न कर दूँ।”

“बात संपत्ति की नहीं है उसे आप मर्जी चाहे जिसे दान कर दो। यह आपकी अर्जित संपत्ति है।”                                                                             

“फिर दिक्कत किस बात की है?”                                                                      

“पापा प्रेम करना ही है तो कोई हम उम्र सिंगल लेडी से करते, ये क्या पूरा परिवार आपने गोद ले लिया।”                                                 

पापा सोच विचार में पड़ गए। बोलें तो क्या बोलें!                                          

“हमें ख़ुशी होगी और आपको अपना साथी भी मिल जायगा। यूँ समाज में फालतू बातें तो न होगी।”   

बच्चों ने अपनी बात कह दी। फिर एक अंतिम बात और कह दी, “हमारे साथ रहना चाहें तो हम सब तैयार है, न चाहें तो हम बारी-बारी आपके पास आकर रह लेते हैं ताकि आपको अकेलेपन और परिवार की कमी महसूस न हो।”

जीवन की संध्या में जीवन साथी का होना कितना जरुरी है ये अब उन्हें महसूस होने लगा। अब वे उसी उधेड़बुन में रहने लगे अख़बार पढ़ते तो वैवाहिक विज्ञापन देखते कि कहीं उन्हें सूटेबल साथी मिल ही जाय। ऑनलाइन मैरिज प्लेटफार्म पर भी जाने लगे। एक दो जगह रजिस्टर भी करवा लिया। उनमें एक तरह का उत्साह लौट आया।

एक दिन ज्योति का फोन आया।                                     

“भाईसाब बहुत दिनों से न फोन किये, न मिलने ही आए, क्या बात है सब ठीक तो है।”                                                                                    

“हाँ हाँ, सब ठीक है। तुम बताओ तुम्हारे पति का स्वास्थ्य कैसा है?”                                                                   

“इम्प्रूव कर रहे हैं, डॉक्टर कह रहे हैं दो चार दिन में डिस्चार्ज कर देंगे।”                                                 

“अच्छा तो कल आता हूँ मिलने।”                                                                  

“जरुर आना, मैं इंतजार करुँगी।”

जो मन में दब गया था फिर मन पर छा गया। मोबाइल में उसकी उतारी तस्वीरें देखने लगे। एक तस्वीर उन्हें बहुत प्यारी थी जिसमें वह मुस्करा रही थी। उनके साथ एक सेल्फी भी थी जिसे देखकर वे सुखी कपल की कल्पना करने लग जाते थे। मुश्किल यह थी कि वह उन्हें हमेशा भाईसा’ब कहा करती थी। कभी नाम से तो बुलाया ही नहीं।

   महिलाएं पुरुषों को जल्दी रिश्तों में बाँध देती है ताकि शक की कहीं कोई गुंजाइश न रहे। उन्हें यह सावधानी रखने की जरुरत है ताकि कोई फालतू बात नहीं करे। जबकि पुरुषों के मामलों में ऐसा नहीं है वे मित्रवत ही व्यवहार करते हैं। स्त्री-पुरुष की मित्रता की धारणा भारत के लिए अनजानी है, यह पश्चिमी देशों से आयातित है जो भारत में जड़ नहीं जमा सकी। यहाँ मित्रता का मतलब प्रेम है। बात सच भी है वह उनकी तरफ आकर्षित है और उसे अपना बनाना चाहते हैं उसको लेकर सपने बुनते है अब इसे प्रेम न कहें तो क्या कहें !                                         

दूसरे दिन उससे मिलने गए। उन्हें देखते ही वह खुश हो गई, चेहरे पर मुस्कराहट तैर गई, ये मुस्कराता चेहरा देख वे फिर अपने ख्यालों में खो गए।               

“ज्योति तुम मुझे मेरे नाम से बुलाया करो जैसे मैं तुम्हें बुलाता हूँ, मुझे अच्छा लगेगा।”                                                                

“आप बड़े हैं आपको नाम से कैसे बुला सकती हूँ। बड़े भाई जैसे हमारी मदद करते हो इसलिए भाईसा’ब कहना ही उचित है।”                                  

इसका वे कोई प्रत्युत्तर नहीं दे पाए। वे सोच रहे थे, ‘औरतें रिश्तों के कवच धारण कर लेती है ताकि सामाजिक व्यवहार में उन्हें सुगमता रहे। मैं भी तो उसे धर्म की बहन बना सकता था लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सका क्योंकि मैं कहीं जीवन साथी की खोज में था।’  

उसके अगले दिन सबके लिए गिफ्ट लेकर फिर ज्योति के घर गए। अनु और हर्ष को उनकी चॉकलेट के साथ ड्रेस भी गिफ्ट में दी। गिफ्ट पाकर वे उछलते-कूदते भागे अन्दर की तरफ। मम्मी को दिखलाया, “कितनी बढ़िया गिफ्ट लाएं हैं अंकल!”

“अच्छा अच्छा अब बाहर जाकर खेलो।”  

बैठक में आकर उसने नमस्कार किया फिर बोली, “ये क्या है भाईसाहब! आप हर बार गिफ्ट ले आते हो, इस तरह से तो बच्चे बिगड़ जाएंगे।” 

“बच्चे बिगड़े या नहीं, तुम मत बिगड़ना ये लो तुम्हारी गिफ्ट।”               

“इसकी क्या जरूरत है?””                                                              

“जरूरत है क्योंकि इससे मुझे खुशी मिलती है।”                            

उसने गिफ्ट लेते हुए कहा, “आप आ गए, ये ही मेरे लिए सबसे बड़ी गिफ्ट है। इतने दिन आपके बिना बहुत बेचैन रही।”                                     

“बेचैन तो मैं भी बहुत था तुम्हारे बिना पर असमंजस था कि क्या करूँ? मैं तुम्हें दिल से चाहने लगा हूँ।”                                                   

“अपने आप को संभालो मैं शादी शुदा औरत हूँ मेरे दो बच्चे हैं।”                         

“तो क्या हुआ वे मुझे भी तो प्यारे हैं।”                                                                  

“लोग क्या कहेंगे।””                                                         

“लोगों का क्या है वे तो कुछ न कुछ कहते रहते हैं।”                         

प्रेम प्रतिदान तो चाहता है। भावुक होकर उन्होंने उसे बाहुपाश में ले लिया, कितना सुखद पल अनिवर्चनीय! क्षण भर उसे भी अच्छा लगा, कुछ पलों तक वे दूसरी ही दुनिया में खो गए। तब ही उन्होंने उसका एक चुम्बन ले लिया। ज्योति जैसे नींद से जगी, उसके सामने समाज की नैतिकता आ खड़ी हुई।                                

“छोड़िए मुझे, ये क्या कर रहे हैं!”                                       

 “ऐसे कैसे छोड़ दें? मैंने तुम्हें दिल से चाहा है और तुम भी तो मुझे चाहती हो।’  “नहीं नहीं यह सब नहीं हो सकता तुम मुझे छोड़ो।” और उसने धक्का देकर अपने को छुड़ाया।

 “लो ये छोड़ दिया सदा के लिए, हमारा तुम्हारा रिश्ता खत्म।” 

वे बड़ी राहत महसूस कर रहे थे कि उन्होंने इस रिश्ते को विराम दे दिया। अब मेरे लिए रास्ते खुल गए। फिर उन्होंने अपने आप को सामान्य स्थिति में लाए।          

“भूल जाओ ज्योति यह सब, चलो अस्पताल चलते हैं।”        

फिर भी वे दोनों अस्पताल गए।  उसके पति के हालचाल पूछे। वे काफी स्वस्थ लग रहे थे। उन्होंने ही बताया कि कल उन्हें डिस्चार्ज कर दिया जायगा। घर पर ही दवाई लेने को कहा है और दस दिन बाद वापस दिखाने का कहा है। घर आने पर अनु बोली, “अंकल आपने बहुत अच्छी ड्रेस लाकर दी है मैं अपने जन्मदिन पर पहनूँगी।” अंकल बोले, “जन्मदिन पर एक और नई ले देंगे।” वह और भी खुश हो जाती है। हर्ष बाहर से खेलकर लौटा और अपना नया बैट रखते हुए नमस्ते की।                      

सुभाष गुप्ता अब ‘टिंडर’ पर अकेली विधुर महिला को खोज रहे हैं। दुआ करो कि उनके मन माफिक महिला मित्र मिल ही जाय।