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अरबी समुद्र रात्री के आलिंगन में आ गया। द्वारका नगर की घड़ी ने आठबार शंखनाद किया। समुद्र तट की शांति मेँ वह नाद स्पष्ट सुनाई दिया।उत्सव ने आज प्रथम बार उस शंखनाद को ध्यान से सुना। उसे उस नाद मेंकृष्ण के पांचजन्य का शंखनाद सुनाई दिया। उसे कुरुक्षेत्र याद आ गया।
‘कैसा विराट स्वरूप होगा उस रणभूमि में कृष्ण का?’ उत्सव ने मन ही मनकृष्ण के विराट स्वरूप की कल्पना की, उसे प्रणाम किया।
गुल ने उस ध्वनि को सुना। स्वयं को भूतकाल से वर्तमान में खींचा। उत्सवको देखा। वह हाथ जोड़े खड़ा था।
“उत्सव, तुम किसे प्रणाम कर रहे हो? यहाँ तो कोई नहीं है।”
“है, कोई तो है यहाँ। मुझे प्रतीत हो रहा है की कृष्ण स्वयं यहाँ है। आपनेअभी शंखनाद की ध्वनि सुनी?”
“हां, सुनी। यह तो सदैव सुनती रहती हूं।”
“कुरुक्षेत्र में ऐसी ही शंख ध्वनि करते होंगे कृष्ण। मुझे प्रतीत हुआ किकृष्ण अपने विराट स्वरूप में मेरे सामने खड़े हैं। मैं उसे ही प्रमाण कर रहाथा।”
गुल हंस पड़ी, “उत्सव, तुम बड़े भाग्यशाली हो। दो दिवस में ही तुम्हें ऐसाअनुभव हो गया। इस नगरी में हजारों व्यक्ति हैं जो यहीं जन्म लेते हैं, यहींउनकी मृत्यु हो जाती है। किन्तु कृष्ण के किसी भी रूप की उसे प्रतीति नहींहोती।”
“क्या आपको कभी कोई प्रतीति हुई?”
“अनेकों बार। कभी कभी तो कृष्ण मेरे आसपास ही घूमते रहते हैं। कभीकभी मैं उससे त्रस्त भी हो जाती हूं और कहती हूं कि तुम मुझसे दूर चलेजाओ। कभी मेरे पास मत आना। किन्तु वह मेरी एक भी बात नहीं मानता।निर्लज्ज होकर लौट आता है मेरे पास।”
“किन किन रूपों में वह आ जाता है?”
“किसी भी रूप में आ जाता है।”
“तो इसमें क्रोधित होने की क्या बात है जो आप उसे कह देती हो कि मेरेपास कभी मत आना?”
गुल ने एक गहन सांस ली, मौन हो गई।
“कहो ना, गुल? आप अचानक ऐसे मौन हो जाती हो तो मुझे ...।” उत्सवने बाकी के शब्द छोड़ दिये।
कुछ क्षण पश्चात गुल बोली,“हमारी परछाइयाँ हमारा पीछा कभी नहींछोड़ती, लाख प्रयास कर लें।” गुल रुकी। उत्सव उसके मुख के भावों कोदेखता रहा।
“परछाइयाँ कभी नष्ट नहीं होती। कभी भस्म नहीं होती। नए नए रूप लेकरवह हमारे सामने आ जाती है, हमारे साथ साथ चलने लगती है। हम विवशहोकर उसके अस्तित्व को स्वीकार कर लेते हैं।”
“तो आप भी परछाइयों से भय रखती हो?”
“मैं भी तो मनुष्य ही हूं।” गुल ने फिर गहरी सांस ली।
“क्यूँ डरते हैं हम इनसे?”
“क्यूँ कि वह हमें घायल कर देती है, छलनी कर देती है। छिन्न भिन्न करदेती है। हमारे भीतर को अशांत कर देती है।”
“किन्तु आप तो किसी ऋषि की भांति ज्ञानी हो। आप ...।”
“ऋषि? ज्ञानी?” गुल खूलकर हंस पड़ी। उसके हास्य की ध्वनि समुद्र कीप्रत्येक लहरों के साथ पूरे समुद्र में व्याप्त हो गई।
“उत्सव, तुम भी तो हंस सकते हो।”
“मुझे स्मरण नहीं कि मैं कब हंसा था। कदाचित मुझे हँसना नहीं आता।”
“तुम स्वयं से भाग रहे हो उत्सव।”
“मैं हंस नहीं सकता।”
“क्यूँ कि तुम किसी अज्ञात बातों का भार लिए घूम रहे हो।”
“आपका तात्पर्य ....।”
“उतार दो उस भार को मन से।”
“आप ऐसा कैसे कर लेती हो?”
“जब जब मेरी परछाइयाँ मुझ पर प्रहार करती है, मैं खुलकर हंस लेतीहूं।” वह पुन: हंसने लगी।
उसे देखते देखते उत्सव भी हंसने का प्रयास करने लगा, हंस पड़ा। हँसतारहा, हँसता रहा। दोनों हँसते रहे।
“तो तुम्हें हँसना भी आता है।” गुल ने कहा।
“आता तो था किन्तु किसी कारणवश भूल गया था। आपने मुझे स्मरणकरा दिया।” उत्सव ने कहा।
“ठीक है। अब एक और बात।”
“वह क्या है?”
“उत्सव, तुम मुझे ‘आप’ कहकर सम्बोधन नहीं करोगे।”
“यह आदेश है आपका?” उत्सव के अधरों पर स्मित था।
“नहीं, आदेश देना भी अनुचित बात है।”
“अर्थात आपका तात्पर्य क्या है?”
“देखो उत्सव, हम सब एक ही ईश्वर की रचना हैं। सब एक समान। कोईभेद नहीं हैं हम मनुष्यों मेँ। किन्तु हम ही एक दूजे से अंतर बनाए रखतें हैं।”
“वह कैसे?”
“यदि तुम मुझे ‘आप’ कहते सम्बोधित करते हो तो हमारे बीच छोटे बड़ेका भेद बन जाता है। यह अंतर नहीं तो क्या है?”
”क्या यह अंतर होना अनुचित है?”
“मेरा तो यही मानना है।”
“क्या यही सत्य है?”
“सत्य क्या है? कोई नहीं जानता। किन्तु इस समय हमारे लिए सत्य यहीहै कि हमारे बीच ऐसा कोई अंतर न हो जिससे छोटे बड़े का भेद बनजाय।”
“जैसा आप उचित समझो। अब से मैं आप को तुम से संबोधित करूंगा।” उत्सव ने कहा।
गुल ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। वह मौन हो गई। उत्सव समुद्र की तरफदेखने लगा। विचारता रहा।
घड़ी मेँ पुन: शंखनाद हुआ। उस नाद से उत्सव की विचार यात्रा रुक गई।उसने गुल को देखा। वह स्थिर सी समुद्र को निहार रही थी, कोई भिन्नजगत मेँ थी।
“गुल, तुम कुछ परछाइयों की बात कर रही थी? क्या संदर्भ था उन बातोंका?” उत्सव ने पूछा।
“कुछ विशेष नहीं है।” गुल ने उत्तर दिया।
“तुम कृष्ण के रूप की प्रतीति के संदर्भ मेँ ऐसा कह रही थी। कहो ना, क्यातात्पर्य था उन बातों का?”
“हाँ, मैं कृष्ण के स्वरूपों को देखकर विचलित हो जाती हूँ।”
“किस रूप से विचलित हो जाती हो? क्या कारण है?”
“कृष्ण के सभी रूप मुझे विचलित कर देते हैं किन्तु एक विशेष रूप...।”
गुल मौन हो गई।
“कौन सा विशेष रूप है वह?”
“बांसुरी बजाता हुआ कृष्ण।”
“क्यूँ? तुम सभी यात्री को समुद्र की ध्वनि मेँ बांसुरी की ध्वनि का अनुभवकरवाती हो तो यह रूप तो तुम्हारा सबसे प्रिय रूप होगा। है ना?“
“जो प्रिय होता है वही अधिक पीड़ादायक होता है।”
“कृष्ण की बंसी मेँ पीड़ा?”
“ हां, उत्सव।”
“वह कैसे? कृष्ण स्वयं ही आनंद स्वरूप है तथा उनकी बंसी की धुन में तोसमग्र ब्रह्मांड आनंद की अनुभूति करता है। तो तुम उसमें पीड़ा का अनुभवकैसे कर सकती हो?”
“चलो छोडो इन बातों को।”
“क्या यह सब बातें तुम्हें कष्ट देती है।? तुम किसी पीड़ा के गहन सागर मेंडूब जाती हो?”
“कदाचित यही सत्य है।”
“यदि ऐसा ही है तो मैं इस बात को यहीं समाप्त कर देता हूं। मैं इसे अबकभी नहीं...।” उत्सव मौन हो गया। गुल भी।
दोनों मौन होकर समुद्र की ध्वनि को सुनते रहे। रात्रि व्यतीत होती रही।समग्र नगर निंद्राग्रस्त हो गया। केवल दो व्यक्ति निंद्रा से अप्रभावित थे, समुद्र के तट पर मौन बेठे थे।