Circus - 8 in Hindi Moral Stories by Madhavi Marathe books and stories PDF | सर्कस - 8

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सर्कस - 8

                                                                                            सर्कस : ८

 

     घर में कदम रखते ही सबके जिज्ञासा भरे सवाल शुरू हो गए। मुझे भी एक अलग दुनिया के किस्से सुनाने में मजा आ रहा था। फिर तरोताजा होते हुए हम खाना खाने बैठ गए, तभी फिर से वही की बातें चलती रही। चाचाजी ने कहा “ श्रवण, तुम थक गए होंगे। अब जलदी से सो जाओ। अभी दिनभर काम करने की तुम्हे आदत नही है। उत्साह में थकावट महसुस नही होती, लेकिन बाद में जब यह नियमित रुप से हो जाएगा तब जलदी थकावट महसुस होने लगेगी इसलिए जब तक यहाँ हो ओैर वहाँ जाकर भी समय पर खाना-पीना, विश्राम के मामले में जरा भी लापरवाही मत करना। आठ-दस दिन में इस दिनचर्या की आदत हो जाएगी। युवावस्था में बीना विश्राम से काम करते रहे तो दस साल बाद कोई ना कोई बिमारी चालू हो जाएगी। बेहतर है पहले से ही अपना खयाल रखना। रात को दस बजे खाने का समय है, ठीक है। किसी के लिए बीना रुके खाना खा लेना ओैर सोने के लिए चले जाना। सुबह पाँच बजे उठने की आदत कभी मत छोडना। रात को ग्यारा से सुबह पाँच बजे तक की नीन्द अपने शरीर के लिए काफी है। पाँच से सात बजे तक आराम से अपनी पढाई कर सकते हो, फिर दिनभर काम किया तो भी पढाई रह गई यह बोझ मन पर नही रहेगा। दोपहर जो भी विश्राम का समय होगा उसका पालन करना। बाकी आठ दिन में तुम्हे अच्छे-बुरे जो भी अनुभव आएँगे उस बारे में हम बाद में बात करेंगे। अभी किसी के बारे में अपना मत ना बनाओ।” मुझे भी चाचाजी की बात सही लगी। चाची ने बनाया स्वादिष्ट भोजन खाने के बाद मैं ओैर विनीत थोडी देर टहलके आ गए। एक-दुसरे से बात करके हम दोनों को बहुत आराम महसुस होता था। फिर मैं सोने चला गया।

       कल बस से मैं अकेले सर्कस के मैदान पर जाने वाला था। दस बजे पहुँचना मतलब नौ बजे ही घर से निकलना होगा। चाचाजी ने बताया वैसे ही नियमित रुप से अपनी दिनचर्या कायम रखने का निश्चय करते हुए सो गया। थके हुए शरीर ने झटसे नीन्द में प्रवेश किया।

       सुबह हुई, शांतिपूर्णनीन्द की परिपाक से उत्साह, उमंग से भरी हुई। तरोताजा होकर चाय पी ली ओैर कॉलेज के सरजी ने जो नोट्स दिए थे वह पढने लगा। उन्होने कहा था पहले पंधरा दिन सिर्फ जो है वह पढते रहो। कुछ समझ नही आया तो भी कोई बात नही, बार-बार पढोगे तो धीरे-धीरे समझ में आने लगेगा। फिर मैं वह पढता गया। सात बजे तैयार होकर पिताजी ओैर राधा को खत लिख दिए। बाद में भरपेट नाश्ता किया ओैर नो बजे घर के बाहर निकला। दिल्ली का तापमान काफी बढ गया था, अभी से धुप चुभने लगी थी। बस की भीड, पसीना, बैठने के लिए जलदी से जगह ना मिलना इस बात की आदत डालनी होगी। दस बजे तक सर्कस पहुँच गया। पहले ऑफिस में हजेरी लगाई, अरुण सर वहाँ थे नही, तो देसाई सर ने कहा अब आठ दिन तुम्हारा कल जैसा ही रुटीन रहेगा। मन में जरा अच्छा लगा। व्यक्ति को अगर पता हो कि क्या करना है तो उसके विचारों में स्थिरता आती है, नई कल्पनाए सुझने लगती है। नए उम्मीद के साथ मैं अंदर की तरफ मुडा।

      दस बजे का समय था तो रसोईघर की तरफ जानेवाली भीड दिख रही थी। मुझे देखते ही धीरज ने हाथ उपर करते हुए उसकी ओर आने का संकेत किया। गोदाक्का से थोडी बातचीत करते हुए मैं धीरज के पास गया, उसके साथ हमउम्र के दो-तीन लोग बैठे थे। अंदर से खाने की थाली लेकर आने की जिद धीरज करने लगा तब उसे टालने की कोशिश करता रहा। मेरा पेट भरा हुआ था ओैर वह तीखा खाना खाने का मन भी नही कर रहा था। फिर वह बोला “ तुझे इसकी आदत करनी होगी, घर से खाना खाकर आया है ठीक है लेकिन थोडा तो कुछ खा ले। नही तो जलदी ही तुझे भुख लग जाएगी ओैर तीन बजे तक तुझे कुछ नही मिलेगा। यह सुनकर मैं चुपचाप अंदर गया. आज गोबी की सब्जी, रोटी, ककडी ऐसा भोजन था। थोडा-थोडा एक थाली में परोस कर उनके साथ शामिल हो गया। कल के खेल के बारे में वह सब बातें कर रहे थे। झुले की कसरत के समय पांडू का हाथ फिसल गया ओैर इस्माईल उपर से जाली में गिर गया। ऐसी घटनाएँ तो हमेशा होती ही रहती थी लेकिन पांडू ओैर इस्माईल के बीच में थोडा झगडा हो गया। झगडे भी आए दिन किसी के ना किसी के होते ही रहते थे ओैर एक-दो दिन में खत्म भी हो जाते थे, पर इस बार सांप्रदायिकता वाद बढा,  तो वातावरण तंग हो गया। मेरे लिए तो यह अनोखा अनुभव था, चेहरे की रंगत देखकर धीरज ने कहा “ श्रवण, ऐसे घबरा मत। वास्तव ओैर कल्पना में बहुत बडा फासला होता है। ऐसी घटनाएँ यहाँ होती रहती है, लेकिन इससे खास कोई फर्क नही पडता क्योंकि यहाँ काम करने वाला शख्स गरीबी से आता है। भुखे पेट जाति की राजनीति नही की जा सकती। यह  मामला जल्द ही सुलझ जाएगा।” धीरज के वक्तव्य पर मैंने सिर हिलाया। खाना हो गया वैसे सब अपनी थाली धोकर काम पर चले गए।

      मैं चंदूभैय्या के यहाँ सायकिले पोछने पहुँच गया। “ आजा श्रवण, मुझे लगा आज तुम इस तरफ आओगे की नही ?” सामने रखा कपडा लेते हुए मैंने कहा “ देसाई सर ने कहा है अब आठ दिन यही दिनचर्या रखना। चंदूभैय्या आपको क्या लगता है इस सांप्रदायिक विषमता के बारे में ?”

      “ कुछ नही, यह सब खाली दिमागवालों के धंदे है। राजनीति के लोग केवल इसी आधार पर चुनाव लडते रहते है। देश का भला चाहने वाला देश की कुटनीती का अजेंडा सामने रखकर चुनाव लढेगा तो निश्चित रुप से हार जाएगा। संप्रदायिकता यह इनका चुनाव जितने का अवजार है, पैसा कमाने का जरिया है। इस चक्की में पीस जाती है सिर्फ गरीब जनता, रोज का खाना इनके नसीब में नही होता।” बातों-बातों में सायकिले चमकाकर हम दोनों ने पंक्ति में लगा दी। फिर मैं जल्दी-जल्दी मेकप रुम की तरफ भागा। वहाँ चार जोकर मेरी राह देख रहे थे। उनको जोकर ऐसे संबोधना ठीक नही था, अब वह मेरे सहकारी थे। राजू, पपलू, चिंटू, बबलू ऐसी उन्होंने पहचन करा दी। मन में थोडा बुरा लगा, अब इसी नाम से उनकी पहचान बन गई थी। उनमें से दो बडी उम्र के थे ओैर दो युवावस्था के। मेरे लिए यह काम नया था इसलिए मन लगाकर करता रहा। जोकर रंगाने का काम जादा रहता है क्युंकि उनका चेहेरा ही मनोरंजन का मुख्य साधन होता है, इस कारण मेकप करने की विधी भी अलग रहती है। मेरे सामने बैठे जोकरों का बेस मेकप पुरा हुआ था, मैं सिर्फ होठों ओैर गालों पर लाल रंग में गुब्बारे बनाता गया। चारों तरफ कल जैसा ही माहोल छाया हुआ था। धीरज के साथ प्रारंभी पुजन के लिए मुख्य तंबू में गया। वहाँ अरुण सर थे, तो थोडी बातचीत करते हुए हम अपने काम में लग गए।

     मोन्या के साथ तिकीट लेने का काम शुरू किया, अभी सहजता से मैं काम कर पा रहा था। बाहर की भीड मन को अस्वस्थ नही कर रही थी। यहाँ का काम खत्म करने के बाद रसोईघर की ओर बढा। पानी पीकर वहाँ के महिला मंडल में शामिल हो गया। आज गोदाक्का पोहा बनाने वाली थी। प्याज, मिर्च के टुकडे एक थाली में जमा होने लगे। आलू की पतली फाँके नमक के पानी में जा बैठी। कढीपत्ता, सेंगदाना एकसाथ रख दिए, पोहा भिगोकर एक बडी छलनी में निकालकर रखा। सरलाचाची बता रही थी “ कितने साल हो गए, मैं यहाँ काम करती हूँ। जब अरुण सर ने यह सर्कस खरीद लिया तभी सर्कस के साथ-साथ यहाँ के लोगों के भी अच्छे दिन आ गए। खाने में ऐसी चार चीजे मिलाकर स्वादिष्ट पदार्थ बनाने का रिवाज तब से शुरू हो गया। व्यंजन में मसाले, नारियल, सेंगदाणा इनका सही मात्रा में उपयोग होने लगा। खाने में अलग-अलग चीजे बनने लगी। पोषकता का ख्याल रखने लगा। अनाज ठीक से साफ किया है या नही इस के उपर सर बारिकी से नजर रखते है। कभी भी रसोईघर का भोजन खाने आते है, तो खाना ठीक से बनाया जाता है या नही इस बात की पूरी जानकारी उनको रहती है। पहले तो रसोईघर मतलब पुरा कबाडखाना था। अनाज, सब्जी की साफ-सफाई कभी नही होती थी। रोज के झगडे, किसी तरह से खाना बनाने का काम निपट लेना ऐसा माहोल था। अपने कमरे में रसोईघर की मुखिया दुध, दही, फल, मेवे लेके जाती थी। सर्कस के मालिक के साथ उसका संगनमत था। कभी किसी का पेट पूरी तरह नही भरा रहता, सिर्फ मेहनत करते रहो। किसी ने इस के विरुद्ध आवाज उठाई तो उसे पिटने की नोबत आती थी। चारों तरफ असंतोष फैला हुआ था। एक दिन सर्कसमालिक अपने कमरे में मरा हुआ पाया। अनेक अफवाएँ उठी, कोई कहे उनका खुन हो गया, कोई कहे हार्ट अटक से मरा, कर्जबाजारी होने के कारण आत्महत्या की। आखरी तक किसी को कुछ पता नही चला सच में क्या हुआ था। खाना बनाने वाली पुरानी बाई भी सर्कस छोडकर चली गई। फिर एक दिन अरुण सर सर्कस मालिक के रुप में यहाँ आए, ओैर सब रुप ही बदल गया। गोदाक्का भी काम के लिए नियुक्त हो गई। उन्होंने सब साफ ओैर नियमित रुप से काम में अनुशासनता लायी। अरुण सर ने बताया था कि सर्कस का मुख्य आधार रसोईघर है। सबको साफ, स्वादिष्ट, पेटभर खाना मिलना चाहिए, तभी लोगों का स्वास्थ अच्छा रहेगा, तन-मन तंदुरुस्त रहने से उत्साहपुर्ण वातावरण रहेगा ओैर सर्कस के खेल भी रंग लाएँगे। गोदाक्का ने भी उनके शब्द को कभी व्यर्थ ना जाने दिया। कभी पैसों की कमी महसुस हुई तो कम अनाज में भी बना खाना, बडे प्यार से सबको खिलाती तो लोग उनके प्यार में ही संतुष्टता अनुभव करते। सर्कस का माहोल ही बदल गया।” गोदाक्का हमारी तरफ आते देख सरलाचाची चुप हो गई। हमारा काम भी खत्म हो गया था।

      पोहा तैयार हो गया देख चिंटू ओैर संजू ने मेज पर ग्लास, चम्मच, छोटी थालियाँ रख दी, मैंने ओैर संजू ने पोहे का बडा बरतन रख दिया। मेरे तिकीट बिक्री के साथी रेहा, मिका आ गए तो साथ में हमने पोहा खाया ओैर तिकीट बिक्री शुरू करने चले गए। आज शायद झगडों का दिन था। छुट्टे पैसे लेन-देन के उपर झगडा शुरू हुआ, फिर जलदी ही खत्म भी हो गया। सबको अंदर खेल देखने जो जाना था। दो मिनिट तक हम तीनों शांती से बैठ गए, फिर हाऊसफुल का बोर्ड लगाकर मैं मुख्यद्वार की तरफ बढा। आज दर्शकों का रंग कुछ अलग ही दिख रहा था। टारगट युवावर्ग मस्ती से अनाब-शनाब बक रहे थे। उनकी छिचोरता, अश्लीलता दुसरे लोगों को असहनीय हो रही थी। जैसे लोगों को अंदर छोडने का काम खत्म हो गया वैसे मैं सीधा धीरज के तंबू में गया ओैर उसके चारपाई पर सो गया, सुबह ही उसे बताकर रखा था। एक घंटा अच्छी नीन्द लेने के बाद उत्साहित होते हुए इधर-उधर घुमने लगा, रसोईघर के काम शुरू होने में अभी आधा घंटा बाकी था। एक कोने में कसरत खत्म कर के लडकियों का ग्रुप गप्पे लडा रहा था, मुझे देखते ही उनमें कानाफूसी हो गई ओैर वह सब हँसने लगी। उनको अनदेखा करते हुए जीप खडी थी उस तरफ मैं गया, वहाँ जॉनभाई शो में जाने की तैयारी कर रहे थे, तो हम दोनों बाय करते हुए आगे बढ गए। कार हवा में उडाने का खेल वह दिखाते थे। उनकी ओैर मेरी जान-पहचान हुई तो नही थी, फिर भी मुझे वो अच्छे लगे। दुर से ही प्राणी जगत में नजर फेरते हुए चलता रहा। जानवरों से मुझे जादा लगाव नही क्युंकि घर में किसी को कुत्ता, बिल्ली का आना भी पसंद नही था। दादी कहती थी उनके बाल झडते है ओैर अपने खाने में, श्वसन क्रिया से अंदर जाते है ओैर उससे बिमारियाँ होती है। इस कारण मन में एक नकारात्मक भाव था। चाचाजी को कुत्ते पसंद थे लेकिन वह दिल्ली में रहते थे तो उनका जानवरों प्रति लगाव हम तक नही पहुँच पाया। उनके घर में कुत्ता, बिल्ली, कछुआ, तोते, एक टॅंक में मछलिया थी। फॉरेस्ट ऑफिसर होने के कारण आदिवासी लोग जंगल में जख्मी हालत में जानवर मिल जाते तो वो भी चाचाजी के यहाँ छोड जाते थे। चाचाजी कहते सहवास से प्रेम उत्पन्न होता है, वह मनुष्य हो या जानवर। एक मयुर भी था, वह बाद में उड गया या किसीने चुरा लिया पताही नही चला।

      रसोईघर का दरवाजा खुला देखकर मैं अंदर गया। कल जैसे बिस्किट निकालकर एक बडे थाली में रख दिए। गोदाक्का ने चाय की किटली टेबल पर रख दी। मैं आराम से चाय-बिस्किट खाता रहा फिर मिका, रेहा के साथ तिकीट ऑफिस में गया। उन्होंने बताया पहला जो शो था उसमें टारगट लडकों के गँग ने बहोत शोर मचाया, लडकियाँ आने के बाद बेहुदा बरताव कर रहे थे लेकिन गनिमत इतने में ही सब रुक गया अन्यथा पुलिस बुलवानी पडती ओैर खेल का माहोल बिघड जाता। तिकीट खत्म हो गए, हाऊसफुल का बोर्ड लगाकर मुख्य तंबू की ओर गया तो देखा उन लडकों ने सब कुर्सियाँ इधर-उधर फैलाई थी, बोटल्स फोड दिए थे। चार-पाँच लडके वो सब साफ कर रहे थे। मैं भी कुर्सियाँ जगह पर रखने लगा। दस मिनिट में तंबू साफ हो गया। बाहर के लोगों को अंदर छोडने के बाद मोन्या ने कहा चल बाहर के स्टॉल पर बर्फ का गोला खाते है। गरमी के दिन के कारण ऐसी ऐष करने में कुछ हानिकारक तो था नही। हम दोनों वहाँ चले गए। मैं अभी तक बाहर के खाद्य पदार्थ खाने का आदी नही था, लेकिन अब आदत लगानी पडेगी। फिर तय हुआ, तुम्हारे पैसे तुम देना, मेरे मैं दुँगा। वह भी कुबुल हो गया। खिलोने के स्टॉल जाकर अंजनबाबू को बता दिया मैं थोडी देर में आता हूँ। अब प्रेक्षक अंदर होने के कारण वातावरण में धूल भी कम हो गई। किसी का भार किसी के उपर नही है इस बात पर हम आराम से बरफवाले को दो गोले की ऑर्डर देते हुए उनकी कारागिरी देखते रहे। बर्फ का सफेद भुगा एक कंडी पे लगाकर उसका एक बडा गोला तैयार हो गया, रंगबिरंगे बोटल्स में से खट्टा-मीठा द्रावण उस गोले पर छिडकाया ओैर एक पलाश पत्ते के कटोरे में हमारे सामने रखा। इधर-उधर देखते बडे चाव से हम खाने लगे। पैसे देने के बाद गप्पे लगाते हुए एक चक्कर तंबू की चारों ओर काटी। फिर वह अपने काम के लिए गया ओैर मैं खिलोने के स्टॉल की तरफ मुडा।

      इंटरवल में होने वाली भीड को आज सहजता से सँभाल सका। वह कोलाहल खतम होने के बाद मैंने खिलोने जगह पर रख दिए तब तक अंजनबाबू रुपए गिनने लगे। स्टॉल बंद कर के हम घर जाने लगे, रास्ते में आज के दिन की चर्चा होती रही, मुझे घर की गली में छोडते हुए वह आगे निकल गए। मैं घर आ गया तो घर में कल जैसा ही माहोल था, पर आज पहले तरोताजा होने के बाद खाना खाते समय दिनभर का सारा वृतान्त बता दिया। सबको वह सुनने में बडा मजा भी आ रहा था, उत्सुकता भी थी, साथ में मेरी चिंता भी हो रही थी। लेकिन मेरा उमंग से भरा व्यवहार देखकर कोई कुछ नही बोला, मेरी खुषी में शामिल होते रहे। अब कालही बताएगा सही-गलत क्या है। ऐसे ही आठ दिन कब खतम हुए पता नही चला। अरुण सर ने मेरी तैयारी के लिए एक दिन की छुट्टी दी। जीवन का एक बडा पडाव कल सामने आने वाला था, लेकिन मन में शांती होने के कारण दुनिया में कदम रखने में किसी प्रकार का भी भय महसुस नही हो रहा था।

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