आलेख
नदी और लोक-जीवन
रामगोपाल भावुक
नदियाँ केवल जल की धारा ही नहीं अपने साथ लोक- धारा भी सहेजे रहतीं हैं। नदियों ने ही हममें विस्मय, प्रेरणा और श्रद्धा के भाव पैदा किये हैं। नदियों के किनारें फसलें ही नहीं उपजाई जाती बल्कि वे मानव सभ्यता का पालन पोषण भी करतीं हैं। नदियाँ सम्यता की जन्मदात्री रहीं हैं। इसी कारण हम नदियों को माँ के रूप में देखते आये हैं।
हमारे ऋषि मुनियों ने इन नदियों के किनारे ही ज्ञान का प्रसार किया था। भगवान श्रीराम का जन्म सरयू किनारे और भगवान श्रीकृष्ण का जन्म यमुना के किनारे बसे नगरों में ही हुआ था। आज भी बड़े- बड़े महानगर जैसे हरिद्वार ,दिल्ली, कलिकाता और बाराणसी नदियों के किनारे पर ही बसे हैं। नदियों की रेत तो विश्व में बन रहीं बड़ी- बड़ी इमारतों को आकर दे रही है। सम्यता के प्रारम्भ से आज तक अवागमन की सुविधा नदियों ने ही प्रदान की है। आज हम जहाँ खडे हैं नदियों की कृपा का ही परिणाम है।
नदियों के किनारे बसे और मैदानी भागों के लोगों के सोच एवं कार्य प्रणाली बहुत फर्क है। जैसे-
मैदानी लोग पानी इकत्रित करके रखते हैं और नदी किनारे वाले लोग पानी भरकर रखने की आवश्यकता महसूस नहीं करते।
नदी वाले लोग हर शुभ और पवित्री करण के काम नदी किनारे करते हैं तथा मैदान वाले ऐसे कार्यों के लिये बस्ती से बाहर मन्दिरों के आस-पास जलस्त्रोंत तलाशते फिरते हैं।
मैदान वाले अपने मेहमानों को मकान और खण्हर दिखाते फिरते हैं और नदी किनारे वाले नदी दिखाकर गौरव महसूस करते हैं।
नदी वाला क्षेत्र हराभरा रहता है। मैदान वाले हरियाली को तरसते हैं और जलस्त्रोंत का जल स्तर नीचा रहता है।
अपने आसपास मरती नदियों को देखकर मुँह फेर लेना सोच का विषय है।
मेरा जन्म नौंन नदी के किनारे होने से मैं नदी की जीवन शैली से बचपन में परिचित हो गया था। हमारी नौन नदी लम्बे पाट वाली नहीं है। इसके किनारे कोई महानगर स्थित नहीं है, इसलिये यह नदी गन्दे गटरों से बची रही है।
मैं स्कूल जाने से पहले स्नान करने नौन नदी पर जाना नहीं भूलता। स्कूल जाने की जल्दी में तैर कर नदी के पार पहुँच जाता और एक ही सांस में लौट भी आता। नदी में स्नान करने वालों को एक फायद तो यह है कि उन्हें किसी प्रकार की व्यायाम शाला में जाने की आवश्यकता नहीं हैं। स्नान के बाद नदी किनारे स्थित शिवालय के दर्शन करने से जो बोध हुआ है, उसे सहेजकर रखने में ही जिन्दगी आनन्द में व्यतीत हो रही है।
वर्षात के दिन थे। मुझे गोहद कस्बे में जाना आवश्यक था। जाने- आने के लिये बाँध के नीचे सड़क पर रपटा बना दिया है। रपटा पर पानी था। ओटो बाला बोला-‘रपटा पर तेज बहाव वाला पानी है, मैं रपटा पर ओटो नहीं ले जा सकता। अब आपको गोहद तक पैदल ही रपटा पार करके जाना पड़ेगा।’
ओटी की सारी सबारी उतर गईं। मैं भी उतरकर रपटा के किनारे खड़ा हो गया। कुछ लोग साहस करके रपटा पर तेज बहते पानी में जमा-जमा कर पैर रखते हुए पार जाने लगे। नदी का बहाव बढ़ता जा रहा था। मुझे ऑफिस के काम से जाना आवश्यक था, इसलिये मैं साहस करके जमा-जमाकर पैर रखते हुए बड़ी ही मुश्किल से नदी का रपटा पार कर पाया। वहाँ जाकर ऑफिस का कार्य निपटाने में चार -पाँच घन्टे लग गये। लौटकर देखा उस रपटा पर पानी बहुत बढ़ गया था। अब कोई व्यक्ति इस पार से उस पार नहीं जा पा रहा था। रपटा पर कमर से ऊपर पानी हो गया होगा। बांध के छरर से तेज गति से पानी नीचे गिर रहा था। अब तो पार जाने का कोई विकल्प दिखाई नहीं दे रहा था।
उस रपटा के थोड़ा नीचे कुछ धीवर लोग, आकार में बहुत बड़ा मोटे किनारे वाला मटका लिये बैठे थे। उन्होंने नदी पार कराने के लिये ही बड़े आकार का मटका बनवाया होगा। मैं समझ गया कि ये लोग हमें मटके के सहारे पार कर सकते हैं। मैं उनके पास पहुँच गया। वे बोले- हम आपको अकेले पार नहीं कर सकते, हमें पार कराने के लिये चार लोग चाहिए जिससे मटके का बेलेन्स बना रहेगा। मेरी ही तरह उसपार जाने वाले तीन लोग और आ गये। बात सन् उन्नीस सौ सड़सठ की है, उन्होंने पार कराने के दस- दस रुपये मांगे तो भी हम सभी तैयार हो गये। उन्होंने हमारे थैले तो मटके के अन्दर सुरक्षित रख लिये। हमसे पूछा-‘आप लोग तैराना तो जानते होंगे।’
हम सब ने कहा-‘थोड़ा बहुत तैराना जानते हैं।’
बे बोले- ‘हम तुम्हें मटका पकड़ा देते हैं। किसी भी स्थिति में मटका छोडना नहीं है।’
हम चारों ने मटके का मुँह कसकर पकड़ लिया। उन्होंने हमारे पाँव मटके की नीचे की सतह से चिपकाने को कह दिया। वे चार तैराक थे। उन्होंने मटके को खेना प्रारम्भ किया। बीच धार में पहुँचकर तो मटका सीधा नदी के प्रवाह के साथ तेज गति से सीधा बहने लगा। वे बोले-‘डरना नहीं, हमारी गारन्टी है हम आपको पार करा देंगे। आप लोग तो मटके को कस कर पकडे रहें।’
धीरे- धीरे उन्होंने मटका नदी की मध्य धार से आगे बढ़ा दिया। हमने राहत की सांस ली। इस तरह बड़े परिश्रम से उन्होंने हमें पार लगाया। उस पार पहुँचकर मैंने उनसे पूछा-‘ वर्ष में एक दो दिन के लिये आपको यह काम मिल पाता है, बैसे आप लोग क्या काम करते हैं?’
एक ने उत्तर दिया-‘‘साइब हम मजूर लोग है। जब इस नदी पर बांध नहीं बना था तब तो हमारे पुरखे लोगों को नॉव से पार कराने का काम करते थे। वह पुरानी नॉव आज भी हमारे घर में अभी भी सुरक्षित रखी है।
हमारे चारों भाइयों के पास इस नदी के किनारे केबल एक बीधा जमीन ही है, जिसमें हमने कछवाई लगा ली थी। इस बाढ़ में सभी की तरह वह भी डूब गई। अब तो हम पूरी तरह बेरोजगार हो गये हैं। मजदूरी मिल जाया करेगी तो कर लिया करेगे।’
उनकी बेबसी पर मैं दुखित होकर रह गया।
लोक-जीवन नदियों को गन्दा भी करता है। इसका एक उदाहरण वृन्दावन की यमुना नदी में चलकर देखें।
हमारे क्षेत्र के प्रत्येक हिन्दू परिवार को मथुरा-वृन्दावन जाने की इच्छा बनी रहती है। जब-जब मैं वहाँ गया हूँ बाँके बिहारी और राधा-दमोदर के दर्शन करने के साथ यमुना स्नान करने की तीव्र इच्छा को रोक नहीं सका हूँ।
एक बार तो पत्नी के साथ मथुरा-वृन्दावन जाने का संयोग बना। उन्होंने चलने से पहले नदी में विसर्जित करने के नाम पर एक अलग बैग सजा लिया। मैंने देखा उसमें दैनिक हवन-पूजन से बची सामग्री, टूटी-फूटी तस्वीरे, उपयोग से हटाये गये घरभर के जनेऊ जैसी चीजें उसमें भर लीं। यह देखकर मैंने उनसे कहा-‘ तुम तो ये चीजे यमुना में विसर्जित करके उसे और गन्दा करने जा रही हो।’
वे बोली-‘हमारे शास्त्रों में तो यही विधान है। सभी तो परम्परा के अनुसार पूजा की ऐसी सामग्री नदियों में ही विर्सिर्जत करते चले आ रहे हैं। हमारे देश भर के पण्डित्य करने बाले इस अवशिष्ट सामगी को नदियों में विसर्जित करने के लिए कह देते हैं।’
मैंने उन्हें समझाया- अब उन्हें देश और काल का ध्यान करके अपने इस आदेश में परिवर्तन करना चाहिए।’
वे झट से बोलीं-‘तो बताओ क्या उस सामग्री को घूरे पर फेंक दिया करें?’
मैंने सोचकर उत्तर दिया-‘इस प्रकार की सामगी को पेड़ पौधें की जडों में डाल सकते हैं। इससे उन्हें पोषक तत्व मिल सकेंगे और हम नदियों को प्रदूषण से बचा सकेंगे।’
मेरी माँ चिल्लाई-‘ तुझे हर मामले में ऐसी ही बातें सूझती रहतीं हैं। भजन-पूजन की ऐसी सामग्री को लोग आज तक नदियों में ही विसर्जित करते चले आ रहे हैं। क्या हमारे पुरखे मूर्ख थे?’
‘वे मूर्ख कैसे हो सकते हैं! किन्तु अब देश-काल बदल गया है। उस समय उन्होंने इस तरह सोचने का प्रयास ही नहीं किया।’
माँ ने आगे बहस नहीं की। इसलिये मैं उस बैग की सामग्री को ले जाकर अपने खेत की मेड़ पर खड़े पेड-पौधों की जड़ों में डाल आया और बजन ढोने से बच गया। रेल में चढा़ने- उतारने में जो परेशानी आती उससे भी राहत मिली।
वृन्दावन तीर्थ में पहुँच कर मन यमुना स्नान के लिये कुलांचें भरने लगा। हम स्नान करने केसी घाट पर पहुँच गये। पत्नी ने जाकर पहले यमुना मैया को प्रणाम किया और श्रद्धा भाव से आचमन करके उसमें डुबकी लगाने लगीं।
मैं भी स्नान करने घाट पर जाकर बैठ गया। आचमन करने के लिये चुल्लू में जल ले लिया। दृष्टि डाली तो गन्दगी नजर आ गई। सारा श्रद्धा-भाव तिरोहित हो गया। आचमन किये बगैर जल वहीं छोड दिया। इधर- उधर दृष्टि घुमाई, देखा- वही वृन्दावन शहर के गटर का पानी बड़े बेग से यमुना के जल में समा रहा था। अब तो मेरा उसमें डुबकी लगाने का साहस ही टूट गया। पत्नी यमुना के जल से बाहर निकलकर पुनः उन्हें प्रणाम कर रहीं थीं। मुझे यमुना में खड़े देखकर बोलीं-‘जल में छोत करम में कीरा। अरे! खड़े-खड़े क्या देख रह हैं डुबकी लगाओ?’
मुझे उनके आदेश का पालन करना पड़ा। एक डुबकी लगाकर बाहर निकल आया। वे बोली-‘अरे! आप ने तो एक ही डुबकी लगाई है। तीन डुबकी लगाने की परम्परा है।’
मुझे कहना पड़ा-‘एक ही डुबकी से मन भर गया।’
वे बोलीं-‘मैं देख रही थी, आपने तो आचमन भी नहीं किया। अरे! यहाँ आये हैं तो हम अपने श्रद्धा भाव में कमी न आने दें। इसमें जो लोग गन्दगी बहा रहे हैं, इसका दोष तो उन्हींका है। यह पाप उन्हें लगेगा।’
उस दिन से जब-जब मुझे तीर्थ स्थान में नदियों में स्नान करने का मौका लगता है, मैं इधर-उधर झाँक कर वहाँ बह रहे गटरों को देखने लगता हूँ। कोई गटर उसमें आकर मिलते दिख गया तो उस नदी में स्नान करने का मन नहीं करता। नदी शास्त्र के सारे सिद्धांत धराशाही होकर मेरा मुँह ताकने लगते हैं।
शासन गटरों को दूर करके नदियों की स्वच्छता को बढ़वा दे रहा है।
हम चित्रकूट जाते रहते हैं। कहते हैं श्रीराम जी ने रामधाट पर स्नान किया था, वहाँ स्नान न किया तो चित्रकूट जाने का काई अर्थ नहीं है। स्नान करते समय मेरी दृष्टि बस्ती के उस गटर पर पड़ गई जो सीधे रामधाट पर मन्दाकिनी में ही आकर मिलता हैं। जैसे ही उस गटर पर दृष्टि पड़ी मैं जानकीकुण्ड पर जाकर स्नान करने लगा हूँ। इन दिनों पता चला कि सरकार ने उस गटर को पाइपों द्वारा नदी में से ले जाकर रामधाट से बहुत दूर डाल दिया है, तब से मैं फिर रामधाट पर ही स्नान करने लगा हूँ।
नदियों के किनारे बसे लोग मोटर पम्प डालकर उसका जल अपने खेतों की सिचाई के लिये कर लेते हैं, इससे नदी किनारे के पशुओं को पीने के लिये भी पानी नहीं बचता। लवालव भरी नदियाँ सूखी दिखाई देतीं हैं।
कुछ नदियाँ बाढ़ लाती है और आस-पास के क्षेत्र को डुबो देती हैं। जबकि कुछ नदियाँ सालभर सूखीं पड़ीं रहतीं है। जो हमेशा भरी रहती है उनका पानी बहकर समुद्र में बर्बाद हो जाता है। इस पानी को बचाने के लिये नदियों पर बांध बनाये जाते हैं लेकिन बांध महंगे पड़ते हैं इसीलिये ज्यादा पानी वाली नदियों से नहर निकालकर सूखी नदियों में डालकर उन्हें पुनर्जीवित करने की माननीय अटल विहारी वाजपेयी जी की नदियों को जोडने की योजना तो देश और लोक-जीवन की काया पलट करने में समर्थ होगी। अटल जी ने धसान और केन तथा नर्मदा, क्षिप्रा और गम्भीर नदियों को जोड़ने की योजना वनाईं थी। जिसे नदी जोड़ो परियोजना नाम दिया गया। नदी जोड़ो योजना एक बड़े पैमाने पर सिविल इंजीनियर परियोजना है। जिसका उदेश्य भारतीय नदियों को जलाशयों और नहरों के माध्यम से आपस में जोड़ना है। जिससे हमारे देश में बाढ़ अथवा सुखे की समस्या को दूर किया जा सकता है।
हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस पर तेजी से काम करना शुरू कर दिया है। वे जान गये है कि नदियों को लोक-जीवन से जोड़ा जाना चाहिए। इससे हमारे देश की आर्थिक स्थिति तो मजबूत होगी ही, नदियों के किनारे रहने वालों और नदियों के आधार पर अपनी जीविका चलाने वालों की जिन्दगी भी आसन हो सकेगी। नदियों के किनारे बसा लोक-जीवन फिर से सम्पन्न हो सकेगा।
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