Prem Gali ati Sankari - 150 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 150

Featured Books
Categories
Share

प्रेम गली अति साँकरी - 150

150====

===============

“दीदी ! मैं मंगला नहीं हूँ | ”उसने धीरे से कहा | अब एक बार फिर से मेरे और शीला दीदी के चौंकने की बारी थी | 

“मतलब? खुलकर बोलो मंगला, डरो नहीं| यहाँ तुम्हें कोई नुकसान नहीं पहुँचा सकता| नाम तो तुम्हारा मंगला ही है न? ”

“दीदी ! मेरा नाम मंगलप्पा है और मैं दक्षिण भारत की रहने वाली हूँ | ”

“मतलब? तुम बंगाली नहीं हो? ”मैंने आश्चर्य से पूछा | 

“नहीं दीदी, मैं दक्षिण भारतीय हूँ और इन्होंने मुझको कई सालों से अपने यहाँ एक तरह से कैद करके रखा है| ”मंगला ने बताया| 

“अरे!पर क्यों? और ये जो तुम बंगाली शादीशुदा स्त्रियों का शृंगार करती हो वह सब क्या है? क्या तुम्हारे पति बंगाली हैं? ”

“हमारे जैसी स्त्रियों के पति नहीं होते दीदी | ”उसकी भोली, सरल आँखों से फिर से टपाटप आँसु उसके गालों पर फिसलने लगे| 

“मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा है| तुम मेरे लिए मंगला ही हो| पूरी बात खुलकर बताओ| ”

“दीदी !मैं एक देवदासी हूँ जिसका अपना कोई नहीं होता केवल उस भगवान के जो उस पर कृपा करके उसे भेड़ियों से बचा लें या अगर तरस आ जाए तो उसे छोड़ दे जो अक्सर नहीं होता है| ” एक बार उन पंडितों के चंगुल में फँस जाने पर जब तक हम लोगों के शरीर की आखिरी बूँद तक न निकल जाए हमारा अपना कुछ नहीं होता| हम उस भगवान के बंदी बना लिए जाते हैं जिन्हें ये तथा कथित भगवान निचोड़-निचोड़कर दूसरे के सामने फेंकते जाते हैं और हमारा कर्तव्य होता है उनके सामने खुद को परोसते रहना | ”जैसे एक ही साँस में वह सब कुछ इतनी जल्दी से कह गई मानो कोई उसे फिर से उन्हीं दरिंदों के सामने खींच ले जाएगा| 

बहुत बहुत कंफ्यूज़न था, इतना कि मेरा सिर घूमने लगा| मैं इससे क्या पूछूं और क्या समझूँ? शीला दीदी भी मेरी तरह से भौंचक्की थीं और हम दोनों के मुँह से जैसे कोई बात ही नहीं निकल रही थी| 

“और तुम प्रमेश की दीदी के पास कैसे पहुंचीं? ”मैंने आश्चर्य से पूछा| 

“दीदी !हम कई स्त्रियों को किसी देवालय में ले जाया जा रहा था, यह कई साल पहले की बात है| मेरी एक बच्ची है, जिसके पिता के बारे में मुझे कुछ पता नहीं क्योंकि हम तो वहाँ न जाने कितने धूर्त भगवानों की सेवा में अर्पित रहते थे| वह बच्ची मेरे साथ थी और मैं उसे उस नरक में से बचना चाहती थी| ”उसने एक लंबी साँस ली और फिर कुछ पलों का मौन वातावरण में पसर गया | 

मैं और शीला दीदी अब एक नए आश्चर्य को झेलने के लिए चिंतित थे| हमारे दिलों की धड़कन सप्तम पर पहुँच चुकी थी| हम उसके आगे उसके बात करने की प्रतीक्षा में गुमसुम से थे| 

“देवदासी के नाम पर हमें कहीं पर भी पटका जा सकता था| मैं अपनी बेटी को लेकर चुपचाप सबसे छिपकर एक स्टेशन पर उतर गई और ट्रेन के चलते ही मैंने एक लंबी साँस ली | मुझे उस नारकीय जीवन से छुटकारा जो मिल रहा था, मैं आश्वस्त थी कि मैं कुछ भी करके अपनी बेटी को पाल लूँगी लेकिन इसे उन भेड़ियों में नहीं मरने के लिए नहीं छोड़ूँगी| ”

“कितनी बड़ी है तुम्हारी बेटी ? ”

“वह दस की हो गई थी और वहाँ के नियमों के अनुसार अगले वर्ष उसकी शादी भगवान से होनी थी जिसके बाद उसकी चीर-फाड़ होने की कल्पना ने ही मुझे दहला दिया था क्योंकि मैं खुद उस रास्ते से निकलकर आई थी | ”

“मुझे नहीं मालूम वह कौनसा स्टेशन था, छोटा सा धूल भरा, लगभग आधी रात का समय था जब मैं छिपकर ट्रेन से उतर गई थी| अपनी बेटी को अपनी गोदी में छिपाए मैं एक बैंच पर बैठी थी| हम दोनों बहुत भूखे थे और हमारे पास कुछ भी नहीं था| पता नहीं कैसे मेरी झपकी लग गई और कुछ ही देर बाद जब मेरी आँखें खुलीं मेरी बेटी वहाँ नहीं थी | उसे  न जाने कौन उठाकर ले गया था | शायद भूख के कारण वह किसी के लालच में आ गई होगी और जिसके लिए मैंने इतनी जोखिम मोल ली थी, वही अब मेरे पास नहीं थी | ”

वह फिर सुबक सुबककर रोने लगी, मैं और शीला दीदी उसकी बातें सुनकर सन्न रह गए थे और उसे कैसे सांत्वना दें, कुछ समझ नहीं पा रहे थे| 

“मैं कई दिनों तक उस स्टेशन के आस-पास भटकती रही लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ| मेरी सुनने वाला वहाँ था ही कौन? कुछ लोग भिखारी समझकर खाने के लिए कुछ दे देते लेकिन उनकी निगाह और मुझे छूने  का तरीका उनकी बदनीयत कह देता| मेरे पास तो कुछ था ही नहीं सिवाय अपने टूटे हुए मन और चिथड़े हुए शरीर के| तीसरे दिन स्टेशन के बाहर से एक कार गुजरी और मुझे स्टेशन की सीढ़ियों पर बैठा देखकर वह पीछे आई| कार में एक स्त्री व एक पुरुष थे | उन्होंने मुझसे पूछा कि मुझे कहाँ जाना था लेकिन मुझे तो कुछ पता ही नहीं था कि मुझे कहाँ जाना था या मैं क्या करूँगी| ”

“चलो, तुम्हें साथ ले चलते हैँ, हमारे यहाँ काम कर लेना तो खाना, कपड़ा और रहने का ठिकाना तो मिल ही जाएगा| ”

“वे पति-पत्नी लग रहे थे और उनके ऊपर विश्वास करने के अलावा मेरे पास कोई चारा भी तो नहीं था| वैसे मैं कौनसी जगह सुरक्षित थी? उन्होंने मेरे हाथ-मुँह धुलवाए, सबसे पहले खाना खिलाया।खाना खाते हुए मेरे मुँह में गस्सा नहीं जा रहा था, न जाने मेरी बेटी कहाँ और किसके पास होगी ? इतनी सुंदर और नाज़ुक सी बेटी को बचाने के लिए मैंने उसके साथ खुद को भी खो दिया था लेकिन दीदी, पेट की आग सबसे बड़ी आग है | मैंने उन लोगों को अपने बारे में कुछ नहीं बताया और चुपचाप उनके साथ बैठकर चली आई | उन्होंने मुझे कपड़े भी दिए और यहाँ आकर मुझे प्रमेश बाबू के घर में उनकी दीदी के पास छोड़ दिया| ”

“तुम इतनी अच्छी हिन्दी और बंगला कैसे बोल लेती हो? ”मैंने पूछा| 

“दीदी ! हमें हर राज्य में भेजा जाता रहा है जहाँ कम से कम साल/दो साल तो रहना ही होता है इसलिए अपने आप ही भाषा आ जाती है| ”

“और ये जो तुम बंगला महिला का शृंगार करती हो? ”

“यह प्रमेश बाबू की दीदी की इच्छा के कारण| मैं तो जहाँ रहूँगी, उन्हीं लोगों  के अनुसार रहना होगा| मेरा अपना है क्या? ”

“अब यहाँ क्या हुआ ? ”

“दीदी !ये लोग बहुत खतरनाक हैं| ये रात में कुछ ओजई करते हैं| जिसमें कुछ आत्माओं को बुलाकर उनसे बात करते हैं | मुझे ज़्यादा नहीं पता पर कल रात जब आपका नाम लेकर बात कर रहे थे मैंने देखा और सुन लिया तबसे दीदी मेरे पीछे पड़ीं थीं| अब मैं भागकर आई कि आपको बता दूँ कि ये आपके साथ कुछ तो गलत करने वाले हैं| अब मैं वहाँ नहीं जाऊँगी दीदी!”वह फिर से बिलखकर रो पड़ी| 

“नहीं, मैं तुम्हें वहाँ कैसे भेजूँगी? ”मैंने उसे आश्वस्त किया| संस्थान में कहाँ रहने खाने की कोई कमी थी | मेरा मन अब उसकी खोई हुई बच्ची के बारे में सुनकर अंदर से हाहाकार कर रहा था| 

मेरे लिए न वह देवदासी थी, न ही दक्षिण भारतीय, वह मेरे लिए एक छोटी मासूम बहन थी जिसके साथ कितना अन्याय हुआ था| 

उस दिन पापा से बात करते समय मैंने उनसे अपनी एक इच्छा जाहिर की| हमारे संस्थान के बराबर जो एक खाली जगह थी, क्या वहाँ मैं एक योग का केंद्र खोल सकती हूँ ?