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सब कुछ बड़ा अजीब था लेकिन सच था और सच इसलिए था कि मैं उसे स्वयं अनुभव कर रही थी| संसार में जन्म लेना केवल एक अवसर की बात नहीं है बल्कि एक ऐसा रहस्य है जो सबको अपने-अपने तरीके से मनोमस्तिष्क के दायरे में धूमने के लिए बाध्य करता है| इस जीवन के होने, न होने के बीच भी तो न जाने कितने विद्वानों के चिंतन रहे हैं और चलते ही रहते हैं, रहेंगे भी क्योंकि जीवन का रहस्य किसने जाना है और जहाँ तक है जानना असंभव ही है|
हाँ, शरीर की उत्पत्ति जब हुई है, उसके साथ ही स्वाभाविक रूप से आवश्यकताओं के दरवाज़े खुले | हम जीव के जन्म की बात लेकर जब चिंतन करते हैं तब महसूस होता है कि शरीर की जरूरतें तो उसके जन्म के साथ ही से हैं लेकिन जैसे-जैसे हम सीखते गए, जरूरतों में परिवर्तन आता गया और आज के आदमी की जरूरतों में चिंतन का भी एक आवश्यक भाग शामिल हो गया|
पेट की भूख के साथ, शरीर की भूख भी प्राकृतिक थी जो किसी न किसी प्रकार पूरी होती रहती थी, जिसका पूरा होना आवश्यक भी था और है किन्तु जब वह आज के तथाकथित मनुष्य में ‘लस्ट’के रूप में आ गई तब समाज में हलचल मची क्योंकि अब तक समाज का एक संगठित रूप बन चुका था| इसीलिए बहुत से विभिन्न चिंतनों ने इस भाव को मन, शरीर, बुद्धि, दिखावा और न जाने किस-किस रूप में ढाल दिया | इसका सबसे खराब परिणाम यह हुआ कि मनुष्य बहकने लगा और किसी न किसी प्रकार से अपने को दिखावे की दुनिया में बादशाह बनकर स्वयं को प्रतिष्ठित करने में शान समझने लगा| यही सब दिखावा प्रेम के वास्तविक रूप को चट कर गया और हर चीज़ में ‘लस्ट’का तोल बढ़ने लगा| यह जो कुछ भी हुआ था, यह सब इसीका परिणाम था और यह कुछ नया नहीं था, ऐसी बातें, घटनाएं घटित होती रहती हैं | समाज को स्वस्थ रखने के लिए पहले इंसान को खुद से ईमानदार होने और खुद पर काम करने की ज़रूरत है|
मैं जानती थी पापा क्या कहना चाहते थे फिर भी कुछ चीज़ों में हमारी पिता-पुत्री की सीमाएं आकर खड़ी हो ही जाती थीं| हाँ, भाई जरूर मेरे लिए दुखी था और उसे यह अफसोस था कि मैंने अपनी बात उससे साझा न करके उत्पल जैसे भले और शिद्दत से प्रेम करने वाले इंसान को ऐसे ही जाने दिया|
अब हम सब अपना मन दूसरी ओर लगाने की कोशिश कर रहे थे और उस ट्रिप की तैयारी में व्यस्त होने की चेष्टा में संलग्न थे जिसका आदेश अम्मा से मिला था| दरसल, हम सभी प्रमेश और उसकी बहन से ऊब चुके थे और किसी तरह अपनी ज़िंदगी से उन दोनों को निकाल देने की कोशिश में लगे रहते|
पापा भाई के घर आ चुके थे और जब वे बात करते तब बिलकुल ऐसा नहीं लगता था कि पापा इतने बड़े हादसे से निकले हैं| कमाल की बात तो यह थी कि वहाँ के डॉक्टर्स भी आश्चर्यचकित थे कि इतने दिनों तक एक मरीज़ जो एक प्रकार से मशीनों के सहारे साँस ले रहा था, वह कैसे इतना स्वस्थ और तरोताज़ा हो सकता है? लेकिन यही सच था और सबके सामने था| क्या इसे ईश्वर की महिमा या चमत्कार कहा जा सकता था? देखा जाए तो यह दुनिया, इसके सभी जीव, सब चमत्कार ही तो हैं जो रहस्य से भरे पड़े हैं|
पापा के घर लौटते ही एमिली के परिवार ने उनके लिए एक शानदार ‘वैलकम पार्टी’ रखी जिसको हम सबने यहाँ संस्थान में देखा और फिर से एक नई लहर सी सबके मनों में भरने लगी| ऐसा लगा कुछ गलत हुआ ही नहीं था जो था सब सपना था, केवल सपना जैसे हम इस दुनिया से किसी दूसरी दुनिया में चले जाएं और कुछ न बदले, कुछ भी तो नहीं |
मुझे आज तक इस बात से बड़ा गर्व महसूस होता है कि हमारी दादी की शिक्षा आज के समय के तथाकथित कागज़ में लिखी नहीं थी लेकिन उनका मस्तिष्क तो उन दिनों भी कंप्यूटर था जिन दिनों में लोग उसके नाम तक से वाकिफ़ नहीँ थे| दादी के मस्तिष्क का चौकन्नापन। उनका स्नेह, दुलार, प्रत्येक के प्रति एक ईमानदार स्नेहाशीष उनके प्रति सम्मान, गर्व व ऊष्मा से भर देता |
“बेटा ! हम कुछ नहीं जानते कहाँ से आए, कहाँ जाना है पर यह तो जानते हैं न कि इस सम्पूर्ण जगत में हम मनुष्यों के पास ही केवल सोचने, समझने की शक्ति है| उसका उपयोग तो हम सही मायनों में कर सकते हैं न!हमारे पास यह पल है, बस इसी पल को जीना है और जीवन में क्या इतनी बड़ी मुसीबत है? ”
न जाने दादी के पंच कैसे इतने सटीक होते थे कि सबके दिल में उतर जाते| आज भी महसूस होता है कि चाहे वे अपनी सांसारिक देह के रूप में कबसे हमारे साथ नहीं हैं लेकिन उनकी बातों बातों में कही गई सीख, उनके आदर्श हमारे दिलों में आज भी बदस्तूर हैं|
“अपना पराया कोई नहीं है, जो कुछ है, वह अपना ही है, सब कुछ मन से ही संबंधित है जिस पर भरोसा रखो, वह अपना हो जाता है और जब साँस छूटती है तब शरीर भी अपना नहीं रहता| ”
मुझे पापा की बातों में दादी की बातों का ‘आरोमा’महसूस होता| एक अलग सी सुगंध जो बाहर से भीतर तक पसर जाती और हम सबको जैसे एक साथ ला खड़ा करती| वही मुस्कान, एक दूसरे के प्रति स्नेह, दुलार, तकलीफ़ में काम आना और जो भी हमारे साथ जुड़ जाते, उन सबको अपना समझना और उनकी परेशानी को अपनी समझकर समाधान निकालने की चेष्टा करना|
“बेटा! हमें खुद उदाहरण बनना होता है तभी समाज में कुछ बदलाव आ सकता है अन्यथा केवल बोलते रहने से कुछ नहीं होता| हर दिन ईश्वर को धन्यवाद देने से और मुस्कान की सकारात्मक ऊर्जा से शुरू करो तब देखो ईश्वर की कृपाओं की अनुकंपा !”कमाल थी न दादी!इतने बड़े दिल की और इतनी समझदार कि इशारों में बातों को दिल के अंदर तक उतार देतीं| हम तथाकथित शिक्षित वर्ग की उनके सामने क्या बिसात थी आखिर?
पता नहीं, क्यों महसूस होने लगा था कि शायद दादी होतीं तब वे भी उत्पल को मन से स्वीकार कर लेतीं| वैसे कभी-कभी इस बात पर संशय भी होता | मनुष्य का मन बड़ा चंचल है न, पल में इधर भगत है तो पल में न जाने कहाँ पहाड़ की चोटी पर जा चढ़ता है जैसे ऊपर से छलांग लगाने के लिए तैयार ही बैठ रहता है|
उत्पल को भुला देना मेरे वश में नहीं था लेकिन जाने क्यों एक ऐसा अहसास मन में भरता जा रहा था कि कोई ‘मोह भंग’ की स्थिति तो ज़रूर थी जो उसे मुझसे दूर खींचकर ले गई थी| एक ओर से मुझे भ्रमिक तसल्ली सी रहती कि वह अपने जीवन को किसी अपने ऐसे साथी के साथ साझा कर सके जो उसको हर प्रकार की संतुष्टि दे सके, दूसरी ओर यही सोचती तब अपने एकाकीपन पर आँखों में आँसु भर आते| इंसान को किसी भी स्थिति में संतुष्टि कहाँ रहती है !