Pehla Pyar - 1 in Hindi Love Stories by Kripa Dhaani books and stories PDF | पहला प्यार - भाग 1

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पहला प्यार - भाग 1

2 फरवरी 1987

कोहरे की चादर लपेटे जाड़े की अलसाई सुबह सूरज की झिलमिलाती किरणों के इंतज़ार में थी। चाय की चुस्कियों और अख़बार की सुर्ख़ियों के साथ दिन का आगाज़ हो चुका था। मुँह अंधेरे सैर पर निकले कई लोग घरों को लौट रहे थे, तो कई जाने की तैयारी में थे।

इन सबसे जुदा राज कंबल में दुबका दीन-दुनिया से बेख़बर मीठी नींद में समाया हुआ था। एकाएक साइड टेबल पर रखी घड़ी का अलार्म बज उठा और उसकी मीठी नींद में खलल पड़ गई। उसने आँखें खोलने की ज़हमत नहीं उठाई। नींद की ख़ुमारी में आँखें मूंदे-मूंदे ही बोला, "बेला! अलार्म बंद दो यार।"

कोई जवाब न आया।

राज ने करवट बदलकर आँखें खोली। बेला नदारद थी।

"आज इतनी जल्दी उठ गई।" वह बुदबुदाया और हाथ बढ़ाकर घड़ी का अलार्म बंद कर दिया। साइड टेबल पर घड़ी के पास गुलाबी रंग का एक लिफ़ाफ़ा रखा था, जिस पर सुर्ख लाल रंग का गुलाब महक रहा था। होठों पर मुस्कान के साथ उसने गुलाब और लिफ़ाफ़ा उठा लिया और सिरहाने पर टेक लगाकर बैठ गया।

कुछ देर गुलाब की महक ख़ुद में समाने के बाद उसने लिफ़ाफ़ा खोला। अंदर एक ख़ूबसूरत ग्रीटिंग कार्ड था, जिस पर लिखा था -

प्रिय राज!

जन्मदिन की ढेरों शुभकामनायें!

तुम्हारी बेला

“थैंक यू बेला!” राज बुदबुदाया।

कुछ देर कार्ड को निहारने के बाद उसे लिफ़ाफ़े में डालकर उसने साइड टेबल पर रख दिया। गुलाब का फूल भी उसने वहीं रख दिया। इस गुलाब की महक की नहीं, बल्कि उसे बेला के प्यार की महक की दरकार थी।

राज और बेला की शादी को दस ही महीने हुए थे और बेला के साथ राज का वो पहला जन्मदिन था। इस दिन के बारे में वह कई दिनों से सोच रहा था। सोचता था – ‘कैसे मुबारकबाद देगी वो उसे? और तोहफ़े में क्या देगी?’

वैसे उसकी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा तोहफ़ा तो बेला ख़ुद थी, फिर भी पहली बार उससे तोहफ़ा पाने का रोमांच तो दिल में था ही। वैसे उसकी चाहत तो ये थी कि जब वह आँखें खोले, तो उसकी सांवली-सलोनी बेला का मुस्कुराता चेहरा सामने हो और वह उसके कानों में सरगोशी करते हुए जन्मदिन की शुभकामनायें देकर उसके गालों पर उसे जन्मदिन का तोहफ़ा दे दे। मगर उसकी सारी ख्वाहिशों और अरमानों को धुआं कर बेला नदारत थी।

अंगड़ाई लेते हुए उसने घड़ी पर निगाह जमा दी। वह सुबह के सात बजा रही थी।

'ज़रूर बाहर आंगन में कुर्सी डाले बैठी अखबार के पन्ने पलट रही होगी।' बेला का ही ख़याल उसके ज़ेहन में तैर रहा था।

वह पलंग से नीचे उतरा और पैरों से टटोलकर स्लीपर पहनी। धीरे-धीरे चलता हुआ वह खिड़की के पास पहुँचा और पर्दा सरकाकर खिड़की खोल ली। खिड़की खुलते ही ठंडी हवा का झोंका उसके चेहरे को छू गया और कंपकंपाती ठंड का अहसास उसकी नसों में उतर गया।

खिड़की से नीचे का आंगन और मेन गेट साफ़ दिखाई दे जाते थे। उसने देखा कि आंगन सूना पड़ा है, अलबत्ता मेन गेट का ताला ज़रूर खुला हुआ है। यूं तो गेट का ताला खोलने का काम उसके ज़िम्मे था। मगर आज यह काम बेला ही कर चुकी थी।

'लगता है, जन्म दिन के दिन अपने पति परमेश्वर को किसी काम को हाथ न लगाने दोगी।' सोचते हुए एक मंद मुस्कान उसके होंठों पर सज गई।

उसने फ़ौरन शॉल लपेटी और बेडरूम से बाहर निकलकर सीढ़ियों से होता हुआ नीचे उतर गया। उसका अंदाज़ा था कि बेला किचन में होगी। मगर अंदाज़ा ग़लत साबित हुआ। बेला वहाँ भी नहीं थी।

'कहाँ गई बेला?' - वह सोच ही रहा था कि उसकी नज़र फ्रिज़ पर चिपके एक कागज़ के पुर्ज़े पर ठिठक गई।

वह फ्रिज़ के पास गया और कागज के पुर्ज़े को खींच लिया। उस पर एक संदेश लिखा था -

'राज!

तुम्हारे जन्मदिन के उपहार के साथ मैं तुम्हारा इंतज़ार कर रही हूँ। जल्द इस पते पर पहुँचो।'

बेला

पता पढ़कर राज के माथे पर सलवटें उभर आई – ‘जन्म दिन के दिन इस जगह?’

जाना तो था ही। वह फ़्रेश होकर तैयार हुआ और अपनी मारुति 800 ड्राइव करते हुए मंज़िल की ओर रवाना हो गया। उसके ज़ेहन में बार-बार एक ही सवाल कौंध रहा था कि आखिर बेला ने उसे वहाँ क्यों बुलाया है? ऐसा कौन सा उपहार है, जिसे देने के लिए उसने वो जगह चुनी है।

क्रमश:

कहां चली गई है बेला? कहां बुलाया है उसने राज को? क्या उपहार देने वाली है वो? जानने के लिए पढ़िए अगला भाग।

दोस्तों! उम्मीद है, आपको आज का भाग पसंद आया होगा। कहानी का अगला भाग जल्द रिलीज होगा। Thanks!

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