Circus - 7 in Hindi Moral Stories by Madhavi Marathe books and stories PDF | सर्कस - 7

Featured Books
  • हीर... - 28

    जब किसी का इंतज़ार बड़ी बेसब्री से किया जाता है ना तब.. अचान...

  • नाम मे क्या रखा है

    मैं, सविता वर्मा, अब तक अपनी जिंदगी के साठ सावन देख चुकी थी।...

  • साथिया - 95

    "आओ मेरे साथ हम बैठकर बात करते है।" अबीर ने माही से कहा और स...

  • You Are My Choice - 20

    श्रेया का घरजय किचन प्लेटफार्म पे बैठ के सेब खा रहा था। "श्र...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 10

    शाम की लालिमा ख़त्म हो कर अब अंधेरा छाने लगा था। परिंदे चहचह...

Categories
Share

सर्कस - 7

 

                                                                                          सर्कस : ७  

 

          रोज की तरह, आदत के नुसार पाँच बजे नींद खुल गई। उठकर खिडकियाँ खोल दी तो ठँडी हवाँ के झोंके से पुरा कमरा ताजगी से भर गया। सुहावने मौसम से दिन तरोताजा महसुस होने लगा, मन उल्हासित हो उठा। जल्दी-जल्दी सब रोज के कामकाज खत्म कर के मैं तैयार हो गया। रात में ही एक डायरी मेज पर रखी हुई थी, वह लिखने का प्रारंभ आज से ही प्रतिदिन करने का निश्चय मैंने किया था। छोटी से छोटी बात ध्यानपूर्वक लिखने से, बाद में उन सब बातों के बारें में सोच-विचार कर सकुँगा। कब, किसने, किस तरह का बर्ताव किया, क्युँ किया ? फिर उसपर मैंने ठीक तरह से व्यवहार किया या नही ? मुझे खुद के स्वभाव में ओैर क्या बदलाव लाने होंगे ? यह सब लिखी बातें बाद में मुझे बडी काम आएगी। डायरी में मन की कुछ समायी बातें लिखी ओैर नाष्टा करने चला गया। खाने के मेज पर सब लोग इकठ्ठा हो गए थे। पनीर पराठा, दही, फलों की कटोरी, ओैर मसाला दुध ऐसा मस्त खाना देखकर मेरी भुख एकदम से बढ गई। खाते समय हर कोई मुझे

अलग-अलग सुझाव दे रहे थे। वैसे देखा जाय तो हर व्यक्ति का अनुभव, उसके स्वभावानुसार होता है। वह बात दुसरे पर लागू हो जाएगी यह जरूरी नही, लेकिन जो ज्ञान हमे मिलता है वह दुसरों तक पहुँचाने की सब की बडी चाहत होती है, ओैर ठीक भी है इससे ही ग्यान की गठरी जमा होती है। मैं सबकी बाते बडे ध्यान से सुन रहा था अननुभवी व्यक्ति को इसके सिवाय कोई चारा भी नही होता। चाचाजी मुझे सर्कस के मैदान पर छोडते हुए ऑफिस चले जाने वाले थे। भगवान के मंदिर में दर्शन करते हुए हाथ जोडकर दिल से प्रार्थना की ओैर बडों का आशिर्वाद लेकर हम दोनों घर से निकल गए।

      जाते हुए चाचाजी ने घर के पास का बसस्टॉप दिखा दिया। कल से मैं अकेला बस से जाने वाला था। यहाँ से सीधे सर्कस के मैदान के लिए बस जाती थी। चाचाजी ने वह सब बता दिया। थोडी देर में हम सर्कस के मैदान में पहुँच गए। चारों तरफ एक शांती फैली हुई थी। लोग अपना-अपना काम कर रहे थे, लेकिन उसमें भागा-दौडी नही थी। अरुणचाचाजी के ऑफिस में जाते ही उन्होंने बडे प्रसन्नता से हमारा स्वागत किया ओैर नये काम के लिए शुभकामनाएँ दी। दोनों चाचाजी की थोडी बातचीत होते ही विश्वासचाचाजी जाने लगे तो मुझे थोडा असहज मालूम होने लगा, उन्होंने मेरे मन की बात जान ली ओैर मेरी पीठ थपथपाकर धीरज बँधाया। उनके जाने के बाद पानी का गिलास मेरे सामने रखते हुए अरुणचाचाजी ने कहा “ अभी मैं जो बाते तुम्हे बता रहा हूँ वह ध्यान से सुन लेना। अब इस कमरे से बाहर जाने के बाद तुम यहाँ काम करने वाले एक कर्मचारी हो इस बात का ख्याल रखना। नए हो तो सब की सुनते जाना, मिलनसार व्यवहार रखना। तभी लोग तुम्हे अपनाऐंगे ओैर काम की खुबियाँ, बारिकीयाँ बताएँगे, यह ग्यान बाद में काम आएगा। अभी तो मन से मालकीयत का विचार निकाल दो, सिर्फ सिखना है इसी बात का ख्याल रहे। खुब मेहनत करो। लोगों का विश्वास धीरे-धीरे संपादित करना। उनकी परिवारीक समस्याओं, तथा मन की उलझन, समझने का प्रयास करना। रिश्तों को जोडने की कला संपादित करना। कभी-कभी अनजाने में बुरे संगत का असर भी तुम पर हावी हो सकता है, तो समय पर ही होश संभालना। मैं तुम पर नजर रखूंगा। कभी भी बात करना चाहो तो मुझ से बात कर सकते हो, लेकिन एक तरह की दुरी हमेशा बनाए रखना। नही तो लोग यह सोचेंगे की मैं तुम्हारा पक्ष ले रहा हूँ। जब आप एक विभाग का अध्ययन खतम करेंगे तब हम खुलकर बाते करेंगे। करीब-करीब तीन महिने बाद मैं हर एक से चर्चा करता हूँ। उनकी कठिणाइयों ओैर अनुभवों को मैं समझ लेता हूँ। उन कठिणाइयों का सामना कैसे कर सकते है, कोई अलग मार्ग निकल सकता है क्या इस बारे में चर्चा करते है। ऐसा करने से उनके ओैर मेरे बीच एक विश्वास का, अपनेपन का बंधन जुड जाता है। हर एक के साथ ऐसा रिश्ता होने के कारण किसी को कोई शक नही होगा।”

     “ जी हाँ चाचाजी.... मेरा मतलब है सर, आपकी यह बातें मैं हमेशा याद रखूँगा। लेकिन कभी असहनीय बात हो गई या भावनाओं की अधिकता में अपनेआप पर मैं काबू न पा सका तो आपके पास आने की अनुमती देना।”

    “ हाँ जरूर आ जाना। आपकी कम उम्र ओैर परिवार के माहोल से दूर रहते हुए किन समस्याओं का सामना करना पडेगा, इस बात से मैं वाकिब हूँ। अब तुम्हे अपने मॅनेजर के हाथ सोंप देता हूँ। ऑल द बेस्ट।”  

    अरुणसर ने घंटी बजाकर सिपाही को अंदर बुलाया ओैर मॅनेजर देसाई को अंदर भेजने के लिए कहा। उनके आने तक हम दोनो चुपचाप बैठे रहे। दोनों के लिए एक अलग युग की शुरुवात हो रही थी। एक नए युग की शुरवात करने जा रहा था जब कि दुसरे का पुराना युग ढलान पर था। कुछ साल ही हम साथ-साथ रहने वाले थे। देसाई आने के बाद अरुणसर ने मेरा ओैर उनका परिचय करा दिया। सर्कस में काम करना चाहता है, थोडे दिन काम सीख लेगा, अगर यहाँ मन लगा तो देखते है आगे क्या करना है। ऐसी संक्षेप में जानकारी देकर वह चले गए। देसाईसर ने मेरी ओर पुरे बारिकी से देखा। चाचाजी ने बताया था, उसके अनुसार सादे कपडों में, मैं आया था। फिर भी मेरी प्रतिभा ओैर तेज छिप नही पाया था। वही बैठकर उन्होंने मेरी परिवारीक, शैक्षणिक पृष्ठभूमी की समीक्षा की। डॉक्टर द्वारा दिए गए फिटनेस प्रमाणपत्र की जाँच की। कुछ फॉर्म मुझसे भरवा लिए। फिर उन्होंने कहा “ श्रवण, अभी यहाँ की दिनचर्या के बारे में तुम्हे जानकारी देता हूँ। यहाँ दिन की शुरुवात सुबह सात बजे होती है। यानी हर कोई पहली चाय पीने रसोईघर में एकत्रित होते है। उसके बाद अपने-अपने कसरत का अभ्यास शुरू किया जाता है। नए करतब का निर्माण करना हो तो उस विषय के बारे में चर्चा, फिर सुचना, बदलाव, अभ्यास दस बजे तक चलता है। दस बजे खाना। उसके बाद सब कलाकार अपने-अपने तैयारी में जुट जाते है। बारह से तीन, साढे तीन से छह ओैर आखरी शो सात से दस बजे तक होता है। बीच के आधे घंटे में थोडा कुछ खाने का समय रहता है। जादा खा नही सकते क्युँ कि खाने के बाद काम करना मुश्किल हो जाता है। इसलिए रात का शो खत्म होने के बाद सबको ठीक से भोजन मिलता है। हर एक विभाग के काम करने का समय अलग-अलग होने के कारण सबका आराम ओैर काम करने का समय भी तय रहता है। धीरे-धीरे सब पता चल जाएगा, आठ दिन सिर्फ चारों तरफ चल रहे कामों का निरीक्षण करते रहना। किसी ने कोई काम बता दिया तो वह कर लेना। अब दस बजने ही वाले है। सब नाश्ते के लिए इकठ्ठा हो जाएँगे, वही सब से तुम्हारी पहचान करवा देता हूँ।” मेरा शरीर, दिमाग तो सुन्न हो गया। दो समय घर का पोषक खाना, ओैर दस बजे सोने का रिवाज ऐसे घर से आया हुआ मैं, अब सिर्फ एक बार ठीक से खाना मिलेगा ऐसी दुनिया में आ पहुँचा, दिनभर काम का मेल था। देसाईसर के पीछे सर्कस के जगत में प्रवेश किया।

      अंदर देखा तो बीच में एक बडी खुली जगह थी ओैर एक तरफ रहने के लिए तंबू, तो दुसरी तरफ जानवरों के पिंजरे रखे हुए थे। पिंजरे से मुख्य खेल के तंबू तक रास्ता बनाया था ताकी खेल के समय जानवरों को ले जाने में आसानी रहे। यह पिंजरे खास तौर पर बाघ, सिंह के थे। अंदर मैदान के बीचो-बीच रसोईखाना। वहाँ एक बडे टेबल पर दो बर्तन रखे हुए दिखाई दिए। अपने-अपने करतब के अभ्यास के बाद एक-एक करके नाश्ता करने लोग आ रहे थे। देसाई सर ने सबका ध्यान अपनी तरफ खिंचते हुए कहा “ आज अपने सर्कस में यह नया लडका शामिल हो रहा है। श्रवण नाम है इसका।”

      सब लोगों ने मेरी तरफ एकबार मुड के देखा, किसी ने मेरी तरफ हाथ उपर उठाया, तो किसी ने नजरंदाज किया। किसी ने ये क्या यहा रह पाएगा ऐसे भाव से उपेक्षा भरी नजर फेर दी। कोई अपने प्यार भरे मुस्कान से अपनापन दे रहे थे। ऐसे संमिश्र माहोल को देखकर एक पल के लिए लगा जैसे मैं खो गया हूँ, लेकिन इतने में पहले सर्कस में जो मेरा मित्र बन गया था वह सामने से मुस्कुराते हुए मेरे पास आ गया। वह देखते ही मुझे भी थोडा सुकुन मिला। देसाई सर भी मुझे उसके हवाले करते हुए वहाँ से निकल गए। उनको भी काम पर जाना था। नए दोस्त ने बडे प्यार से अंदर खाना खाने के लिए बुलाया फिर एक दुसरे से बातचीत करते अपनी पहचान करा दी। एक कटोरी में रोटी-सब्जी परोस ली ओैर बाहर एक कोना पकडकर हम बैठ गए। मैंने एक निवाला मुँह में लिया तो मिर्च की जलती लों अंदर चली गई ऐसा महसुस होने लगा। आँख-नाक से पानी बहने लगा। धीरज ने पानी का गिलास सामने किया लेकिन पानी पीने से भी कुछ बात नही बनी, इतने में एक ओैरत हाथ में कटोरा लेकर बाहर आ गई ओैर बोली “ यहाँ नया आया है ना ? तुम खाना ले रहे थे तब देखा मैंने। तभी गुड लेने अंदर गई, अब ये गुड खा ओैर पानी पी अच्छा लगेगा तुझे।” गुड के साथ पानी पीते ही थोडा ठीक लगा।

       धीरज ने कहा “ यह हमारी गोदाक्का। सब सर्कस के लोगों की माँ जैसी है। किसी को क्या पसंद है, क्या नही वह जानती है। किसी की तबियत ठीक नही तो घर की दवाई देती है। झगडे छुडाती है। घर की याद सताने लगी तो आँखों में आए आसुओं को देखकर वही ममता से पोंछ देती है।” यह सुनकर गोदाअक्का ने हँसते हुए कहा “ काफी तारीफ हो गई, अब चलो, नही तो देर हो जाएगी। किसी ने मेरी बात नही सुनी तो मैं गुस्सा भी करती हूं पता है ना ?” उसकी ममताभरी नजर सबको एकत्रित बांधने की शक्ति से परिपूर्ण थी। वह चले जाने के बाद हमने जल्दी-जल्दी खाना खाया। मैंने तो गुड के साथ ही रोटी खायी, लेकिन थोडी रोटी धीरज ने सब्जी के साथ खाने के लिए मजबुर किया। रोज कोई तुझे गुड रोटी नही खिलाएगा ऐसे खाने की आदत लगानी पडेगी। फिर थोडा तीखा थोडा मीठा करते मैंने खाना खत्म किया। धीरज को यह बात भी बता दी कि आठ दिन घर से आता-जाता रहुँगा फिर सर्कस में शमिल हो जाऊँगा। तो धीरज ने पुछा “ आज तुझे कौनसा काम दिया है ?”

    “ कुछ नही. आज सिर्फ सब देखते रहना ओैर किसी ने कुछ काम बताया तो वह कर देना एसा कहा है।”

    “ ठीक है, तो आज मेरे साथ ही रहना। किसी ने कुछ काम बताया तो कर देना।”

   वहाँ से उठकर खाने की थाली धोते हुए जगह पर रख दी ओैर धीरज जहाँ रहता था उस तंबू में हम दोनों चले गए।

    बारह कॉट वहाँ पर बिछाए हुए थे। कॉट के बाजू में एक स्वतंत्र अलमारी हर किसी के लिए रखी थी। सात-आठ लडके पहले से ही वहाँ मौजुद थे। नहाने के बाद सब मेकप के लिए जाने वाले थे। धीरज के साथ नहाने की व्यवस्था कैसी होती है वह देखने के लिए मैं भी गया। कामचलाऊ शेड वहाँ खडे किए थे। नहाने-धोने की अलग-अलग व्यवस्था थी। बाजू में एक बडी सी टंकी के पाइप से वहाँ तक पानी लाया गया था। उस वातावरण को देखकर मुझे कुछ अजीब सा लगा। झटके से निकलकर बाहर आ गया। यहाँ-वहाँ देखते जा रहा था तभी किसी ने मुझे आवाज दी तो उधर चला गया। एक आदमी ने वहाँ रखी साइकिलें धोने के लिए मेरी मदत माँगी, एक जगह पर रखा हुआ गीला कपडा दिखाते हुए उसने दुसरी साइकिलें धोना प्रारंभ किया। मैं भी गीले कपडे से उनको पोंछना शुरू किया।

      तभी गुस्से से भरे आवाज में वह आदमी बोला “ बोल नही सकते हो क्या ? क्या नाम है, कहाँ से आए हो ? एक दुसरे से पहचान करा लेना यह बात तुम्हे आती नही है क्या ?” अचानक हुए ऐसे शब्दों की बरसात से, मैं तो हडबडा गया। मेरी अवस्था देखकर फिर वह आदमी मुस्कुराते हुए मेरी पीठ पर थपथपाते बोला “ अरे, डर मत। याद रख कभी भी आदमी के उपर-उपर के बर्ताव पर भरोसा नही करना चाहिये। मीठा बोलता हो वह अच्छा इन्सान ओैर जो व्यक्ति कठोर वाणी में बात करे वह बुरा इन्सान ऐसे कभी मान नही लेना चाहिए। पहले तो हमे अपनेआप को समतोलता में स्थापित करते हुए हर आदमी को देखना चाहिए। फिर धीरे-धीरे इन्सान की परख करना सीख जाते है। किसी के बारे में अभी से कुछ अपना अनुमान मत बना लेना। अभी यह साइकिलें एक-एक कर के बाजू में रख दे। कसरत करने वाली लडकियाँ यही से साइकिल लेकर मुख्य तंबू में प्रवेश करती है। कभी भी, कोई भी मदद चाहिए तो बेझिझक मेरे पास आ जाना।”

      मैंने अपना सिर हिला दिया। इतने में मुझे ढुँढते हुए धीरज आ गया। “ कहाँ थे तुम, कब से तुम्हे ढुँढ रहा हूँ। चल तुझे मेकप रूम दिखाता हूँ।”

   “ तुम आगे चलो, मैं यह काम खत्म कर के फिर वहाँ आ जाता हूँ।” बाय चंदू भैय्या कहते हुए धीरज चला गया।  हम दोनों को देखकर बडे संतोष के साथ चंदू भैय्या मुसकुराए।

अब मुझे भी थोडा धैर्य आ गया। हाथ में जब कोई काम रहता है, तो भले-बुरे सब खयालों को हम दूर रख पाते है ओैर उससे हमारा हौसला बढता है। साइकिलों को पोंछ कर एक पंक्ति में लगा दी फिर चंदू भैय्या की बताई दिशा में मेकप रूम की ओर चला गया। मेरा नयापन सब महसुस कर रहे थे क्युँकि हर कोई पहली बार ऐसी ही अनभिज्ञता से वहाँ आया था। आइए शेटजी किसी ने मेरा स्वागत किया ओैर हाथ में एक लिपस्टिक थामकर जोकर के गालों पर गुब्बारे रंगवाने के लिए कहा। अभी धीरे-धीरे काम में मजा आने लगा। बारह बज रहे थे, हर कोई अपने काम में व्यस्त था। सामने बैठे जोकर ने एक बार कैसे गुब्बारे बनाने है वह सीखा दिया, पहले तो डरते-डरते मैंने एक-दो गुब्बारे बनाए फिर बडे आत्मविश्वास के साथ वह काम करता गया। पहले ड्रॉइंग बुक में बनाए जोकर, अभी वास्तव में कलर कर रहा हूँ इस बात की मुझे बहुत हँसी आ रही थी। एकाग्र मन से मैं वह काम करता गया। बीच में धीरज ने किसी की पहचन करवा दी लेकिन कोलाहल में कुछ समझ नही पाया। बाहर लोगों की आवाजें सुनाई देने लगी, कलाकार अब अपनी भूमिका जीने के लिए उतावले हो रहे थे। कपडे बदलने का कमरा दुसरी तरफ था। जिनके शुरू में ही खेल में काम थे वह पहले तैयार होने लगे।

      धीरज ने मुझे उस कोलाहल से बाहर निकाला ओैर मुख्य तंबू की ओर ले गया। वहाँ अरुणसर, देसाई ओैर भी तीन-चार लोग थे। खेल आरंभ होने से पहले गणेश भगवान की पुजा की जाती है, धीरज ने बताया। अरुणसर ने गंधअक्षता लगाकर गणेशजी को ताजे फुलों की माला पहनायी, धुप-दीप दिखाकर नारियल का भोग चढाया, फिर बडे मनोभाव से प्रार्थना करते हुए खेल की पहली घंटी दी गई। पुजा का सब सामान एक कोने में रखने के बाद धुप-दीप रसोईघर में भेजा गया। लोगों को अंदर छोडने की तैयारी शुरू हो गई। देसाईसर ने मुझे एक आदमी के हाथ सोंप दिया ओैर तंबू के मुख्य द्वार खडे रहकर लोगों के टिकिट लेते हुए अंदर छोडने के लिए कहा। हम दोनों ने मुख्य द्वार की कनात खोलते ही बाहर की  भीड अंदर आने के लिए उतावली हो गई। बाहर के सुरक्षाकर्मी ने लाइन से अंदर जाने की चेतावनी दी। आधा तिकीट फाडकर नंबर वाला हिस्सा प्रेक्षक के हाथ में थमा देना यह बात मनोहर ने मुझे बता दी। लोगों का अंदर आना चालू हो गया। नंबर का हिस्सा कौनसा है यह देखते हुए तिकीट फाडने में मुझ से देरी हो रही थी। मनोहर के बाजू से दस आदमी निकल जाते तो मेरे बाजू से तब तक केवल चार-पाँच ही आदमी जा पाते। मैं घबरा गया, बाहर का कोलाहल बढता जा रहा था। बॅंड वालों ने बॅंड चालू किया, वह सुनते ही बाहर के लोगों को लगा सर्कस चालू हो गई तो वह ओैर हल्ला मचाने लगे। वह सब देख के देसाईसर मेरे पास आए ओैर मदत करने लगे। तीनों ने मिल के दस मिनिट में सबको अंदर छोड दिया। जल्दी ही सर्कस शुरू हो गई। हम पीछे के रास्ते से अंदर चल दिए। मुझे लगा अब थोडा आराम मिल जाएगा, अब मुझे क्या काम होगा ? जानवरों के पिंजरे की तरफ हलचल दिखाई दे रही थी। इतनी जल्दी उस तरफ जाना नही यह बात मुझे बताकर रखी थी। पानी पीने के लिए रसोईघर की तरफ मुडा, पानी पीने के बाद जाने लगा तभी गोदाक्का ने आवाज लगाई “श्रवण जरा आलू छिलने यहाँ आ तो।” अंदर गया तो देखा, सामने उबले हुए आलू का ढेर पडा हुआ है। चार ओैरतें ओैर दो लडके छिलके निकाल रहे है, कब खत्म हो जाएगा यह आलू छिलना? मैं तो अचरज में पडा ओैर उनका हाथ बटाने लगा। गरमा-गरम आलू के छिलके वह सब आसानी से निकाल रहे थे, साथ में गपशप ओैर हँसी की फुवाँरे झड रही थी। गोदाक्का ने कहा “ सर्कस का पहला शो खत्म हो जाने के बाद थोडा कुछ खाने के लिए दिया जाता है। भरपेट कोई काम नही कर सकता। आज वडापाव बनाना है। उसकी तैयारी अभी से शुरू करनी पडती है।” रसोईघर में एक सर्कस चल रही है ऐसा मुझे प्रतित होने लगा। दो ओरते अद्रक-मिर्च का ढेर मिक्सर के बरतन से निकाल रही थी, तो हमारे बाजू में दो महिला उबले छिले आलू की पतली-पतली फांके बना रही थी। सामने छोटे बच्चों ने प्लास्टिक बॅग से पाव निकालकर वह एक बडे बर्तन में रख दिया। अव्याहत चलने वाला यंत्र ऐसा मुझे महसुस होने लगा। शुरू में ही मैंने काम की गती पकडी, अब काम का डर खत्म हो गया था। बाकी लोगों के गपशप में शामिल तो नही हो पाया लेकिन उनकी बाते सुनता रहा। बडे-बडे बर्तन में आलू की फाकें जमा हो गई। पकोडे का आटा तैयार हो गया, एक बडे कढाई में आलू बोंडा का मिश्रण तैयार होते ही दुसरी कढाई में पकोडा तलने का काम चालू हो गया। मुख्य तंबू से, जिनके काम खत्म हो चुके थे वह कलाकार अब बाहर दिखने लगे, अपने-अपने दुसरे काम उन्होंने शुरू किए। किसी को फुरसत नही थी। बीच-बीच में जानवरों की दहाड ओैर बॅंड की धुन पुरे वातावरण में गुँज रही थी। आरती शुरू हो गई, बॅंड के साथ आरती मतलब खेल का आखरी पडाव। अभी गोदाक्का सबको जल्दी-जल्दी काम खत्म करने के लिए कहने लगी। टेबल पर एक बडे कटोरे में आलू पकोडे, उसके उपर जालीदार ढक्कन लगाकर रख दिए।

       बॅंड की आवाज रुक गई, पहला शो खत्म हो गया। बाहर लोग, फेरीवाले, बस, गाडीयों के हॉर्न, बच्चों की किलकारिया ऐसा संमिश्र कोलाहल सब तरफ गुँजने लगा। तिकीट घर में काम करने वाले लडके पहले ही अपना खाना खत्म कर के काम पर चले गए। अब दुसरे शो के तिकीट की बुकिंग शुरू होने वाली थी। उन्होंने कहा कि मैं खाना खा लेने के बाद तिकीट बिक्री कक्ष में आऊँ। खाना खाकर मैं वहा चला गया। तिकीट बिक्री शुरू हो चुकी थी। वहाँ बैठे एक आदमी ने तिकीट पर कैसे स्टॅम्प लगाने है यह दिखाकर मुझे काम पे लगा दिया ओैर वह तिकीट बेचने लगा। पहले के स्टॅम्प लगाए बहुत सारे बुक वहाँ थे, इसलिए कोई जल्दी नही थी। मैं आराम से स्टॅम्प मारने लगा। बिक्री खत्म हो गई। खिडकी बंद करने के बाद बाहर हाऊसफुल का बोर्ड रखने के लिए उन्होंने कहा। बोर्ड रखने के बाद मैं इधर-उधर घुमने लगा। थोडी ही देर में याद आया पहले शो के लिए जैसे टिकिट लेते हुए प्रेक्षकों को अंदर भेजा था वैसे ही अब वह काम करना अपेक्षित होगा। फिर वहाँ चला गया तो मुझे देखते ही मनोहर ने खुशी से हाथ उठाकर अपने तरफ आने का इशारा किया। तंबू के सामने सफाई चल रही थी। तंबू में लोगों ने छोडे हुए चॉकलेट के कागज, बिखरे पॉपकॉर्न, बिस्किट के तुकडे, कोल्ड्रिंक के बोटल्स यह सब उठाकर तंबू की सफाई का काम भी चल रहा था। खेल का वक्त हो गया तो हमने प्रवेशद्वार खोल दिया। इस बार देसाईसर आने की जरूरत नही पडी। हम दोनों ने मिलकर काम पुरा किया। तंबू में लोगों के हँसने, बातें करने की आवाज गुँज रही थी। बॅंड शुरू हो गया ओैर आगे के खेल लोगों को रिझाने लगे। मैं रसोईघर की तरफ बढा।

      मुझे देखते ही गोदाक्का हँसकर बोली “ अभी थोडी देर आराम से बैठ जा। सुबह से काम में लगा है। अभी रसोईघर को चार से साडेपाच बजे तक छुट्टी, साडेपाच बजे चाय की तैयारी शुरूवात होती है। साडे छे बजे चाय-बिस्किट का वक्त होता है। उसके बाद रात के खाने की तैयारी शुरू हो जाती है। रात के लिए पुरा खाना बनता है। साडेदस बजे खाना, साडेग्यारा सब लाइटे बंद।” बात करते-करते ही वह खर्राटे भरने लगी। मैं बाहर आ गया। एक पेड के नीचे बैठ के चारों ओैर देखता रहा। इतनी काम करने की आदत नही थी तो न जाने कब आँख लग गई, कितनी देर सोया पता ही नही चला। धीरज की आवाज से नीन्द खुल गई। “ श्रवण, कैसे सोए हो मिट्टी में। जाओ मेरे चारपाई पर सो जाओ।”

“ कितने बजे ? अब नही सोऊँगा।” मैंने आलस में ही अपने कपडे ठीक-ठाक किए ओैर रसोईघर की तरफ बढा, धीरज अपने तंबू में चला गया। खेल का अंतिम भाग चालू था। खेल खत्म होने के बाद फिर तिकीट बिक्री ओैर प्रेक्षकों को अंदर छोडने का काम था। गोदाक्का ने चाय की तैयारी शुरू की थी। कुछ काम करना है? ऐसे पुछने पर उन्होंने अलमारी से बिस्किट के पॅकेट निकलकर एक बडे थाली में रखने के लिए कहा। एक छोटा लडका मेरे साथ काम करने लगा। दोनों ने मिलकर पॅकेट टेबल पर लाकर रख दिए ओैर एक-एक खोलकर थाली में निकाल दिए। बॅन्ड बजना बंद हो गया। गोदाक्का ने बडी सी चाय की किटली टेबल पर रख दी। तिकीट बिक्री के दोनों आदमी चाय पीने आए फिर हम तीनों ने मिलकर चाय-बिस्किटस खाए ओैर टिकीट रूम में चले गए। वहाँ का काम खत्म होने के बाद मनोहर के साथ लोगों को अंदर छोडने का काम चल रहा था तभी देसाईसर वहाँ आए, उन्होंने अरुणसर बुला रहे है कहकर मुझे अंदर भेज दिया। मैं ऑफिस में गया।

     “ आओ श्रवण, कैसा गया आज का दिन ? क्या किया ?” मुझे देखते ही उन्होंने पुछा।

  फिर दिनभर का सारा वृतान्त उनको बताया। धीरज के साथ मैत्री, उसने की मदत यह सब सुनकर सर खुश हो गए ओैर बोले “ धीरज बहुत अच्छा ओैर मेहनती लडका है। सब से मिलजुल कर रहता है, मदत करता है। शुरू में तुम उसके साथ ही रहना वह सब तुम्हे बता देगा, अभी तो यही तुम्हारी काम की रूपरेषा रहने देते है। यहाँ बाहर के जो स्टॉल है उनमें से एक दुकान मालिक तुम्हारे घर के पास ही रहता है। उससे पहचान करा देता हूँ। आखरी शो के इंटरवल के बाद अपना दुकान बंद कर के वह चले जाते है। तुम भी उनके साथ चले जाना। फिर सुबह दस बजे तक यहाँ आ जाना। अब आठ दिन की यही रूपरेषा रहेगी। बात करते-करते दोनों उस दुकान के पास पहुँचे। छोटे बच्चों के खिलोने का दुकान था। अरुणसर से उनकी पहले बात हो चुकी थी। हमारी पहचान हो जाने के बाद वह बोले “ आप चिंता ना करो, मै घर पर छोड दुँगा। इसे अभी अंदर कुछ काम है ? एक ही घंटा बाकी है, यही रुक जाएगा तो मुझे भी थोडी मदत हो जाएगी। लोग बहुत हल्ला-गुल्ला मचाते है। खिलौने चुरा भी लेते है। अरुणसर ने हाँ कहते हुए दोनों को शुभरात्री किया। मैं उस दुकानदार के यहाँ बैठा, उनका नाम अंजनबाबू था। उन्होंने बॉक्स के उपर कहाँ किंमत लिखी रहती है, खिलौने के कैसे विभाग है यह बताकर रखा।

     इंटरवल हो गई। लोगों के झुंड बाहर आने लगे। बाजू में ही चाय की दुकान थी वहाँ बहुत भीड हो गई। चाय पीने के बाद लोग खिलौनो की तरफ बढ जाते। भीड में अंजनबाबू बडी कुशलता से खिलौने दिखाने लगे। मुझसे जो बन पाया वह मैंने किया। जल्दी ही इंटरवल खत्म हो गई। भीड दूर होते ही हम दोनों ने बाहर निकाले हुए बॉक्स ठीक से अंदर रख दिए। दिनभर के जमा हुए पैसे गिन लिए। दुकान का शटर बंद किया ओैर पार्किंग की तरफ बढ गए।  

     कार में भी खिलौने के बॉक्स पडे थे। बातो-बातो में रास्ता कब खत्म हुआ पता ही नही चला। कॅनोट मार्केट में उनकी होलसेल की दुकान थी ओैर जहाँ भी यात्रा, सर्कस, मेले लग जाते वहाँ अपना स्टॉल लगाते थे। घर नजदिक आने पर आठ दिन यही रुपरेषा रखेंगे ऐसे कहते हम दोनों ने विदाई ली। घर के अंदर जाने तक दिनभर के विचार मन में घुम रहे थे। एक दिन में कितने लोग मिले, कैसे परिचय हुआ, कितनी तरह का काम वहा चल रहा था। यह तो अभी शुरवात थी। केवल झलकियाँ थी। सुबह मुझे ऐसा लग रहा था कि कहाँ आकर मैं फँस गया, ऐसी हीन भावना में काम शुरू किया था लेकिन धीरे-धीरे कैसे सब में समा गया। दिन कब गुजर गया पताही नही चला। अब वहाँ जाने के लिए मन उत्सुक है। घर जाते ही दिनभर का हाल जानने के लिए सभी राह देख रहे होंगे इस बात का खयाल आते ही मैंने झट से दरवाजा खटखटाया। एक अलग भावना में घर के अंदर प्रवेश किया। खुले जगत की झाकियाँ ओैर घर का ममताभरा वातावरण इन दोनों का अब मुझे गठबंधन करना था।

                                                                                   .................................................