Kanchan Mrug - 46 - 1 in Hindi Moral Stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | कंचन मृग - 46. तो कौन बच सकेगा? (भाग-1)

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कंचन मृग - 46. तो कौन बच सकेगा? (भाग-1)

46. तो कौन बच सकेगा?

जैसे ही सूचना मिली कि कुँवर उदयसिंह और देवा आ गए हैं, महाराज ने मन्त्रणा के लिए सभी को बुला लिया। किन स्थितियों में कुमार को प्रस्थान करना पड़ा, महाराज ने स्वयं सभी को बताया। महारानी और चन्द्रा शोक विह्वल थीं। कुँवर लक्ष्मण राणा और उदयसिंह तत्काल जाने के लिए प्रस्तुत हो गए। संकट का समय था, विलम्ब और भी अनिष्टकर हो सकता था। कुँवर और उदयसिंह के साथ कुशल सैनिकों की टोलियां तैयार हुई। अग्रिम दल उनके साथ चल पड़ा। माण्डलिक और महासचिव देवधर के साथ दूसरा दल भी तैयार होने लगा। उदयसिंह ने घर में चर्मण्वती के बीहड़ों की कथा बताई। सुमुखी और पारिजात की नियति को जानकर पुष्पिका रो पड़ी। उदयसिंह भी अकुला उठे। पर अब समय नहीं था। उन्हें तत्काल अग्रिम दल का नेतृत्व करना था। पुष्पिका ने कभी उदयसिंह को दुःखी मन से विदा नहीं किया था। पर आज वह चाहकर भी प्रफुल्लता नहीं ला सकी। उसने उदयसिंह के मस्तक पर टीका लगाया, पर उसके हाथ काँप उठे। उदयसिंह ने उसकी हथेलियाँ चूम कर कहा,‘शीघ्रता है। भाभी और माँ से भी आदेश लेना है।’
दिन-रात की निरन्तर यात्रा के बाद अग्रिम दल कुमार ब्रह्मजीत के निकट पहुँच सका। सैनिकों को विश्राम के लिए कह दिया गया। कुँवर और उदयसिंह कुमार के शिविर में चले गए। प्रातः का समय था। आचार्य जगनायक कुमार के पास बैठे थे। वैद्य कुमार के उपचार में लगे थे, किन्तु उनके मुख मण्डल पर निराशा के भाव थे। कुँवर और उदयसिंह के पहुँचते ही आचार्य ने उनका स्वागत किया। दोनों ने आचार्य को गले लगा लिया। उदयसिंह और कुँवर ने कुमार को देखा। कुमार का मुखमण्डल स्याह पड़ गया था। उन्होंने आँखें खोलीं। दोनों ने प्रणाम किया। कुमार के ओठ खुले। मुख प्रदीप्त हो उठा, पर हाथ तुरंत उठ न सका। प्रयास करने पर हाथ धीरे-धीरे उठा। उन्होंने कुँवर और उदयसिंह का हाथ अपने हाथों में ले लिया। ‘चामुण्डराय और ताहर ने मेरे साथ कपट किया है?’ वे अधिक कह न सके। कुँवर और उदयसिंह का चेहरा तमतमा उठा। प्रतिहिंसा की अग्नि भभक उठी। ‘यदि कोई कठिनाई हो तो किसी दूसरे वैद्य का प्रबन्ध किया जाए’, कुँवर ने कहा।
‘आचार्य जीवक की परम्परा का वैद्य हूँ। यदि मेरे हाथों जीवन न मिला, तो समझ लीजिए ईश्वर उसे बुलाना ही चाहता है,’ वैद्य ने नाड़ी देखी। उनका शिष्य एक औषधि लेकर आया। वैद्य ने औषधि पिलाई।
शिविर के बाहर आते ही उदयसिंह और कुँवर को रूपन ने बताया कि राजकुमारी वेला का दूत प्रतीक्षा कर रहा है। उदयसिंह चौंक पड़े, कहीं यह भी कोई षड्यन्त्र न हो? दूत को उन्होंने कुँवर के शिविर में बुला लिया। कुँवर के सामने दूत कुछ भी कहने में हिचक रहा था, पर उदयसिंह के आश्वस्त करने पर उसने वेला का पत्र उदयसिंह को दिया। उन्होंने पत्र पढ़ कर कुँवर से कहा, ‘राजकुमारी के आवास की सैनिक घेरे बन्दी कर दी गई है। राजकुमारी कुमार का दर्शन करना चाहती हैं। अब गौना हमें शीघ्र कराना होगा।’ उन्होंने दूत को आश्वस्त किया, पर कोई पत्र नहीं लिखा। दूत से ही उन्होंने आवश्यक जानकारी ली। पता चला कि कुछ अरबी सैनिक वेला की सुरक्षा में रखे गए हैं। एक हकीम भी लगा दिया गया है जो वेला का नित्य परीक्षण करता है। उदयसिंह ने दूत से हकीम की वेष-भूषा का परिचय लिया और उससे हकीम के चित्र का एक रेखाकंन भी बनवाया। दूत चला गया। उदयसिंह ने रूपन को बुलाया। सम्पूर्ण व्यूहरचना समझाई, एक शैलूषिक को बुला, उसी के द्वारा रूपन को हकीम की वेष-भूषा में सज्जित किया। रूपन तैयार हुआ। अरबी के दो चार शब्द जो उसने सुन रखे थे, उनसे ही काम चलाना था। रूपन हरनागर पर सवार हुआ। उदयसिंह ने एक पत्र वेला के नाम दिया। वेला को पत्र देना और उसके आवास की स्थिति का आकलन करना रूपन का काम था। उदयसिंह ने दो सौ योद्धाओं का एक दल बनाया। कुशल कहारों और नटों की भी एक टोली तैयार की। दो शिविकाएं भी तैयार हुई। योजना बनी कि सूर्योदय के समय वेला को विदा कराने का कार्यक्रम रखा जाए। रूपन को वेला से भेंट कर सम्पूर्ण सूचना देनी थी। वह पत्र लेकर उड़ चला।
जिस समय रूपन वेला आवास के निकट पहुँचा, दीप स्तम्भों पर दीपक जलाए जा रहे थे। उसने आवास का एक चक्कर लगाकर जानकारी ली। हकीम के बाने में वह प्रतोली द्वार पर पहुँच गया। हकीम को किसी ने रोका नहीं बल्कि अदब से आदाब किया। उसने भी आदाब का उत्तर दिया। एक सेवक को उसने संकेत किया। वह हरनागर की रास को पकड़कर खड़ा हो गया। हकीम के संकेत पर प्रतिहारी ने दौड़कर राजकुमारी को सूचना दी। राजकुमारी ने हकीम को बुलवा लिया। हकीम ने पहुँचते ही एकान्त में बात करने की इच्छा प्रकट की। कुमारी ने संकेत दिया। सेविकाएं हट गई। रूपन ने पगड़ी उतार दी। अपना परिचय दिया। पगड़ी में रखा पत्र कुमारी को दिया। पत्र पढ़कर उन्हें सान्त्वना मिली। ‘प्रातः सूर्योदय के समय तैयार रहें,’ रूपन ने कहा। वेला ने अपनी स्वीकृति दी। रूपन ने जब पुनः अपनी पगड़ी सिर पर रखी, कुमारी का उदास चेहरा भी एक बार मुस्करा उठा। रूपन ने झुककर आदाब किया और बाहर हो गया। प्रतोली द्वार के निकट सेवक हरनागर को लिए खड़ा था। कूदकर वह हरनागर पर बैठा। द्वार पार करते ही एड़ लगा दी।
रूपन के निकल जाने के बाद प्रतिदिन की भाँति सुरक्षा चौकसी की समीक्षा हुई। सायंकाल हकीम के सम्पर्क पर बलाध्यक्ष चौंक पड़े। उन्होंने नियुक्त हकीम से जानकारी ली। वे उस समय वेला निवास पर नहीं गए थे। फिर वह व्यक्ति कौन था जो हकीम के वेष में गया था? रात अधिक बीत चुकी थी। राजकुमारी से रात में सम्पर्क करना उचित नहीं समझा गया। बलाध्यक्ष शान्त तो हुए पर उन्हें शंका बनी रही। उन्होंने कुछ बलिष्ठ सैनिकों की एक टुकड़ी और वहाँ लगा दी।
प्रातः होते ही उदयसिंह सिंह और कुँवर के सैन्य बल ने वेला आवास घेर लिया। जितने भी सैनिक थे उनमें से अधिकांश बन्धक बना लिए गए। कम से कम रक्तपात हुआ, इससे उदयसिंह प्रसन्न थे। उदयसिंह और कुँवर राजकुमारी के सम्मुख उपस्थित हुए। उनका चरण स्पर्श कर चलने के लिए कहा। वेला आर्त स्वर में बोल पड़ी, ‘‘आपने कुमार को अकेले भेज दिया। उनके साथ कपट युद्ध किया गया। आज वे शय्या पर पड़े हैं। मेरे भाग्य में यही था।’’
‘‘हमारा दुर्भाग्य था कि उस समय हम महोत्सव में नहीं थे।’ उदयसिंह ने उत्तर दिया
‘देवर जी, छिप कर चलना उचित नहीं है। वादकों से कहो, वाद्य यन्त्र बजाएँ। मेरे लिये शिविका नहीं, अश्व तैयार करो। सेवक, सेविकाओं और सैनिकों में नेग बँटवा दें।’
‘उचित कहती हैं आप।’ उदयसिंह ने लौटकर वादकों से वाद्य बजाने के लिए कहा। कुँवर ने नेग बँटवा दी। रूपन हरनागर लिए तैयार था ही। वाद्य यन्त्रों की ध्वनि वेला के कानों में पड़ी। उन्होंने माँ शारदा को प्रणाम किया और कूदकर हरनागर की पीठ पर सवार हो गईं। एक दूसरे अश्व पर उन्हीं के वेष में सेविका भी। शिविकाएँ खाली ही लौट चलीं। उदयसिंह और कुँवर साथ साथ चल पड़े।
बलाध्यक्ष को जब तक सूचना मिली, उदयसिंह का दल कोसों निकल चुका था। उन्होंने कदम्बवास को सूचित किया। महाराज भी सूचित हए। पर अब पीछा करना संगत न समझ कर उन्होंने कदम्बवास से युद्ध की तैयारी करने के लिए कहा। उन्होंने गुप्तचरों की कार्य पद्धति से अपना असन्तोष जताया जो इस प्रकरण की जानकारी नहीं दे सके।
कुँवर शय्या पर पड़े थे। वैद्य औषधि देते। व्रण सूखने के बदले और फैलने लगा। वेला आकर चरणों के समीप बैठ गई। कुँवर ने कहा, ‘कौन!’ ‘अर्द्धांगिनी वेला,’ कहते हुए वेला रो पड़ी। अन्य लोग हट गए। ‘चाहमान वंश इस तरह छल करेगा, मैंने कभी सोचा न था’, कुँवर कह उठे। वेला कुमार की सुश्रूषा में लग गई। पर कुमार अधिक व्यग्र हो उठे।
‘तुम्हारा आना भी उस समय हुआ जब मैं कूच करने की तैयारी कर रहा हूँ,’ वे कराह उठे।
‘स्वामी ऐसा न कहें।’
‘पर मेरी एक इच्छा बनी रह गई। यदि ताहर का कोई शीश काट सकता’, वे बुदबुदाते रहे। वेला ने सुना, मन ही मन कुछ तय किया। सायंकाल वे शिविर के बाहर आईं। कुँवर के सैनिकों ने जयघोष किया। सभी का अभिवादन स्वीकार करते हुए आचार्य जगनायक से विचार विमर्श किया।
माण्डलिक , महामन्त्री देवधर ने भी महोत्सव से आकर कुमार को देखा। सभी दुःखी थे। माण्डलिक , महामन्त्री देवधर ने उदयसिंह , कुँवर, देवा, जगनायक से मिलकर भावी रणनीति तय की। महाराज, महारानी और चन्द्रा भी कुँवर तक आना चाहते थे पर रणनीति के अनुरूप उन्हें महोत्सव में ही रहना पड़ा। पृथ्वीराज ने इस बार पूरी शक्ति लगा दी थी। अनेक सामन्त उनके साथ आ गए थे। चन्देलों की सेना यद्यपि कम थी पर जवानों का उत्साह कम नहीं था। दोनों सेनाएं-आमने-सामने थीं। चाहमान सेना महाराज की प्रतीक्षा कर रही थी। वेला सोच रही थी, यदि चाहमान सेना कपट युद्ध कर सकती है तो.....उसका उत्तर भी कपट से दिया जा सकता है। उसके मस्तिष्क में छिपकली का कीटों पर घात लगाने का दृश्य उभर लाया। वह बुदबुदा उठी, ‘बस,-अब सूत्र मिल गया।’ वेला ने अपनी योजना गुप्त रखी। उन्होंने कुमार का वेष और अस्त्र धारण किया । हरनागर पर सवार हुई। उत्तम अश्वारोहियों को साथ ले, ताहर के शिविर पर आक्रमण कर दिया। प्रत्यूष काल का समय था। ताहर शिविर की रक्षक वाहिनी घिर गई। ताहर स्वयं कोलाहल सुन बाहर आए। वेला को देख कर लोगों को कुमार ब्रह्मजीत का भ्रम हुआ। यह बात फैला दी गयी कि कुमार स्वस्थ हो गए हैं। वेला ने ताहर को ललकारा। ताहर जब तक-कुछ सोचें, वेला ने हरनागर को एड़ लगा दी। अश्व के छलाँग लगाते ही वेला की तलवार ताहर के गर्दन पर पड़ी। सिर धड़ से अलग हो गया। एक सैनिक ने दौड़कर सिर उठाया। उसे वेला के हाथ में दिया।
एक हाथ में तलवार और एक हाथ में शीश लिए वह लौट पड़ी। चाहमान सैनिकों ने सिर छीनना चाहा। पर चन्देल सैनिकों के दबाव से वे ऐसा नहीं कर सके। वेला के लौटते ही चन्देल सैनिक भी लौट पड़े। आधे सैनिक ताहर के सैनिकों से भिड़ गए। शेष घेरा बना वेला को साथ लिए चलने लगे। वेला की आँखों में रक्त उतर आया था। वह साक्षात् रणचण्डी लग रही थी। समय ऐसा आ गया था कि उसे चाहमान वंश से ही लड़ना पड़ गया था। ताहर चाहमान वंश का ही एक दीपक था। शीश हाथ में लिए, वह कुमार के शिविर में प्रविष्ट हुई। उसने सिर झुकाकर कुमार को प्रणाम किया। ताहर का शीश देखकर कुमार का मुख मण्डल दमक उठा। प्रसन्नता की लहर दौड़ी पर उसी के साथ उनकी आँख खुली की खुली ही रह गई। वेला ने शीश पटक दिया। तलवार फेंक, कुमार से लिपट गयी। वैद्य आ गए। उन्होंने नाड़ी देखी, सब कुछ समाप्त हो गया था। उन्होंने हाथ से आँखें बन्द की। कुहराम मच गया। आल्हा, उदयसिंह, देवधर, जगनायक, कुँवर, देवा सभी दौड़ते हुए आये। सभी रो पड़े। पर अब उपाय ही क्या था?
ताहर वध की सूचना मिलते ही चामुण्डराय ने धौंसा बजवा दिया। कुँवर, उदयसिंह, देवधर के नेतृत्व में चन्देल सेना सन्नद्ध हुई। सैयद तालन, धन्वा, लला तमोली ने कान्यकुब्ज सेना को व्यूहबद्ध किया। एक दूसरे को ललकारते हुए सेनाएं भिड़ गईं। महाराज पृथ्वीराज का आगमन हो चुका था। महामन्त्री कदम्बवास, महाकवि चन्द भी युद्ध भूमि में उतर चुके थे। चाहमान सेना उत्साह से भर उठी।
माण्डलिक ने महाराज परमर्दिदेव को सूचित करने हेतु दूत तैयार किया। वे वेला से परामर्श करने आए। वेला ने कहा, ‘‘महोत्सव चलना है। महाराज और महारानी को प्रणामांजलि निवेदित करूँगी। आपके साथ ही चलना चाहूँगी।’’ ‘‘माण्डलिक ने आचार्य जगनायक से परामर्श किया। उन्हें शिविर रक्षा का दायित्व सौंपा । कुमार के शरीर पर औषधि लेपन कर उसे एक शिविका में रखा गया। वेला ने महोत्सव देखा नहीं था। कुमार का अल्पसम्पर्क ही उसकी पूँजी थी। वह चन्देल वधू थी। शिविका शिविर के सम्मुख आकर लगी। वह शिविका में बैठ गयी। दूसरी शिविकाओं में उसकी सहायिकाएँ भी बैठीं। थोड़े से कुशल सैनिकों को साथ ले माण्डलिक पंच शब्द पर सवार हुए। शिविकाएँ भी साथ-साथ चलीं। शिविकाएँ ले चलने वाले कुशल कहारों की टोली भी साथ चली जिससे महोत्सव शीघ्रातिशीघ्र पहुँचा जा सके। नदी-नदिकाओं को पार करते आठ प्रहर में दल महोत्सव पहुँच सका। रूपन ने आगे बढ़कर महाराज, महारानी को सूचना दी। शोक और हर्ष के मिश्रित परिवेश में महाराज, महारानी, चन्द्रा, देवल, सुवर्णा , पुष्पिका ने वेला का स्वागत किया। वेला के अश्रु रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। परंपरानुसार रीतियों का निर्वाह हुआ पर मंगलगान गाने का साहस कोई भी न जुटा सका। कुमार का शव देखकर महारानी पछाड़ खा कर रो पड़ीं। महाराज अपने को रोक न सके। चन्द्रा कभी अपने आँसू पोछती, कभी वेला का। वेला ने कुमार का आवास देखा। कुमार के कक्ष में वेला का चित्र, वह चौंक पड़ी।
‘इस चित्र को वीर जू ने स्वयं बनाया था’, चन्द्रा बोल पड़ी। महारानी और चन्द्रा ने मदन सागर, कीर्ति सागर का दर्शन कराया। शब्दों का व्यापार कम हो गया था। अनभूतियाँ अभिव्यक्ति के माध्यम खोज ही लेती हैं। भंगिमाएँ, संकेत, मुद्राएँ ही एक दूसरे को जोड़ रही थीं। माण्डलिक ने महाराज से विचार विनिमय किया। महारानी ने वेला को धैर्य बँधाने का प्रयास किया। ‘यह राज्य तुम्हारा ही है’, उन्होंने कहा।
‘कुमार के बिना यह राज्य’ कहते-कहते वेला फूट पड़ी।
‘मेरा भाग्य उन्हीं के साथ बँधा है।’
चाहमान और चन्देल सेनाओं का युद्ध चलता रहा। दोनों एक दूसरे की व्यूह रचना की काट करते। कुँवर, उदयसिंह , देवा, तालन, धन्वा, लला तमोली, चामुण्डराय , कदम्बवास, संयमा राय, वीर भुगंता, धाँधू सभी अपनी युद्ध कला का प्रदर्शन करते रहे। आज महाराज पृथ्वीराज भी मैदान में उतर आये थे। इससे चाहमान सेना अधिक उत्साहित हो उठी थी। कुँवर व्रजराशिन पर सवार हो अपने बाणों की बौछार कर रहे थे। कोई भी योद्धा उनके सामने टिकता न था। कुँवर के सामने से सेना को हटते देखकर पृथ्वीराज ने आदि भयंकर आगे बढ़ा दिया। युद्ध को आज वे निर्णायक मोड़ देना चाहते थे। आदि भयंकर को आते देख कर कुँवर ने व्रजराशिन को आगे बढ़ाने का निर्देश दिया। गजपाल ने वैसा ही किया। पृथ्वीराज ने कुँवर को लताड़ते हुए कहा, ‘क्यों मृत्यु का वरण कर रहे हो? तुम्हारा कोई स्वार्थ भी नहीं है। कान्यकुब्ज लौट जाओ।’ कुँवर आवेश में आ गए उन्होंने कहा’, हमने मित्रता की है।’ कुँवर से इतना सुनते ही पृथ्वीराज ने कुन्त से प्रहार किया। कुँवर बचा ले गए। दोनों युवा थे। दोनों की दीक्षा कुशल आचार्यो से हुई थी। पृथ्वीराज ने धनुष बाण चढ़ा कान तक खींच कर मारा। कुँवर इस प्रहार को भी बचा ले गए। पृथ्वीराज प्रहार करते जा रहे थे। कुँवर को प्रहार का एक ही अवसर मिला जिसे पृथ्वीराज ने ढाल पर खेल लिया। भगवान भास्कर अस्ताचल की ओर प्रस्थान कर चुके थे। युद्ध बन्द हो गया। सेनाएं अपने-अपने शिविरों की ओर लौट पड़ीं।
रात्रि में कदम्बवास और चामुण्डराय ने महाराज से भेंट की। चन्द भी साथ थे । उदयसिंह ने आज कहर ढा दिया था। अनेक सामन्त प्राण दे चुके थे। पृथ्वीराज ने चिन्ता प्रकट की। ‘महाराज, यदि कुँवर लक्ष्मण राणा और उदयसिंह में से किसी एक का अन्त कर दिया जाए तो दूसरा स्वयं ही अपना प्राण दे देगा। वे दो शरीर एक प्राण हैं’, चामुण्डराय ने कहा। ‘विजयश्री के लिए प्राण लेना आवश्यक नहीं हैं’, चन्द बोल उठे। महाराज को हँसी आ गईं।
‘यदि विपक्षी को वश में न किया जा सके तो प्राण लेना ही पड़ता है। यही एक विकल्प बचता है’, चामुण्डाराय ने अपनी बात रखी। कुँवर और उदयसिंह पर विजय प्राप्त करने के लिए हमें पूरी शक्ति से मैदान में उतरना होगा,’ कदम्बवास ने अपना मत प्रकट किया।
माण्डलिक वेला की इच्छा के अनुरूप महोत्सव दिखाते रहे। वे चाहते थे कि वेला की इच्छाओं का यथासम्भव सम्मान किया जाए। महाराज, महारानी, चन्द्रा, सुवर्णा , देवल, पुष्पिका , तथा राजपरिवार की महिलाएँ वेला का ढाढस बँधाती रहीं। पर वेला कुमार से जुड़ी थी। उसें किसी अन्य वस्तु का मोह नहीं था। उसने कुमार की इच्छा बताकर चिता को युद्ध स्थल पर जलाने की योजना बनाई। वह स्वयं बुदबुदाती, कहती, ‘मुझे भी जाना है। ’ चन्द्रा उसके मन की स्थिति को देखकर रो पड़ी। वेला कभी बहुत उग्र हो जाती। कह पड़ती ‘अब कोई कैसे बचेगा? जब कुमार नहीं बच सके। मैं भी तो उन्हें नहीं बचा सकी। चन्द्रे, तू भी कुछ नहीं कर सकी। अब मुझे भी तैयारी करनी है।’ चन्द्रा भी असहाय हो गई थी। वह क्या करती? वेला की इच्छा सर्वोपरि रही। किसी ने उसकी इच्छा का विरोध नहीं किया, यद्यपि वह सभी निर्णय आवेश में ले रही थी। गौने के साथ ही उसका सुहाग लुट गया था।