वेदव्यास अथवा 'व्यास' हिन्दुओं के प्रसिद्ध धार्मिक महाकाव्य 'महाभारत' के रचयिता थे। वे उन घटनाओं के भी साक्षी रहे, जो क्रमानुसार घटित होती रहीं। हस्तिनापुर राज्य में घटने वाली प्रत्येक छोटी-बड़ी घटना की जानकारी उन तक पहुँचती रहती थी। वे उन घटनाओं पर अपना परामर्श भी देते थे। जब-जब अंतर्द्वंद्व और संकट की स्थिति आती, माता सत्यवती उनसे विचार-विमर्श के लिए उनके आश्रम जातीं, तो कभी हस्तिनापुर के राजभवन में आमंत्रित करती थीं।
महाभारतकार व्यास ऋषि पराशर एवं सत्यवती के पुत्र थे, ये साँवले रंग के थे तथा यमुना के बीच स्थित एक द्वीप (यमुना द्वीप) में उत्पन्न हुए थे। अत: ये साँवले रंग के कारण 'कृष्ण' तथा जन्मस्थान के कारण 'द्वैपायन' कहलाये। इनकी माता ने बाद में हस्तिनापुर के महाराज शान्तनु से विवाह किया, जिनसे उनके दो पुत्र हुए, जिनमें बड़ा चित्रांगद युद्ध में मारा गया और छोटा विचित्रवीर्य संतानहीन मर गया।
कृष्ण द्वैपायन ने धार्मिक तथा वैराग्य का जीवन पसंद किया था, किन्तु माता सत्यवती के आग्रह पर इन्होंने विचित्रवीर्य की दोनों सन्तानहीन रानियों द्वारा नियोग के नियम से दो पुत्र उत्पन्न किये, जो धृतराष्ट्र तथा पाण्डु कहलाये, इनमें तीसरे विदुर भी थे। पुराणों में अठारह व्यासों का उल्लेख है, जो ब्रह्मा या विष्णु के अवतार कहलाते हैं एवं पृथ्वी पर विभिन्न युगों में वेदों की व्याख्या व प्रचार करने के लिए अवतीर्ण होते हैं।
महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के अवसर पर व्यास अपने शिष्यों के साथ इन्द्रप्रस्थ पधारे थे। वहाँ उन्होंने युधिष्ठिर को बताया कि- "आज से तेरह वर्ष बाद क्षत्रियों का महासंहार होगा, उसमें दुर्योधन के विनाश में तुम्हीं निमित्त बनोगे।" पांडवों के वनवास काल में भी जब दुर्योधन, दु:शासन तथा शकुनि की सलाह से उन्हें मार डालने की योजना बना रहा था, तब व्यास जी ने अपनी दिव्य दृष्टि से उसे जान लिया। इन्होंने तत्काल पहुँचकर पांडवों को इस दुष्कृत्य से अवगत किया। उन्होंने धृतराष्ट्र को समझाते हुए कहा- "तुमने जुए में पांडवों का सर्वस्व छीनकर और उन्हें वन भेजकर अच्छा नहीं किया। दुरात्मा दुर्योधन पांडवों को मार डालना चाहता है। तुम अपने लाडले बेटे को इस काम से रोको, अन्यथा इसे पांडवों के हाथ से मरने से कोई नहीं बचा पायगा।"
जब व्यास ने धर्म का ह्रास होते देखा था तो इन्होंने वेद का व्यास अर्थात विभाग कर दिया और वेदव्यास कहलाये। वेदों का विभाग कर उन्होंने अपने शिष्य सुमन्तु, जैमिनी, पैल और वैशम्पायन तथा पुत्र शुकदेव को उनका अध्ययन कराया तथा महाभारत का उपदेश दिया। आपकी इस अलौकिक प्रतिभा के कारण आपको भगवान का अवतार माना जाता है।
भगवान व्यास ने संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान की, जिससे युद्ध-दर्शन के साथ उनमें भगवान के विश्वरूप एवं दिव्य चतुर्भुजरूप के दर्शन की भी योग्यता आ गयी। उन्होंने कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में भगवान श्रीकृष्ण के मुखारविन्दसे नि:सृत 'श्रीमद्भगवद्गीता' का श्रवण किया, जिसे अर्जुन के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं सुन पाया।
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वेदव्यास अथवा 'व्यास' हिन्दुओं के प्रसिद्ध धार्मिक महाकाव्य 'महाभारत' के रचयिता थे। वे उन घटनाओं के भी साक्षी रहे, जो क्रमानुसार घटित होती रहीं। हस्तिनापुर राज्य में घटने वाली प्रत्येक छोटी-बड़ी घटना की जानकारी उन तक पहुँचती रहती थी। वे उन घटनाओं पर अपना परामर्श भी देते थे। जब-जब अंतर्द्वंद्व और संकट की स्थिति आती, माता सत्यवती उनसे विचार-विमर्श के लिए उनके आश्रम जातीं, तो कभी हस्तिनापुर के राजभवन में आमंत्रित करती थीं।
महाभारतकार व्यास ऋषि पराशर एवं सत्यवती के पुत्र थे, ये साँवले रंग के थे तथा यमुना के बीच स्थित एक द्वीप (यमुना द्वीप) में उत्पन्न हुए थे। अत: ये साँवले रंग के कारण 'कृष्ण' तथा जन्मस्थान के कारण 'द्वैपायन' कहलाये। इनकी माता ने बाद में हस्तिनापुर के महाराज शान्तनु से विवाह किया, जिनसे उनके दो पुत्र हुए, जिनमें बड़ा चित्रांगद युद्ध में मारा गया और छोटा विचित्रवीर्य संतानहीन मर गया।
कृष्ण द्वैपायन ने धार्मिक तथा वैराग्य का जीवन पसंद किया था, किन्तु माता सत्यवती के आग्रह पर इन्होंने विचित्रवीर्य की दोनों सन्तानहीन रानियों द्वारा नियोग के नियम से दो पुत्र उत्पन्न किये, जो धृतराष्ट्र तथा पाण्डु कहलाये, इनमें तीसरे विदुर भी थे। पुराणों में अठारह व्यासों का उल्लेख है, जो ब्रह्मा या विष्णु के अवतार कहलाते हैं एवं पृथ्वी पर विभिन्न युगों में वेदों की व्याख्या व प्रचार करने के लिए अवतीर्ण होते हैं।
महाराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के अवसर पर व्यास अपने शिष्यों के साथ इन्द्रप्रस्थ पधारे थे। वहाँ उन्होंने युधिष्ठिर को बताया कि- "आज से तेरह वर्ष बाद क्षत्रियों का महासंहार होगा, उसमें दुर्योधन के विनाश में तुम्हीं निमित्त बनोगे।" पांडवों के वनवास काल में भी जब दुर्योधन, दु:शासन तथा शकुनि की सलाह से उन्हें मार डालने की योजना बना रहा था, तब व्यास जी ने अपनी दिव्य दृष्टि से उसे जान लिया। इन्होंने तत्काल पहुँचकर पांडवों को इस दुष्कृत्य से अवगत किया। उन्होंने धृतराष्ट्र को समझाते हुए कहा- "तुमने जुए में पांडवों का सर्वस्व छीनकर और उन्हें वन भेजकर अच्छा नहीं किया। दुरात्मा दुर्योधन पांडवों को मार डालना चाहता है। तुम अपने लाडले बेटे को इस काम से रोको, अन्यथा इसे पांडवों के हाथ से मरने से कोई नहीं बचा पायगा।"
जब व्यास ने धर्म का ह्रास होते देखा था तो इन्होंने वेद का व्यास अर्थात विभाग कर दिया और वेदव्यास कहलाये। वेदों का विभाग कर उन्होंने अपने शिष्य सुमन्तु, जैमिनी, पैल और वैशम्पायन तथा पुत्र शुकदेव को उनका अध्ययन कराया तथा महाभारत का उपदेश दिया। आपकी इस अलौकिक प्रतिभा के कारण आपको भगवान का अवतार माना जाता है।
भगवान व्यास ने संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान की, जिससे युद्ध-दर्शन के साथ उनमें भगवान के विश्वरूप एवं दिव्य चतुर्भुजरूप के दर्शन की भी योग्यता आ गयी। उन्होंने कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में भगवान श्रीकृष्ण के मुखारविन्दसे नि:सृत 'श्रीमद्भगवद्गीता' का श्रवण किया, जिसे अर्जुन के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं सुन पाया।