परीक्षित पांडव अर्जुन के पौत्र तथा उत्तरा के गर्भ से उत्पन्न अभिमन्यु के पुत्र थे। ये पांडुकुल के प्रसिद्ध योद्धा थे। हस्तिनापुर इनकी राजधानी थी और ये एक सार्वभौम सम्राट तथा भागवतों में अग्रगण्य थे।
सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु की पत्नी महाराज विराट की पुत्री उत्तरा गर्भवती थी। उसके उदर में पांडवों का एकमात्र वंशधर था। अश्वत्थामा ने उस गर्भस्थ बालक का विनाश करने के लिये ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। भयभीत उत्तरा भगवान श्रीकृष्ण की शरण में गयी। भगवान ने उसे अभयदान दिया और बालक की रक्षा के लिये वे सूक्ष्म रूप से उत्तरा के गर्भ में स्वयं पहुँच गये। गर्भस्थ शिशु ने देखा कि एक प्रचण्ड तेज चारों ओर से समुद्र की भाँति उमड़ता हुआ उसे भस्म करने आ रहा है। इसी समय बालक ने अंगूठे के बराबर ज्योतिर्मय भगवान को अपने पास देखा। भगवान अपने कमल नेत्रों से बालक को स्नेहपूर्वक देख रहे थे। उनके सुन्दर श्याम-वर्ण पर पीताम्बर की अद्भुत शोभा थी। मुकुट, कुण्डल, अनंद, किंकिणी, प्रभृति मणिमय आभरण उन्होंने धारण कर रखे थे। उनके चार भुजाएं थीं और उनमें शंख, चक्र, गदा थे। अपनी गदा को उल्का के समान चारों ओर शीघ्रतापूर्वक से घुमाकर भगवान उस उमड़ते आते अस्त्र के तेज को बराबर नष्ट करते जा रहे थे। बालक दस महीने तक भगवान को देखता रहा। वह सोचता ही रहा- "ये कौन हैं?" जन्म का समय आने पर भगवान वहाँ से अदृश्य हो गये। उस समय पांडव लोग एक महान यज्ञ की दीक्षा के निमित्त राजा मरुत का धन लेने के लिये उत्तर दिशा में गये हुये थे। उसी बीच उनकी अनुपस्थिति में तथा भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की उपस्थिति में दस मास पश्चात् उस बालक का जन्म हुआ। परन्तु बालक गर्भ से बाहर निकलते ही मृतवत हो गया। बालक को मरा हुआ देखकर रनिवास में रुदन आरन्भ हो गया। शोक का समुद्र उमड़ पड़ा। कुरुवंश को पिण्डदान करने वाला केवल एक मात्र यही बालक उत्तपन्न हुआ था, सो वह भी न रहा। कुन्ती, द्रौपदी, सुभद्रा आदि सभी महान शोक सागर में डूबकर आँसू बहाने लगीं। उत्तरा के गर्भ से मृत बालक के जन्म का समाचार सुनकर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र तुरन्त सात्यकि को साथ लेकर अन्तःपुर पहुँचे। वहाँ रनिवास में करुण क्रन्दन को सुनकर उनका हृदय भर आया। इतना करुण क्रन्दन युद्ध में मरे हुये पुत्रों के लिये कभी सुभद्रा और द्रौपदी ने नहीं किया था, जितना उस नवजात शिशु की मृत्यु पर कर रही थीं। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र को देखते ही वे उनके चरणों पर गिर पड़ीं और विलाप करते हुये बोलीं- "हे जनार्दन! तुमने यह प्रतिज्ञा की थी कि यह बालक इस ब्रह्मास्त्र से मृत्यु को प्राप्त न होगा तथा साठ वर्ष तक जीवित रह कर धर्म का राज्य करेगा। किन्तु यह बालक तो मृतावस्था में पड़ा हुआ है। यह तुम्हारे पौत्र अभिमन्यु का बालक है। हे अरिसूदन! इस बालक को अपनी अमृत भरी दृष्टि से जीवन दान दो।"
भगवान श्रीकृष्णचन्द्र सबको सान्त्वना देकर तत्काल प्रसूतिगृह में गये और वहाँ के प्रबन्ध का अवलोकन किया। चारों ओर जल के घट रखे थे, अग्नि भी जल रही थी, घी की आहुति दी जा रही थी, श्वेत पुष्प एवं सरसों बिखरे थे और चमकते हुये अस्त्र भी रखे हुये थे। इस विधि से यज्ञ, राक्षस एवं अन्य व्याधियों से प्रसूतिगृह को सुरक्षित रखा गया था। उत्तरा पुत्रशोक के कारण मूर्च्छित हो गई थी। उसी समय द्रौपदी आदि रानियाँ वहाँ आकर कहने लगीं- "हे कल्याणी! तुम्हारे सामने जगत के जीवन दाता साक्षात् भगवान श्रीकृष्णचन्द्र, तुम्हारे श्वसुर खड़े हैं। चेतन हो जाओ।" भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा- "बेटी! शोक न करो। तुम्हारा यह पुत्र अभी जीवित होता है। मैंने जीवन में कभी झूठ नहीं बोला है। सबके सामने मैंने प्रतिज्ञा की है, वह अवश्य पूर्ण होगी। मैंने तुम्हारे इस बालक की रक्षा गर्भ में की है तो भला अब कैसे मरने दूँगा।" इतना कहकर भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने उस बालक पर अपनी अमृतमयी दृष्टि डालि और बोले- "यदि मैंने कभी झूठ नहीं बोला है, सदा ब्रह्मचर्य व्रत का नियम से पालन किया है, युद्ध में कभी पीठ नहीं दिखाई है, मैंने कभी भूल से भी अधर्म नहीं किया है तो अभिमन्यु का यह मृत बालक जीवित हो जाये।" उनके इतना कहते ही वह बालक हाथ पैर हिलाते हुये रुदन करने लगा। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने अपने सत्य और धर्म के बल से ब्रह्मास्त्र को पीछे लौटा कर ब्रह्मलोक में भेज दिया। उनके इस अद्भुत कर्म से बालक को जीवित देखकर अन्तःपुर की सारी स्त्रियाँ आश्चर्यचकित रह गईं और उनकी वन्दना करने लगीं। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने उस बालक का नाम परीक्षित रखा, क्योंकि वह कुरुकुल के परिक्षीण (नाश) होने पर उत्पन्न हुआ था।
जब धर्मराज युधिष्ठिर लौट कर आये और पुत्र जन्म का समाचार सुना तो वे अति प्रसन्न हुये और उन्होंने असंख्य गौ, गाँव, हाथी, घोड़े, अन्न आदि ब्राह्मणों को दान दिये। उत्तम ज्योतिषियों को बुला कर बालक के भविष्य के विषय में प्रश्न पूछे। ज्योतिषियों ने बताया कि वह बालक अति प्रतापी, यशस्वी तथा इक्ष्वाकु समान प्रजापालक, दानी, धर्मी, पराक्रमी और भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का भक्त होगा। एक ऋषि के शाप से तक्षक द्वारा मृत्यु से पहले संसार के माया मोह को त्याग कर गंगा के तट पर श्री शुकदेव जी से आत्मज्ञान प्राप्त करेगा।
पांडवों के महाप्रयाण के बाद भगवान के परम भक्त महाराज परीक्षित श्रेष्ठ ब्राह्मणों की शिक्षा के अनुसार पृथ्वी का शासन करने लगे। उन्होंने उत्तर की पुत्री इरावती से विवाह किया। उससे उन्हें जनमेजय आदि चार पुत्र उत्पन्न हुए। उन्होंने कृपाचार्य को आचार्य बनाकर गंगातट पर तीन अश्वमेध यज्ञ किये। उनके राज्य में प्रजा को किसी प्रकार का कष्ट नहीं था।
एक दिन जब परीक्षित दिग्विजय करने निकले थे, उन्होंने एक उज्ज्वल सांड़ देखा, जिसके तीन पैर टूट गये थे। केवल एक ही पैर शेष था। पास ही एक गाय रोती हुई उदास खड़ी थी। एक काले रंग का शूद्र राजाओं की भाँति मुकुट पहने, हाथ में डंडा लिये गाय और बैल को पीट रहा था। यह जानने पर कि गौ पृथ्वी देवी हैं और वृषभ साक्षात धर्म हैं तथा वह कलियुग शूद्र बनकर उन्हें प्रताड़ना दे रहा है, परीक्षित ने उस शूद्र को मारने के लिये तलवार खींच ली। शूद्र ने अपना मुकुट उतार दिया और वह परीक्षित के पैरों पर गिर पड़ा। महाराज ने कहा- "कलि! तुम मेरे राज्य में मत रहो। तुम जहाँ रहते हो, वहाँ असत्य, दम्भ, छल-कपट आदि अधर्म रहते हैं।" कलि ने प्रार्थना की- "आप तो चक्रवती सम्राट हैं; अतः मैं कहाँ रहूं, यह आप ही मुझे बता दें। मैं कभी आपकी आज्ञा नहीं तोडूंगा।" परीक्षित ने कलि को रहने के लिये जुआ, शराब, स्त्री, हिंसा और स्वर्ण-ये पांच स्थान बता दिये। ये ही पांचों अधर्मरूप कलि के निवास हैं। इनसे प्रत्येक कल्याणकामी को बचना चाहिये।
एक दिन आखेट करते हुए परीक्षित वन में भटक गये। भूख और प्यास से व्याकुल वे एक ऋषि के आश्रम में पहुँचे। ऋषि उस समय ध्यानस्थ थे। राजा ने उनसे जल मांगा, पुकारा; पर ऋषि को कुछ पता नहीं लगा। इसी समय कलि ने राजा पर अपना प्रभाव बनाया। उन्हें लगा कि जान-बूझकर ये मुनि मेरा अपमान करते हैं। पास में ही एक मरा हुआ सर्प पड़ा था। उन्होंने उसे धनुष से उठाकर ऋषि के गले में डाल दिया, यह परीक्षा करने के लिये कि ऋषि ध्यानस्थ हैं भी या नहीं, और फिर वे राजधानी लौट गये। बालकों के साथ खेलते हुए उन ऋषि के तेजस्वी पुत्र ने जब यह समाचार पाया, तब शाप दे दिया- "इस दुष्ट राजा को आज के सातवें दिन तक्षक काट लेगा।" घर पहुँचने पर परीक्षित को स्मरण आया कि- "मुझसे आज बहुत बड़ा अपराध हो गया।" वे पश्चात्ताप कर ही रहे थे, इतने में शाप की बात का उन्हें पता लगा। इससे राजा को तनिक भी दुःख नहीं हुआ। अपने पुत्र जनमेजय को राज्य देकर वे गंगातट पर जा बैठे। सात दिनों तक उन्होंने निर्जल व्रत का निश्चय किया। उनके पास उस समय बहुत-से ऋषि-मुनि आये। परीक्षित ने कहा- "ऋषिगण! मुझे शाप मिला, यह तो मुझ पर भगवान की कृपा ही हुई है। मैं विषयभोगों में आसक्त हो रहा था, दयामय भगवान ने शाप के बहाने मुझे उनसे अलग कर दिया। अब आप मुझे भगवान का पावन चरित सुनाइये।" उसी समय वहाँ घूमते हुए श्रीशुकदेव जी पहुँच गये। परीक्षित ने उनका पूजन किया।
शूकदेव जी ने सात दिनों में परीक्षित को पूरे 'श्रीमद्भागवत' का उपेदश दिया। अन्त में परीक्षित ने अपना चित्त भगवान में लगा दिया। तक्षक ने आकर उन्हें काटा और उसके विष से उनका देह भस्म हो गया; श्रीमद्भागवत का श्रवण कर वे तो पहले ही शरीर से ऊपर उठ चुके थे। उनको इस सब का पता तक नहीं चला।