Kanchan Mrug - 39 in Hindi Moral Stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | कंचन मृग - 39. हम कला बेचते नहीं

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कंचन मृग - 39. हम कला बेचते नहीं

39. हम कला बेचते नहीं-

महोत्सव में भी युद्ध की तैयारियाँ चल रही थीं। सेनाओं का अभ्यास, प्रशिक्षण निरन्तर चलता रहा। रोहित को तो एक क्षण का भी अवकाश नहीं था। शस्त्रों का निर्माण उसी की देखरेख में हो रहा था। अयसकारों की टोलियाँ अत्यन्त उत्साह से अपने कार्य में जुटी थीं। उदयसिंह, ब्रह्मजीत, लक्ष्मण राणा विचार-विमर्श कर रणनीति निश्चित करते और उसी के अनुरूप तैयारियों को अन्तिम रूप देते। महाराज परमर्दिदेव और महारानी मल्हना भी समीक्षा बैठकों को आहूत कर आश्वस्त होते।
विश्वकर्मा पाल्हण के साथ आज कुँवर लक्ष्मण राणा , उदयसिंह, ब्रह्मजीत, चन्द्रा, पुष्पिका खर्जूरवाहक जा रहे हैं। खर्जूरवाहक को महाराज धंग (950-1008) ने चन्देल राजधानी बनाया। सदियों तक यह चन्देलों की राजधानी रही। चन्देल राज्य में अब भी खर्जूरवाहक का मान था। यहाँ की बैठक दूर-दूर तक प्रसिद्ध थी। कुँवर लक्ष्मण राणा खर्जूरवाहक के मन्दिरों के साथ यहाँ की बैठक भी देखना चाहते हैं। अन्य लोग कार्य की समीक्षा एवं वास्तुकारों को उत्साहित करने का संकल्प लेकर चले। कुँवर व्रजराशिन पर सवार हुए, उदयसिंह, ब्रह्मजीत अपने अश्वों पर। चन्द्रा और पुष्पिका वामियों पर ही जाना चाहती थीं। उन्होंने उदयसिंह से बात की। उन्होंने भी सहमति दे दी। चित्रा के नेतृत्व में वामाअनी की कुछ सदस्याएँ भी साथ चल पड़ीं। एक अपूर्व दृश्य , वामियों पर सवार वामाएँ जो भी देखता चकित रह जाता। सुरक्षा की दृष्टि से थोड़े अश्वारोही भी साथ रखे गए। प्रातः सूर्योदय के पूर्व ही प्रस्थान कर दिया गया। दल के लोग अश्वों , वामियों को नचाते, हँसते गाते चल रहे थे।
आधी दूरी पार कर लेने पर दल एक ग्राम के समीप रुका । ग्रामीणों ने दल का स्वागत किया। उस ग्राम में कुछ शिल्पकारों के भी परिवार थे। उन्होंने पाल्हण से विचार- विमर्श कर दल के लिए उपाहार की व्यवस्था की, यद्यपि दल के साथ उपाहार बँधा हुआ था। अश्वों , वामियों को जल पिलाया गया। उपाहार लेकर दल के लोग तैयार हुए। ग्राम की महिलाएँ वामाअनी देखकर मुस्कराती हुई, चित्रा तक आईं। कुछ आँचल से मुँह ढककर अन्दर-अन्दर ही मुस्करातीं। चित्रा ने चन्द्रा और पुष्पिका से उन्हें मिलाया। रानी जू और पुष्पिका से मिलकर वे अत्यन्त प्रसन्न हुई। उदयसिंह तो ग्रामीणों में इस तरह घुलमिल गए जैसे वे ग्रामवासी ही हों। चन्द्रा ने पुष्पिका को कनखियों से देखकर कहा, ‘देखती हो लहुरे वीर को।’ पुष्पिका ने उदयसिंह की ओर देखा और मुस्करा पड़ी।
स्थपति पाल्हण सहित दल आगे बढ़ गया। खर्जूरवाहक निकट आते ही मन्दिरों के शृंग दिखाई पड़ने लगे। सभी उत्साहित हो आगे बढ़ते रहे। मन्दिर के निकट शिल्पियों को कार्य करते देखा। एक स्थल पर एक किशोरी भावपूर्ण मुद्रा में खड़ी थी।
एक शिल्पी उसका रेखांकन उतार रहा था। दल के आने से न तो किशोरी हिली, न शिल्पी ने ही अपना रेखांकन बन्द किया। किशोरी को भावपूर्ण मुद्रा में शिलावत् खड़े देखकर सभी को रोमांच हो आया।
शिल्पियों की निष्ठा एवं श्रम को देखकर सभी पुलकित थे। थोड़ी देर में पाल्हण स्वयं आ गए। उन्होंने सूचित करा दिया कि राजपरिवार आया हुआ है किन्तु शिल्पी अपना कार्य यथावत् करते रहें। अपनी सारणी के अनुसार वे कार्य बन्द करेंगे। अवकाश के क्षणों में राजपरिवार शिल्पियों से सम्पर्क कर लेगा। आचार्य पाल्हण ने दल का नेतृत्व सँभाल लिया, वे खर्जूरवाहक में बने राज निवास में सभी को ले गए। हाथी, अश्व, अश्विनी सभी को उचित स्थान पर ठहरा दिया गया। उनके लिए चारे और जल की व्यवस्था हुई। दल के सदस्य भी विश्राम करने लगे । वहीं आहार/उपाहार की व्यवस्था हुई। सभी मुदित थे। कुँवर लक्ष्मण राणा तो भाव-विभोर थे। उन्होंने खर्जूरवाहक के मन्दिरों को नहीं देखा था। आज खर्जूरवाहक का विश्राम एवं मन्त्रणा कक्ष देखकर वे बहुत प्रभावित हुए। ब्रह्मजीत और उदयसिंह ने उन्हें खर्जूरवाहक के सम्पूर्ण परिदृश्य की जानकारी दी। रात्रि विश्राम के पश्चात् प्रातः दल मंदिरों के निरीक्षण के लिए चल पड़ा।
दल मन्दिरों की परिक्रमा करता हुआ उन पर अंकित मूर्तियों की भंगिमाओं को देखकर अत्यन्त प्रभावित हुआ। चन्द्रा ने इन शिल्पों का अध्ययन कर रखा है, वह सभी को बताती। वह कहती, ‘तीखी भाव भंगिमाओं को देखो-उभरे हुए पयोधर, पत्र लेखा, अलक्तिका, दर्पण , पुत्रवल्लभा आदि मूर्तियों की द्विभंग, त्रिभंग एवं अतिभंग मुद्राओं में आकर्षक देहयष्टि।’ दल के लोग मूर्तियों को देखते और प्रशंसा करते। चन्द्रा ने गर्भ गृह में स्थापित मूर्तियों के शिल्प की ओर संकेत किया। मन्दिरों की बाह्म एवं भीतरी भित्तियों तथा शिखरों पर बनी त्रिपाश्-र्वदर्शी मूर्तियाँ, दिखाकर लोगों को बताती रही। विभिन्न गहराइयों में काटकर बनाई गई मूर्तियाँ, जिनका उभार थोड़ा कम है, को जंघा, अधिष्ठान, शिखर, अर्द्धमण्डप, वरण्ड, प्रवेश द्वार, उत्तरंग पर दिखाती हुई चन्द्रा आगे-आगे चलती रही। उसने मन्दिरों के सर्वधर्म समरसता के इंगित को भी रेखांकित किया।
उसने विषय वस्तु की दृष्टि से भी मूर्तियों का विश्लेषण कर सभी को चकित कर दिया। पुष्पिका ने उसे हँसकर ‘गुरु जी’ कह दिया। उसने गर्भ गृह में प्रतिष्ठित देव मूर्तियों की ओर संकेत कर रक्षिकाओं में उत्कीर्ण देव मूर्तियों को दिखाया। सुर सुन्दरियों की भावना एवं सौन्दर्याभिव्यक्ति को दिखाते हुए उसने काम कला से सम्बन्धित मूर्तियों की ओर संकेत किया। ‘लौकिक जीवन से सम्बन्धित मूर्तियाँ भी बनाई गई हैं?’, उसने आखेट से सम्बद्ध एक मूर्ति को दिखाते हुए कहा। ‘पशुओं और वनस्पति से जुड़ी मूर्तियाँ कुशलता से उकेरी गई हैं’ उसने एक शादूर्ल की ओर इंगित कर बताया।
देवी जगदम्बी, चैसठ योगिनी, सूर्य, पाश्-र्वनाथ, आदिनाथ, घंटई, वराह, वामन, जवारी, मातंगेश्वर, दूलादेव, लक्ष्मण मन्दिर को देखकर दल कन्दरिया महादेव के प्रांगण में आकर रुक गया। दल के लोग चन्द्रा द्वारा दी गई जानकारी का लाभ उठा मन्दिर का निरीक्षण करने लगे। कुँवर लक्ष्मण राणा अभिभूत थे। ब्रह्मजीत, उदयसिंह, पुष्पिका सभी शिल्पगत कौशल को देखकर मुदित थे।
मन्दिरों का निरीक्षण कर सभी लोग लौटे। राजप्रासाद में विश्राम की व्यवस्था थी। दल का प्रत्येक सदस्य धर्म एवं काम इन्हीं पुरुषार्थों की चर्चा कर रहा था। आध्यात्मिक उपलब्धि के बीच काम की सार्थकता पर छिड़ी बहस में सभी निमग्न थे। चन्द्रा के गहन अध्ययन की छाप सभी पर पड़ चुकी थी। ब्रह्मजीत, कुँवर लक्ष्मण सभी प्रभावित हुए। विश्राम के समय भी चर्चा बन्द नहीं हुई। सायंकाल कार्य समाप्त कर शिल्पी राज प्रासाद के परिसर में इकट्ठा हुए। पाल्हण ने कुछ प्रमुख शिल्पियों का सभी से परिचय कराया। शिल्पियों के मुखमण्डल दमक उठे। उदयसिंह ने कार्य की प्रगति के बारे में वार्ता की। शिल्पियों के आर्थिक पक्ष की चर्चा होने पर पाल्हण ने आर्थिक संकट की ओर संकेत किया। उनकी बात समाप्त होने पर वही किशोरी जो भावपूर्ण मुद्रा में रेखांकन करा रही थी, खड़ी हुई। उसने कहना प्रारम्भ किया, ‘महाराज हम शिल्पी हैं। हमारी अपेक्षाएँ बहुत नहीं हैं, पर शरीर एवं मन को स्वस्थ रखने के लिए कुछ अर्थ तो चाहिए ही। हमें बताया गया है कि युद्ध की तैयारियों के कारण शिल्पियों के लिए पर्याप्त धन उपलब्ध नहीं हो सकेगा। पर शिल्प कला यदि खो गई तो इसे पुनर्जीवन दे पाना असम्भव हो जाएगा महाराज। इसलिए इसे जीवित रखिए। चन्देल सत्ता से हम भी जुड़ गए हैं। पीढ़ियाँ हमारी इसी में खप गईं। हमारे प्रपितामह, पितामह, पिता सभी का जीवन इन्हें सवाँरने में ही बीत गया। अब हम लोग, दूसरे किसी व्यवसाय में जीवित नहीं रह सकेंगे,’ कहते कहते किशोरी फफक पड़ी। उसी के साथ कुँवर लक्ष्मण , ब्रह्मजीत, उदयसिंह, चन्द्रा, पुष्पिका सभी की आखें भर आईं। ‘कुछ थोड़े से वस्त्र, बाजरे की चार रोटियाँ हमारे लिए पर्याप्त हैं। इसी परिसर में लिखने-पढ़ने की व्यवस्था है, वह न बन्द हो। हम लोग चाहे जीवित रहें या न रहें।’ ‘गुरु कुल को यथावत् सहायता मिलेगी और मन्दिर निर्माण का कार्य भी बन्द नहीं होगा,’ ब्रह्मजीत से न रहा गया। शिल्पियों में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई।
‘हम कला बेचते नहीं महाराज, उसे जीवित रखते हैं। कोई भी शिल्पी प्रतिदान पर कार्य नहीं करता। उसे करना है इसलिए करता है। हमारे लिए यह कर्म आराधना है। पर आराधना का भी मान रहे, हम यही चाहते हैं,’ इतना कहकर बालिका बैठ गई। पाल्हण ने खड़े होकर सभी का अभिवादन करते हुए कहा, ‘राजपरिवार को यहाँ तक आने का कष्ट दिया इसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ। पर वस्तुस्थिति का स्थल पर आकलन किए बिना इस योजना पर निर्णय न हो पाता।’ पाल्हण भी कहते-कहते कुछ भावुक हो उठे। उन्होंने स्थपति समुदाय को सम्बोधित करते हुए कहा, ‘यह सुखद संयोग है कि राजकुमार ब्रह्मजीत के साथ कान्यकुब्ज कुँवर लक्ष्मण राणा भी हम लोगों में स्फूर्ति जगाने आ गए हैं।’ पाल्हण के इतना कहते ही शिल्पियों की तालियाँ बज उठीं। वे देर तक लक्ष्मण राणा का अभिनन्दन करते रहे। कुँवर भी अभिभूत थे। महास्थपति पाल्हण की प्रशंसा करते हुए उन्होंने कहा कि शिल्पी समुदाय उनसे जो अपेक्षा करेगा उसे पूरा करेंगे। पाल्हण सहित शिल्पियों ने कुँवर के कथन का तालियों से स्वागत किया। किशोरी ने तब तक उदयसिंह, पुष्पिका एवं चन्द्रा से सम्पर्क कर उन्हें सायंकालीन संगीत एवं नृत्य सभा में सहभागी बनने के लिए सहमत कर लिया था। चन्द्रा ने चित्रा को किशोरी की योजना में सहयोग करने के लिए इंगित किया। चित्रा और किशोरी दोनों सायंकालीन सभा के नियोजन में जुट गईं।
शिल्पकार भी एक-एक सीढ़ी आगे बढ़ते। विशिष्ट प्रशिक्षण एवं कुशल ता प्राप्त करने के लिए उन्हें अथक परिश्रम करना पड़ता, पर उनकी पदोन्नति भी होती। स्थपति पाल्हण को ही 1166 ई. में पीतलहार, 1171 ई. में शिल्पिन 1173 ई. में विज्ञानिन तथा 1173 ई. में वैदग्धि विश्वकर्मा बताया गया।