Kanchan Mrug - 38 in Hindi Moral Stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | कंचन मृग - 38. कच्चे बाबा की व्यथा

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कंचन मृग - 38. कच्चे बाबा की व्यथा

38. कच्चे बाबा की व्यथा-

कच्चे बाबा आज अत्यन्त व्यथित हैं। जब से उन्होंने सुना है कि चाहमान नरेश ने चन्देलों से निर्णायक युद्ध करने का व्रत लिया है, उनकी एकान्त साधना प्रायः समाप्त हो गई है। वे बार बार स्मरण करते, जब पश्चिमी सीमाएं अरक्षित हो रही हैं, चाहमान नरेश का यह व्रत संगत नहीं है। उन्होंने कुछ प्रबुद्ध सन्तों को इक्ट्ठा कर इस अभियान को रोकने का मन बनाया। अपने शिष्यों के माध्यम से उन्होंने शैव, वैष्णव, बौद्ध, जैन, नाथ सभी से सम्पर्क साधा पर कोई भी इस कार्य में हाथ डालने को तैयार नहीं हुआ। लूट दस्यु, आक्रमण कारी सभी करते हैं। दाहिर की पराजय के पश्चात् कितने आक्रमण हुए, इनकी गिनती करना भी सरल नहीं है। अपने में ही सीमित हो जाना क्या जीवन्त समाज का लक्षण है? बाबा को ज्ञात हुआ कि महाकवि चन्द इस युद्ध के पक्ष में नहीं हैं। उन्होंने महाराज को युद्ध न करने का परामर्श दिया था, पर महाराज द्वारा वह स्वीकृत नहीं हुआ। ‘सत्ता जब सत् से आवृत न हो, वह सत् और असत् शुभ एवम् अशुभ की पहचान न कर सके तो उस सत्ता को बने रहने का अधिकार कहाँ बनता है? पर सत्ता सदा नीति पर चलती कहाँ? वह तो राजनीति करती है। अब बहुत देर हो चुकी है,’ उन्हें ऐसा लगता। ‘पश्चिम के आक्रमण कारियों की घुसपैठ बढ़ गई है। बिना विवेक के बृहत् जनहित के बारे में चिन्तन कैसे हो सकता है? सन्त के सामने ही किसी बालिका का अपहरण होने लगे। वह चीख कर चिल्ला पड़े तो सन्त क्या आँख मूँद कर बैठ सकेगा? आज तुमने जो तटस्था भाव अपना लिया है वह कितनी दूर तक जा सकेगा? तटस्थ रहने के लिए भी शक्ति की आवश्यकता होती है। कल यह भी हो सकता है कि तुम्हें एकान्त साधना के लिए स्थान ही न मिल सके।’ बाबा बुदबुदाते टहलते रहे। उन्हें यह पता ही नहीं चल पाया कि पारिजात कब आ गए। एकाएक पारिजात पर उनकी दृष्टि पड़ी तो चैंक पड़े।
‘पारिजात तुम’
हाँ, मैं अभी आया हूँ।’
‘सुमुखी का कोई पता नहीं चला?’
‘अभी नहीं। ’
‘अकेले-अकेले हम लोग कोई कार्य सम्पादित नहीं कर सकेंगे। अब मुझे ही देखिए मैं चाहता हूँ चाहमान-चन्देल युद्ध टल जाए पर कोई युक्ति काम ही नहीं कर रही।’
‘युद्ध का उन्माद क्या कम होता है? हम पूरे समाज को उन्माद की आग पर खड़ा कर सकते हैं, पर उसके बाद…………?’
‘उसके पश्चात् ही विवेक जगता है यही कह कर इतिश्री करना चाहते हो न?’ ‘नहीं। भयंकर युद्ध के दुष्परिणामों को झेलने के बाद भी लोग नहीं चेतते।’
‘इसीलिए निरन्तर मन्थन और क्रियान्वयन की आवश्यकता होती है।’
‘मन्थन?’ पारिजात हँस पड़े।, ‘कूप मंडूक मन्थन से क्या होता है? जब तक कूप के बाहर भी कुछ है इसका भान न हो, वह कूप को ही ब्रह्मांड समझता रहेगा।’ ‘इतने दिन हो गए किन्तु अकेले ‘सुमुखी’ की खोज नहीं कर सके। यदि कोई संगठित प्रयास होता तो सम्भवतः सफलता मिल गई होती।’
‘कौन जाने मिलती या नहीं।’
‘दस्यु भी संगठित होकर आक्रमण करते हैं। उनका प्रतिरोध भी हमें संगाठित होकर करना चाहिए। अशुभ करने के लिए लोग संगठित हों, शुभ कर्म के लिए असंगठित रहें, क्या यह चिन्ता की बात नहीं है पारिजात?’
‘शुभ कर्मियों का अहं कहाँ विगलित करेंगे आप?’
‘बृहत्तर हित के लिए अहं का तिरोहित होना संगत ही नहीं, आवश्यक है।’
‘संगठन के लिए किसी निश्चित प्रारूप पर सहमति लानी पड़ती है। विद्वज्जन असहमत होने में ही अपना गौरव समझते हैं। ऐसी स्थिति में ।’
‘संगत कहते हो पर इसी से समाज का कार्य तो नहीं चलेगा? जो उचित है उस पर असहमति?’
‘उचित अनुचित की कसौटी तो सत्य है। यदि उस पर सहमति नहीं होगी तो उचित अनुचित पर असहमति अवश्यम्भावी है।’
‘सत्यासत्य का विचार तो परम आवश्यक है। हम उससे विरत कैसे हो सकते हैं?’
‘राजनीति अर्द्धसत्य अधिक तीव्रता से पकड़ती है, उसी में राजनीतिज्ञ का हित है।’
‘पर समाजहित?’
‘उसकी चिन्ता करने वाले कितने हैं?’
‘आप हैं न?’
‘मैं सुमुखी की खोज में हूँ। क्या यह मेरा अपना स्वार्थ नहीं है?’
‘किन्तु यह समाजहित का भी प्रश्न है। यदि यह समाज अपनी जड़ता से ऊपर नहीं उठा......’ बाबा का बुदबुदबुदाना बन्द नहीं हुआ, ‘सामाजिक विखंडन के बीच समरसता कहाँ है? समरस समाज ही एक जुट हो खड़ा हो सकता है। पर हमने तो लोगों को बाँटना ही सीखा है। अन्त्यजों, नारियों को कौन सा अधिकार हमने दिया है? हम सब दस्यु हो गए पारिजात......पूरे पूरे दस्यु।’
पारिजात बाबा में आज कुछ नया देख रहे थे।
‘पारिजात, तुम मेरे साथ चल सकोगे?’
‘कहाँ?’
‘चाहमान नरेश के पास।’
‘किस लिए?’
‘मैं उन्हें चन्देलों पर आक्रमण करने से विरत करना चाहता हूँ।’
‘यह सम्भव नहीं है। वे पूरी तैयारी कर चुके हैं।
‘तुम्हें कैसे पता चला?’
‘मैं उधर से होकर ही आ रहा हूँ।’
‘तब भी प्रयास करना अनुचित नहीं है।’
‘प्रयास का फल तो मुझे नहीं दिखाई पड़ता। आप तो जानते हैं राजपुरुषों पर मेरा विश्वास नहीं टिकता।’
‘यह तुम्हारा पूर्वाग्रह हो सकता है।’
‘आप जो भी मान लें।’
‘बोलो, चल सकोगे?’
‘आप कहेंगे तो चलना ही होगा।’
‘तो तैयार हो जाओ।’
‘अभी इसी समय?’
‘हाँ, देर करना उचित नहीं होगा।