Kanchan Mrug - 34 in Hindi Moral Stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | कंचन मृग - 34. चन्द दुःखी हुए

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कंचन मृग - 34. चन्द दुःखी हुए

34. चन्द दुःखी हुए-

महाराज पृथ्वीराज अपने मन्त्रणा कक्ष में आ चुके थे। उन्होंने महोत्सव की छिटपुट लड़ाइयों को लुका-छिपी का खेल कहकर अपना असन्तोष प्रकट किया। चामुण्डराय और कदम्बवास यद्यपि दो बार महोत्सव की सेनाओं से आमने-सामने हो चुके थे, पर उन्हें सफलता नहीं मिल पाई थी। दुर्ग को नष्ट कर पाना अत्यन्त कठिन था। शिशिरगढ़ विजय से चामुण्डराय जितने उत्साहित थे उतना ही वेत्रवती के झाबर की असफलता से दुःखी।
‘अब हम निर्णायक युद्ध की ओर बढ़ रहे हैं महाराज’ चामुण्डराय ने कहा। संयमाराय ने इसका समर्थन किया।
‘निर्णायक युद्ध के लिए पूरी शक्ति के साथ आक्रमण करना होगा’ कदम्बवास ने जोड़ा।
‘इन युद्धों से निर्दोष जनता पर भार बढ़ा है महाराज। यदि सम्भव हो तो युद्ध को रोक दिया जाए’, चन्द ने कहा।
‘इस स्थिति में युद्ध रोकना महाराज की धवल कीर्ति पर कलंक होगा’, चामुण्डराय ने कहा। ‘हमें निर्णायक युद्ध करना ही है।’
महाराज के संकेत से एक गुप्तचर उपस्थित हुआ। उसने बताया, ‘उदयसिंह के महोत्सव पहुँच जाने से सैनिकों का उत्साह बढ़ गया है।
धर्म और जाति के आधार पर किसी प्रकार का कलह लक्षित नहीं होता। वैष्णव, शैव, जैन, बौद्ध किसी में भी महाराज के प्रति कोई अनिष्ट का भाव नहीं है। शासन सभी धर्मों के प्रति उदार है।’
‘इसका अर्थ हुआ कि महोत्सव में कोई असन्तोष नहीं है?’ महाराज ने पूछा।
‘मन्त्री माहिल में ही अन्दर-अन्दर असन्तोष की झलक मिलती थी, पर अभयी के वीरगति पाने से वे अत्यन्त दुःखी हैं। अब षड्यन्त्रों में उनकी रुचि कम हो गई है।’
‘वनस्पर बन्धुओं के प्रति उनका विद्वेश क्या समाप्त हो गया है?’
‘समाप्त तो नहीं हुआ है महाराज, पर उनकी सक्रियता घटी है।’
‘अब?’ चामुण्डराय की ओर महाराज ने देखा। चामुण्डराय उठ खड़े हुए। उन्होंने कहा, ‘महाराज अब छिटपुट, नहीं निर्णायक युद्ध होगा। हम महोत्सव को ध्वस्त करके ही लौटेंगे।’
‘क्या सेना की तैयारी हो गई है?’
‘हो गई है महाराज,’ कदम्बवास ने उत्तर दिया। ‘गजबल के साथ ही अश्वानीक को भी पुष्ट किया गया हे। हमारे उत्साही बलाध्यक्ष आदेश की प्रतीक्षा कर रहे हैं।’
‘हम युद्ध की विभीषिका में उलझ रहे हैं। तुम्हें इससे कष्ट हो रहा है’, महाराज ने चन्द की ओर दृष्टि फेरी।
‘हाँ, महाराज। ऐसे समय में जब पश्चिमी सीमाएँ निरापद नहीं है यह युद्ध अपनी जड़ काटने जैसा लग रहा है।’
‘युद्ध तो प्रारम्भ हो गया है, अब इसका समापन होना ही है।’
‘समापन परस्पर सौहार्द से भी हो सकता है महाराज।’
‘पर महाराज की धवल कीर्ति क्या......?’ चामुण्डराय कह उठे। यद्यपि जालुकि वंशीय चन्द पश्चिम के आक्रमण कारियों से सचेत करते रहे पर महाराज की सहमति से परमर्दिदेव से निर्णायक युद्ध का निर्णय लेकर सभा समाप्त हुई।
चन्द दुःखी हुए। उनके पग शारदा मन्दिर की ओर बढ़ गए। उन्हें लगता था कि इस युद्ध में जन धन की जो हानि होगी उसकी पूर्ति नहीं हो सकेगी। गोर शासकों का पश्चिम भारत पर निरन्तर आक्रमण एवं लूट-पाट उन्हें विचलित करता रहा। गजनी, मुल्तान, पेशावर का पतन देखकर भी महाराज दशार्ण युद्ध से विरत नहीं हुए। उनका कलाकार मन उद्वेलित हो उठा। उनकी दृष्टि जितनी दूर तक देखती थी अन्य लोग क्यों नहीं देखते, यही सोचकर वे अशान्त हो उठते। पर अब विकल्प क्या था? अजयराज और अर्णोराज ने जिस शक्ति के साथ पश्चिमी आक्रमण कारियों से लोहा लिया था उसी के परिणाम स्वरूप चाहमानों का शासन आक्रमण कारियों के लिए वज्रकपाट बन गया था। पर अब वज्रकपाट बना रह पाएगा? महाकवि को इसी में सन्देह होने लगा था। उनका हृदय कसमसा उठा। वे माँ जगदम्बा के चरणों में शीश झुका स्तुति करने लगे।
माहिल उरई में रहते, पर उनके कान चाहमान नरेश और परमर्दिदेव के संघर्ष की कथा सुनने के लिए आतुर रहते। जब कुछ दिनों तक उन्हें इस सम्बन्ध में कोई सूचना नहीं मिली, वे महोत्सव की ओर चल पड़े। अभयी के बलिदान से महोत्सव में उनका सम्मान बढ़ गया था। राज परिवार और नगरवासियों ने उल्लसित हो उनका स्वागत किया। कुछ क्षण के लिए वे अभयी के निधन का अवसाद भूल गए। पर उल्लास के ये क्षण स्थायी नहीं हो सके। उनके पूर्वाग्रह उन पर हावी होने लगे। अब वे ब्यूह रचना में मग्न माहिल ही रह गए।