Kanchan Mrug - 33 in Hindi Moral Stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | कंचन मृग - 33. जूती पिन्हाइए

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कंचन मृग - 33. जूती पिन्हाइए


33. जूती पिन्हाइए-

कान्यकुब्जेश्वरी अत्यन्त उद्विग्न हैं। उन्हें आचार्य श्रीहर्ष प्रतिद्वन्द्वी दिखाई पड़ते। यद्यपि महाराज महारानी का सम्मान करते थे पर वे श्रीहर्ष की बात भी नहीं टालते थे। यही बात महारानी को अखरती। उन्हें लगता कि श्री हर्ष भविष्य में उनके विकास में बाधक हो सकते हैं। कभी-कभी वे महाराज को भी तोलने का प्रयास करतीं। उन्हें लगता कहीं श्रीहर्ष का पलड़ा भारी न पड़ जाए। उन्होंने कई आचार्यो, व्यक्तियों को जाँचा पर कोई श्री हर्ष को पदचयुत करने में समर्थ होगा ऐसी सम्भावना उन्हें नहीं दिखी। उनकी उद्विग्नता बढ़ती जा रही थी। उन्हें पता चला कि आचार्य श्री हर्ष आज राजसभा में आने वाले हैं। उन्होंने स्वयं ही कुछ करने का निर्णय लिया। ‘प्रतिहारी’, कहते ही सेविका हाथ जोड़कर खड़ी हो गई।
‘आचार्य श्री हर्ष से मिलकर सूचित करो कि महारानी आचार्य से मिलना चाहती है।’ ‘जो आज्ञा।’ प्रतिहारी चली गई। उसने आचार्य से भेंट कर महारानी की इच्छा से अवगत कराया। श्री हर्ष ने राजसभा की मन्त्रणा के बाद महारानी से मिलने का आश्वासन दिया। प्रतिहारी ने लौटकर महारानी को अवगत कराया।
महारानी मन्थन करती रहीं। वे उठकर टहलने लगीं। अन्ततः उन्हें ही अस्त्र उठाना है। वे अबला नहीं है। उनकी शक्ति का अनुमान किसी को नहीं है, श्री हर्ष को भी नहीं। उन्होंने अपने को सन्नद्ध किया। नारी को शक्ति स्वरूपा चित्रित करते हुए भी उसे सहभागी बनने का अधिकार कहाँ? कहते हैं एक चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। पर नहीं, एक चना ही भाड़ फोड़ेगा। मैं अधिकार चाहती हूँ। अधिकार विहीन होना मुझे स्वीकार नहीं।
‘प्रतिहारी?’, वे जोर से चीख उठीं। प्रतिहारी ने सिर झुकाकर अभिवादन किया।
‘जल’
प्रतिहारी दौड़कर एक पात्र में जल ले आईं। महारानी दो घूँट जल पीकर आश्वस्त सी हुई। उनके विचार बुलबुले की भाँति उठते और विलीन होते। खुले अलिन्द से उपवन की ओर वे देर तक निहारती रहीं। दो गौरैया आपस में लड़ते हुए भूमि पर आ गिरे उसी समय प्रतिहारी ने निवेदित किया कि आचार्य श्री हर्ष पधारे हैं। महारानी उठ पड़ीं। उन्होंने आचार्य को कक्ष में ही बुला लिया। आचार्य ने आते ही हाथ उठा आशीष दिया। महारानी और आचार्य आमने सामने बैठ गए। महारानी एक बार ठिठकीं, पर तुरन्त अपने को सँभालती हुई इच्छित रूप में प्रकट हो गई। उन्होंने कहा,’ आचार्य आप सर्वज्ञ हैं न?’ आचार्य की उपलब्धियों को किसी ने अब तक चुनौती नहीं दी थी । महारानी के कहने के ढंग से वे चौंके। महारानी की दृष्टि को चुनौती भरा देख उनका मुखमण्डल तमतमाया अवश्य पर वे अपने को संयत कर बोल उठे, ‘सर्वज्ञ होने में कोई सन्देह?’
‘परीक्षा का अवसर देंगे?’
‘अवश्य ।’ वे सोच रहे थे कि महारानी की रुचियाँ किन शास्त्रों में हो सकती हैं, तब तक महारानी ने अपनी जूती निकालकर आगे बढ़ा दी, ‘जूती पिन्हाइए’।
आचार्य आकाश से मानो धरती पर आ गिरे हों। शरीर क्रोध से जल उठा। वे तुरन्त उठ पड़े कहा-‘कल पहनाऊँगा।’
महारानी उन्हें कक्ष से जाते देखती रहीं।
दूसरे दिन प्रतिहारी ने बताया कि एक चर्मकार आपसे मिलना चाहता है। महारानी को अनुमान था कि अपने अपमान से आहत श्री हर्ष कान्यकुब्ज छोड़ देंगे। वे अपने विचारों में मग्न थीं। प्रतिहारी ने दूसरी बार निवेदन किया तो उनका ध्यान गया। उन्होंने चर्मकार को बुलवा लिया। एक जोड़ी जूती लिए श्री हर्ष उपस्थित हुए। महारानी भी प्रतिशोध की मुद्रा में थीं। वे आसन्दी पर बैठ गईं। चर्मकार के वेश में श्री हर्ष ने जूतियाँ पहना दीं। उसके बाद उठे और निःशब्द लौट पड़े। वे सीधे गंगातट पर पहुँचे, स्नान किया और कान्यकुब्ज छोड़ दिया।
महाराज जयचन्द को केवल इतना ज्ञात हुआ कि आचार्य ने संन्यास ले लिया है।