Kanchan Mrug - 30 in Hindi Moral Stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | कंचन मृग - 30. प्राण दान दे चुका हूँ

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कंचन मृग - 30. प्राण दान दे चुका हूँ


30. प्राण दान दे चुका हूँ-

महाराज परमर्दिदेव ने अपने राज कवि जगनायक को बुलवाया। उनसे विमर्श हुआ। महाराज ने माण्डलिक को मनाने की बात कही। जगनायक बात और तलवार दोनों के धनी थे। पर राजनीतिक षड्यन्त्र में उनकी रुचि नहीं थीं। वे भी माण्डलिक को निष्कासित करने के पक्ष में नहीं थे। पर महाराज की आज्ञा का सक्रिय विरोध भी उन्होंने नहीं किया। वे माण्डलिक के स्वभाव को जानते थे। माण्डलिक गम्भीर प्रकृति के बात के पक्के थे। वे निर्णय सोच विचार कर लेते। एक बार निर्णय कर लेते तो उस पर अडिग रहते। उन्हें महोत्सव से निष्कासित किया गया था। वे इस अपमान को भूल सकेंगे? उदयसिंह की बात और है। वे मानापमान की अधिक चिन्ता नहीं करते। धनुष की प्रत्ंयचा की भाँति वे कठोर व शिथिल हो जाते हैं। महारानी ने भी राजकवि को उत्साहित किया। राजकवि कान्यकुब्ज जाने के लिए तैयार हुए। उन्होंने सवारी के लिए ब्रह्मजीत का हरि नागर माँगा।
अश्व मिलने पर उन्होंने कान्यकुब्ज की ओर प्रस्थान किया। मार्ग बीहड़ था। वेत्रवती और कालिन्दी पार करके वे कान्यकुब्ज राज्य के अन्तर्गत आ गए। प्रभाकर की किरणें अस्ताचल की ओर जा रहीं थी। विश्राम के लिए वे कुड़हरि में रुके। कुड़हरि नरेश ने उनका स्वागत किया। रात्रि विश्राम के बाद प्रातः जब वे चलने लगे तो उनकी स्वर्ण खचित कशा उन्हें नहीं मिल सकी। उन्होंने नरेश से कहा। पर उन्होंने अपनी अनभिज्ञता जताई। जगनायक चल पड़े पर उन्हें पूरा विश्वास था कि उनकी कशा पर नरेश का मन डोल गया है। उन्होंने अश्व को साधा। उसकी गति तेज हुई। तीसरे प्रहर वे कान्यकुब्ज पहुँच गए। कान्यकुब्ज के बारे में जैसा उन्होंने सुन रखा था उसे उतना ही समृद्ध देखकर प्रसन्नता हुई। व्यवस्थित पण्यशालाएँ, स्वच्छ सुंदर आवास, प्रसन्न वदना नारियाँ, प्रशस्त गलियारे, किलोल करते बाल, मैहर पूरित द्वार, द्वार पर सुन्दर कलश, कितना कमनीय लग रहा था उन्हें? जगनायक का राजोचित वेष देख कर लोग अभिवादन कर मार्ग छोड़ देते। उन्होंने एक वृद्ध से माण्डलिक के बारे में जानकारी ली। उसने कुछ दूर चलकर रिजगिर का मार्ग बता दिया। जगनायक उसी दिशा में बढ़ चले। कुछ दूर गए ही थे कि एक अश्वारोही उधर से आता दिखाई दिया। निकट आते ही रूपन ने राजकवि को पहचाना, उन्हें प्रणाम किया तथा माण्डलिक के आवास पर ले गया। राजकवि को देखते ही माण्डलिक उठकर गले मिले, जगनायक की आँखों से प्रेमाश्रु बह चले।
राजकवि के आगमन की सूचना वनवह्मि की भाँति कान्यकुब्ज में फैल गई। महाराज को सूचना मिली तो उन्हें लगा कि राज कवि वनस्पर बन्धुओं को लेने ही आए होगें। माण्डलिक महोत्सव जाने के लिए तैयार नहीं हो रहे थे। माँ देवल ने भी माण्डलिक को मनाने का प्रयास किया। पर वे जब भी सोचते निष्कासन का दंश उन्हें सामने खड़ा मिलता। सुवर्णा ने भी कहा। पर माण्डलिक ने कोई उत्तर नहीं दिया। राजकवि ने महोत्सव के संकट की चर्चा करते हुए उन्हें प्रभावित करने का प्रयास किया। उदयसिंह, नन्ना माण्डलिक के चरणों में अपना सिर रखकर रो पड़े। कहा,‘महारानी मल्हना को प्राण दान दे चुका हूँ मैं! संकट के समय कैसे अलग हो सकेंगे, हम?’ अन्ततः उन्हें सहमति देनी ही पड़ी। पर वे कान्यकुब्जेश्वर की सेवा में थे। बिना उनकी अनुमति के माण्डलिक का प्रस्थान सम्भव न था। निश्चय किया गया कि प्रातः सभा में महाराज से अनुमति ली जाए।
माण्डलिक के साथ राजकवि जगनायक, उदयसिंह और देवा भी प्रातः सभा में उपस्थित हुए। माण्डलिक ने राजकवि का परिचय दिया। जगनायक ने छन्दों में ही अपने आने का मन्तव्य निवेदित किया। महाराज प्रसन्न हुए। पर कर उगाहने में वनस्पर बंधुओं की उपयोगिता को देखते हुए वे उन्हें अपने यहाँ बनाए भी रखना चाहते थे। राज परिसर में वीरोचित कौतुक होते ही रहते हैं। महाराज के सहायक ने कुछ तवों को एक स्थान पर रखा। किसकी इंगित पर सहायक ने तवे रखे, यह स्पष्ट न हो सका। पर महाराज तवे देखकर मुस्करा उठे। जगनायक और उदयसिंह ने भी तवों को देखा। महाराज की परीक्षण वृत्ति पर उदयसिंह को हँसी आ गई। उदयसिंह उठ पड़े पर जगनायक ने उन्हें रोक दिया। उन्होंने कहा, ‘यह परीक्षण आपके लिए नहीं, मेरे लिए है।’ वे उठे और अपनी साँग पूरी शक्ति के साथ धमक दी। साँग तवों को पार करती हुई धँस गई। कइयों ने दाँतो तले उँगली दबा ली। तालियाँ बज उठीं। महाराज ने भी राजकवि को साधुवाद दिया।
माण्डलिक महाराज से अपना मन्तव्य निवेदित करना ही चाहते थे कि पं0 विद्याधर खड़े हो गए। उन्होंने महाराज की प्रशस्ति में श्लोक पढ़ा, जेजाकभुक्ति और कान्यकुब्ज के अन्तरंग सम्बन्धों की चर्चा की। राज कवि जगनायक का भी अभिनन्दन किया। महोत्सव के आसन्न संकट की ओर संकेत किया। गाँजर के राजाओं से कर उगाही के कारण वनस्पर बन्धुओं का सम्मान बढ़ गया था। इससे कई लोगों को ईर्ष्या होने लगी थी। पं0 विद्याधर भी माण्डलिक के बढ़ते प्रभाव से चिंतित हो उठे थे, किन्तु सभा में यही कहते रहे कि वनस्पर बन्धु कान्यकुब्ज के लिये अपरिहार्य हैं। महाराज भी मुस्कराए। शब्द के भीतर के अर्थ को पढ़ने में महाराज सिद्धहस्त थे। पं0 विद्याधर के शब्दों के साथ उनके हृदय का तादात्म्य नहीं था। माण्डलिक ने खड़े होकर राजकवि के आने का मन्तव्य निवेदित कर, महोत्सव जाने की आज्ञा माँगी। महाराज एक बार पुनः मुस्कराए ‘राजकवि के आते ही निष्कासन की यन्त्रणा भूल गए माण्डलिक।’
‘महोत्सव माँ के समान है। उसके संकट में अपनी यन्त्रणा का कोई अर्थ नहीं रह जाता, महाराज।’, माण्डलिक ने कहा। महाराज ने पं0 विद्याधर को निर्देशित किया कि वनस्पर बंधुओं का लेन-देन चुकता कर लिया जाए।