29. मुझे स्वयं अस्त्र उठाना पड़ेगा- कान्यकुब्जेश्वर के अन्तःपुर में राजमहिषी अलिन्द में बैठी कुछ सोच रही थीं। इसी बीच प्रतिहारी ने वेणु को उपस्थित किया।
‘वेणु जी, क्या आप कुछ ऐसा नहीं कर सकते कि महाराज श्री हर्ष के प्रभाव से मुक्त हो सकें!’
‘ऐसा क्यों सोच रही हैं महारानी?’
‘मैं प्रश्न का उत्तर चाहती हूँ, प्रति प्रश्न नहीं।’
‘क्षमा करें महारानी, मैं प्रश्न के निहितार्थ को नहीं समझ सका। इसीलिये प्रश्न करना पड़ा। महाराज आचार्य श्री हर्ष को दो वीटक ताम्बूल देकर आसनारूढ़ करते हैं। उनकी सम्मतियों का मान करते हैं। उनके प्रभाव से मुक्ति…….. ’
‘तुम्हारी दृष्टि में सम्भव नहीं।’
‘वे सर्वज्ञ हैं, महारानी।’
‘हूँ.......पर, पर अहं के घोड़े पर सवार हो विचरण करते हैं।’
‘उन्होंने आचार्य उदयन को शास्त्रार्थ में परास्त कर पिता की पराजय का बदला लिया। आचार्य उदयन कान्यकुब्ज में एक दिन भी टिक न सके। कहते है आचार्य श्री हर्ष के पिता आचार्य हीर ने उनसे वचन ले लिया था।’
‘कैसा वचन?’
‘आचार्य उदयन ने शास्त्रार्थ में हीर को पराजित कर दिया था। आचार्य हीर को इससे बड़ी ग्लानि हुई। उन्होंने श्री हर्ष को शास्त्र अध्ययन के लिए प्रेरित किया और कहा कि आचार्य उदयन को पराजित कर पिता की हार का प्रतिशोध लें। किशोर श्री हर्ष शास्त्रों के अध्ययन में जुट गए। उन्होंने चिंतामणिमंत्र की साधना की। तभी से उनका यश चतुर्दिक फैल गया। कहते हैं उनके राज सभा में आने पर आचार्य उदयन ने ‘‘गौर्गौरागतः अर्थात बैल आया कह दिया था। इस पर श्री हर्ष ने तड़ाक से कहा- किं गवि गोत्वमुतागवि गोत्वं।
यदि गवि गोत्वं नहि मयि गोत्वम्
अगवि च गोत्वं तव यदि साध्यं
भवतु भवत्यपि सम्प्रति गोत्वम्।
अर्थात गोभिन्न को यदि तुम गो (बैल, मूर्ख) सिद्ध करना चाहते हो तो वह गोत्व (मूर्खत्व) तुम में भी है। सम्पूर्ण सभा अवाक् रह गई। आज तो वे सर्वत्र पूज्य हैं।
‘पर मेरे अन्तःपुर में नहीं। उन्हें पराजित होना ही पड़ेगा।’ महारानी का मुख मंडल रक्ताभ हो चुका था।
‘मैं अब भी समझ नहीं सका महारानी, आचार्य पर इतनी अकृपा कयों?’
‘यदि यही समझते तो तुम किसी गुरु कुल के आचार्य होते।’
‘यदि मैं समझने का प्रयास करूँ तो क्या मैं किसी गुरु कुल का आचार्य…..’
‘आचार्य ही नहीं कुलपति भी बन सकोगे। पर तुम्हें महाराज को श्री हर्ष से विमुख करना होगा।’’
वेणु थरथरा उठे । उनके मुख से वाणी नहीं फूटी।
‘क्यों चुप हो गये वेणु।’ महारानी की दृष्टि आक्रामक हो उठी थी। वेणु अब भी काँप रहे थे। महारानी ने एक टक उन्हें देखा, ‘का पुरुष , तुम से कुछ नहीं हो सकेगा।’ वेणु राज सभा में आते जाते थे, परन्तु उनकी आचार्य श्री हर्ष से कोई तुलना नहीं थी।
‘मैं एक साधारण विप्र हूँ। राजकृपा ही मेरी जीविका है।’, वेणु किसी प्रकार कह सके। ‘राजकृपा भी प्रतिदान चाहती है वेणु।’ वेणु फिर चुप हो गये।
‘विद्याधर को मैं ही यहाँ लाई। उसे मन्त्री बनवाया। पर वह भी हर्ष का नाम सुनते ही प्रणिपात करने लगता है। कापुरुषों से कुछ भी नहीं हो सकता। मुझे स्वयं अस्त्र उठाना ही पड़ेगा।’ महारानी बड़बड़ा उठीं। वेणु चुपचाप सुनते रहे। मन उड़ता रहा
‘नैषधीय चरित जैसे काव्य प्रणेता की उनसे क्या तुलना हो सकती है!’
महारानी उठने वाली ही थीं कि उनकी बारह वर्षीय बालिका आ गई।
महारानी की दृष्टि मिलते ही बालिका रो पड़ी, ‘माँ, वे मुझे चिढ़ाते हैं।’
‘तू चिंता न कर बेटी, जो आज चिढ़ाते हैं वे ही तेरे पैरों पड़ेंगे।’
‘माँ, मैं उनके साथ समरस होना चाहती हूँ, पैर पकड़ाना नहीं।’
‘अभी तू बच्ची है। तुझे बड़ा खेल खेलना है।’
‘बड़ा खेल? सच माँ?’
‘खेलने के अनेक साधन हैं। कल से तुझे घुड़सवारी सीखनी है।’
‘अच्छा माँ।’ बालिका प्रसन्न हो अपने कक्ष में चली गई। वेणु अब भी खड़े थे। माँ-पुत्री दोनों को प्रकृति ने बहुत सतर्क होकर बनाया था। जो भी उन्हें देखता मुग्ध हो जाता। सौन्दर्य मानो स्वयं साक्षात् उपस्थित हो गया हो। महारानी का संकेत पा वेणु चल पड़े। उनके मन में समाज में प्रचारित अनेक किंवदत्तियाँ घुमड़ने लगीं ......महारानी एक रजक पुत्री हैं। उनके सौन्दर्य पर मुग्ध होकर महाराज ने उन्हें अपनी पत्नी बना लिया। महारानी के शरीर से सुगन्ध झरती है। भ्रमर उस सुगन्ध के लिए आकुल रहते हैं। बत्तीस लक्षणों से युक्त महारानी पर महाराज विशेष आसक्त हैं। महारानी का कक्ष उनके मुख मंडल के प्रकाश से प्रकाशित हो उठता है।......किंवदन्तियों का कोई ओर छोर न था।
वेणु के जाते ही उदयसिंह उपस्थित हो गए। उन्हें महारानी ने बुलवा लिया था। उदयसिंह के प्रणाम करते ही महारानी ने आसन्दी की ओर संकेत किया। उदयसिंह बैठ गए। महारानी को ताम्बूल प्रिय था। उन्होंने उदयसिंह से महोत्सव के ताम्बूल की खेती के बारे में पूछा, ‘वाराणसी और महोत्सव के ताम्बूल में कौन अधिक उत्तम होता है?’ महारानी ने प्रश्न किया।
‘दोनों उत्तम होते हैं, महारानी। बहुत कुछ ताम्बूल खाने वाले की रुचि पर निर्भर होता है।’ उदयसिंह का उत्तर था।
‘संस्कृत साहित्य में तुम्हारी रुचि है न?’
‘अवश्य महारानी।’
‘श्री हर्ष का नैषधीय चरित सुना होगा।’
‘आचार्य के श्रीमुख से कुछ अंश सुना है।’
‘श्री हर्ष का अहं भी देखा होगा।’
‘अहं क्या कहूँ ,आत्मसम्मान के प्रति वे अधिक सजग रहते हैं।’
‘और महाराज को अपनी मुट्ठी में बन्द रखना चाहते हैं।’
‘ऐसा कोई प्रयास मैंने नहीं देखा, महारानी।’
‘श्री हर्ष के कार्यों को कोई नहीं देखता।’ उदयसिंह चुप हो गए। महारानी ने एक दृष्टि डाल उदयसिंह को आँका। उनकी दृष्टि कुछ असहज है, इसे उदयसिंह ने भी अनुभव किया।
‘जाओ, राजनीति को भी समझने का प्रयास करो,’ महारानी ने कहा।
महारानी को प्रणाम कर उदयसिंह प्रासाद से निकल पड़े। पर उन्हें अन्तःपुर की असहजता का कुछ अनुमान हुआ। पारिवारिक अन्तर्कलह राज पुरुषों को सदैव पदच्युत करता रहा। पूर्व प्रकरणों का स्मरण करते ही उनके मुख मंडल पर स्वेद कण झलक उठे। क्या कान्यकुब्ज में भी वही सब दुहराया जाएगा।