Kanchan Mrug - 28 in Hindi Moral Stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | कंचन मृग - 28. भुजरियाँ सिराने का पर्व

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कंचन मृग - 28. भुजरियाँ सिराने का पर्व


28. भुजरियाँ सिराने का पर्व-

भुजरियाँ सिराने का पर्व। उत्साह की हिलोर में बालिकाएँ प्रातः से ही तैयारी में व्यस्त हो गईं। घर-घर चर्चा होने लगी कि जोगियो ने पर्व कराने का संकल्प लिया है। वे आ ही रहें होंगे। चन्द्रा भी अपनी वामा वाहिनी के साथ कीर्तिसागर जाने का उपक्रम कर रही हैं। समरजीत तैयार खड़े हैं। महारानी ने शिविकाएँ सुसज्जित कर लीं। महिलाएं बच्चे सभी आज उत्फुल्ल दिखाई पड़ रहे थे। समय हो रहा था। जोगी अभी पहुँच नहीं पाए थे। बालिकाएँ बार-बार महारानी से पूछतीं। महारानी अन्दर जातीं, बाहर आतीं। जोगियों के न आने से, वे उद्विग्न हो उठीं। उन्होंने समरजीत से परामर्श किया। समरजीत ने सैनिकों को पालकियों के साथ लगा दिया। माँ से कहा,‘माँ आप चिंन्ता न करे, पर्व मैं कराऊँगा।’ इसी बीच अभयी आ गए। उन्होंने कहा,‘शिविकाएँ प्रस्थान करें। माँ चन्द्रिका हमारी सहायक होंगी।’ शिविकाएँ तैयार थीं। कोई विकल्प नहीं था। माँ चन्द्रिका और मनिया देव का नाम लेकर शिविकाएँ उठीं। महारानी ने सभी को सचेत किया। कहार भी सतर्क हुए। किसी भी स्थिति में शिविकाएँ दिल्ली की ओर नहीं जानी हैं। चन्द्रा की वामा वाहिनी की सन्नद्ध हुई। समरजीत और अभयी के नेतृत्व में दल कीर्ति सागर की ओर बढ़ा ही था कि चामुण्डराय की सेना ने बढ़कर रोक़ा। चित्रा के नेतृत्व में वामा वाहिनी शिविकाओं की सुरक्षा में लगी थी। शिविकाएँ भी रुकी। समरजीत ने ललकारते हुए अपना अश्व आगे बढ़ा दिया। समरजीत यद्यपि अभी युवा था किन्तु उसकी रणकुशलता से चाहमान सैनिक भागने लगे। दृश्य सूरज ने देखा। वे चाहमान सेना को उत्साहित करते हुए आगे बढ़े। उन्होंने समरजीत को ललकारा। सूरज और समरजीत दोनों अपना रणकौशल दिखाने लगे। समर ने सूरज से कहा, ‘पहले आप प्रहार कर लें।’ युद्ध एक खेल था। सूरज ने सात प्रहार किए जिसे समरजीत बचा ले गए। अब समरजीत की बारी थी। उन्होंने अपनी साँग से सूरज पर प्रहार किया। सूरज ने ढाल से रोका। दूसरी बार समरजीत की सिरोही का आघात सूरज के गर्दन पर पड़ा और उसी के साथ सिर घड़ से अलग हो गया। सूरज को गिरते टंक ने देखा। वे आगे बढ़े। उनका प्रत्युत्तर देने के लिए अभयी ने अपने अश्व को एड़ लगाई। टंक अभयी में घात प्रतिघात का क्रम चलता रहा। दोनों की कुशल ता का यह उत्तम प्रदर्शन था। बहुत से सैनिक दोनों के कौशल को देखकर उन्हें उत्साहित करने में लगे थे। पर अन्त में अभयी की साँग का आघात टंक के लिए प्राण घातक सिद्ध हुआ। उन्होंने ढाल से रोका पर ढाल फट गई और टंक का सिर बिंध गया। उसी के साथ वे अश्व से गिर पड़े।
समरजीत और अभयी दोनों अब आक्रामक मुद्रा में आ गए थे। दोनों अश्व की रास दाँतों में दबाए दोनों हाथों से तलवार चला रहे थे। सूरज और टंक के गिर जाने से चाहमान सैनिकों में भगदड़ मच गई। सेना को विचलित होते देखकर ताहर ने अपना अश्व आगे बढ़ा दिया। उसने समरजीत को कुरेदते हुए कहा, ‘दुधमुँहे बच्चे, तुमने तलवार चलाना कब सीख लिया? सामने से हट जाओ। घर में बैठ कर गुड़िया-गुड्डा का खेल खेलो। यह मैदान है यहाँ प्राण नहीं बचेगा।’ ताहर की बात समरजीत को लग गई। उन्होंने अपनी साँग चला दी। ताहर साँग का आघात बचा ले गए। पैंतरा बदलकर उन्होंने समरजीत पर तलवार से घातक प्रहार किया। समरजीत का शीश धड़ से अलग हो गया। पर धड़ भी गिरा नहीं, हाथ की तलवार ताहर के अश्व के पेट में धँस गई। तलवार लिए घायल अश्व भाग चला।
समरजीत को गिरते देख अभयी आगे बढ़ आए। उन्होंने चाहमान सेनाओं को ललकारा। तुमुल युद्ध छिड़ गया। सेनाएँ आपस में गुथ गईं। अभयी कुशल ता से संचालन करते आगे बढ़ रहे थे। चाहमान सेना में अभयी का भय व्याप्त हो गया। वे तितर बितर होने लगीं। इस स्थिति को ताहर ने ताड़ लिया उन्होंने दूसरे अश्व की डोर पकड़ी और फाँदकर सवार हो गए। आगे बढ़ कर उन्होंने अभयी के सामने मोर्चा लिया। ताहर के सम्मुख आ जाने से चाहमान सैनिकों का उत्साह बढ़ गया। वे पूरी शक्ति के साथ युद्ध में कूद पड़े। अभयी और ताहर दोनों अपनी-अपनी सेनाओं का मनोबल बढ़ाते, अपने अश्वों को नचाते रहे। ताहर ने जब देखा कि अभयी सैनिकों पर भारी पड़ रहे हैं तो वे स्वयं सम्मुख आ गए। आते ही उन्होंने कहा, ‘चन्द्रा का डोला दिल्ली भिजवा दो, क्यों अपना प्राण संकट में डाल रहे हो?’ ताहर की वाणी से अभयी का मुख मण्डल तनतना उठा। उन्होंने घोड़े को एड़ लगाई और ताहर पर घातक प्रहार किया। ताहर भी कुशल अश्ववारोही थे। घोड़े को उछाल कर प्रहार से उन्होंने अपने को बचाया। दोनों बारी-बारी से एक दूसरे पर घात प्रतिघात कर रहे थे। चाहमान और चन्देल सैनिक दोनों के युद्ध कौशल को देखकर उत्साहित हो रहे थे। अर्द्ध प्रहर बीत गया। दोनों में कोई पीछे हटने को प्रस्तुत नहीं था। जो भी देखता दोनों को उत्साहित ही करता। बादलों की धूप छाँह के बीच दोनों अपना कौशल दिखाते रहे। बीच-बीच में हल्की फुहार भी पड़ती रही। अभयी ने गिन गिन कर अपने अस्त्र छोड़े जिन्हें ताहर बचा ले गए। ताहर ने साँग उठाई और अभयी पर धमक दी। साँग का प्रहार कठिन था। अभयी की ढाल को चीरती हुई घोड़े के पेट में बैठ गई। तलवार खींचकर ताहर ने अभयी का शीश धड़ से अलग कर दिया। महोत्सव की सेना में हाहाकर मच गया। जगनायक ने सैनिकों को रोका। उन्हें उत्साहित कर , वे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते रहे। जगनायक भी कुशल योद्धा थे। उनके आह्वावान से सैनिक प्रभावित हुए। युद्ध पुनःगति पकड़ गया। अभयी के गिरते ही ब्रह्मजीत को सूचना भेजी गई। जैसे ही ब्रह्मजीत को सूचना मिली वे सैनिकों के साथ युद्ध भूमि में पहुँच गए।
उन्होंने समरजीत और अभयी का शव शिविका में रखकर दुर्ग के अन्दर भिजवा दिया। चामुण्डराय के सैनिक शिविकाओं की ओर लपके थे कि ब्रह्मजीत ने उन्हें डाँटा। ब्रह्मजीत के भय से चाहमान सैनिक पीछे हटे। यह देखते ही चाहमान की ओर से मर्दन ब्रह्मजीत के सम्मुख आ गए। ब्रह्मजीत ने उन्हें छठी का दूध स्मरण करा दिया। ब्रह्मजीत और जगनायक युद्ध संचालन करने लगे। जगनायक बालिकाओं की शिविकाओं की ओर बढ़ गए। ब्रह्मजीत और मर्दन आमने-सामने अपने कौशल का परिचय देने लगे। पर ब्रह्मजीत के आघात से मर्दन धराशायी हो गए। उनके प्राण पखेरू उड़ चले। सर्दन ने मर्दन को गिरते देखकर अपना अश्व ब्रह्मजीत की ओर बढ़ा दिया। निकट आकर उन्होंने ब्रह्मजीत को कठोर शब्दों से प्रताड़ित करना चाहा, पर राजकुमार ब्रह्मजीत पूरे आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़े। दोनों अपनी कलाओं का प्रदर्शन करने लगे। दोनों धनुर्विद्या में सिद्धहस्त थे। दोनों बाणों की वर्षा करने लगे। बाणों की मार से सेनाएँ विचलित होने लगीं। ब्रह्मजीत ने सर्दन पर बाणों की झड़ी लगा दी। एक बाण उनके गले को बेधते हुए निकल गया। दूसरा लगते ही सिर धड़ से लटक गया। सर्दन धरती पर आ गिरे।
मर्दन और सर्दन दोनों के हताहत होते ही चाहमान सैनिक बिखरने लगे। ताहर ने ब्रह्मजीत के सामने से सेना को हटते देखा। उन्होंने अपने घोड़े को एड़ लगाई। घोड़ा उड़ा और ताहर ब्रह्मजीत के सामने थे। ब्रह्मजीत ने कानों तक प्रत्यंचा खींच कर बाण चलाया। बाण घोड़े के शरीर में धँस गया और वह रुका नहीं। ब्रह्मजीत के आघात से चाहमान सेना विचलित हो उठी थी।
चामुण्डराय को जैसे ही इस बात का पता चला कि चार जोगियों के कीर्तिसागर का पर्व सम्पन्न कराने का संकल्प लिया हैं,’ अपने गुप्तचरों को जोगियों के पीछे लगा दिया। गुप्तचरों ने लौट कर बताया कि जोगियों की एक बड़ी सेना निकट ही विश्राम कर रही है। रात्रि में चामुण्डराय , धाँधू, कदम्बवास और ताहर के बीच मंत्रणा हुई। यह निश्चित किया गया कि जोगियों को कीर्तिसागर पर पहुँचने के पहले ही रोक दिया जाए। धाँधू और कदम्बवास ने यह दायित्व लिया। यह तय किया गया कि प्रातः होते ही जोगियों की सेना को घेर लिया जाए।
उदयसिंह भी सजग थे। उन्हें आभास था कि चामुण्डराय मार्ग में ही अवरोध पैदा करेंगे। उन्होंने अपने सैनिकों को प्रातः ही सन्नद्ध होने के लिए कहा। सैनिक महोत्सव की ओर प्रस्थान करने के लिए प्रस्तुत हो रहे थे। इसी बीच धाँधू और कदम्बवास की सेनाएँ मार्ग अवरुद्ध कर प्रतीक्षा करने लगीं। कुँवर लक्ष्मण , उदयसिंह, देवा, तालन सभी ने जोगियों का वेष धारण किया। सैनिकों में भी अधिकांश ने जोगियों की गुदड़ी पहन ली। कुँवर लक्ष्मण और उदयसिंह ने पहाड़ी पर चढ़ कर धाँधू और कदम्बवास की सेनाओं पर दृष्टि दौड़ाई। पर्व का समय निकट आ रहा था। उदयसिंह और कुँवर ने विचार किया कि क्या दूसरे मार्ग का अनुसरण कर नगर तक पहुँचा जा सकता है? धाँधू और कदम्बवास की सेनाओं ने इस तरह घेराबन्दी की थी कि बिना टकराव के महोत्सव पहुँचना सम्भव नहीं था। पर्व का समय और निकट आता देख कुँवर लक्ष्मण महारानी को दिए गए वचन का पालन सुनिश्चित करने के लिए व्यग्र हो उठे। पर कोई उपाय नहीं था। धौंसा बजते ही सेना निकल पड़ी। कुछ आगे बढ़ते ही चाहमान सैनिकों की घेराबन्दी दिखाई दी। धाँधू ने आगे बढ़ कर कहा, ‘चाहमान नरेश की आज्ञा है कि जोगी आज महोत्सव में प्रवेश न करें। आप आगे नहीं जा सकेंगे।’ धाँधू को देखते ही कुँवर आगे बढ़ गए। उन्होंने कहा, ‘हमें महोत्सव पहुँच कर महारानी का पर्व सम्पन्न कराना है। आप हमारे मार्ग में बाधक न बनें।’
‘आप जा नहीं सकेंगे। चाहमान नरेश की आज्ञा है,’ धाँधू ने उत्तर दिया।
‘चाहमान नरेश कौन होते हैं जोगियों का मार्ग अवरुद्ध करने वाले।’ कहकर कुँवर ने अपने सैनिकों को आगे बढ़ने का निर्देश दिया।, जोगी प्राण हथेली पर रखकर आगे बढ़े। दोनों ओर से तलवारें चमक उठीं। उदयसिंह, तालन, देवा सभी जोगियों के वेष में मैदान में आ गए। लगभग एक प्रहर तक भयंकर युद्ध हुआ। धाँधू और कदम्बवास अपनी सेनाओं को उत्साहित करते धूम रहे थे। धाँधू ने कुँवर पर कुन्त चला दिया। कुँवर ने अपने को बचाया, उनकी साँग लगते ही धाँधू की ढाल फट गई। साँग की औझड़ से अश्व रघुनन्दन उन्हें लेकर भागा। धाँधू को हटते देख कदम्बवास आगे बढ़े। उदयसिंह ने आगे बढ़कर उन्हें रोका। कदम्बवास ने उदयसिंह पर प्रहार किया। उदयसिंह के बेंदुल ने कन्नी काट दी। उदयसिंह ने बेंदुल को पुचकारते हुए कदम्बवास पर कुन्त से प्रहार किया। कुन्त हाथी के मस्तक पर लगा और घायल हाथी मैदान से पराड् मुख हो गया। धाँधू और कदम्बवास के हटते ही चाहमान सेना बिखर गई और जोगी सेना सहित महोत्सव की ओर बढ़ गए।
कीर्तिसागर के मैदान में भंयकर युद्ध छिड़ा था। चाहमान एवं चन्देल सेनाओं के कई योद्धा हताहत हो चुके थे। ब्रह्मजीत का सामना वीर भुगन्ता और संयमा से हो चुका था। ब्रह्मजीत आगे बढ़ रहे थे। उनके सामने ताहर आ डटे। चामुण्डराय ने अवसर देखकर चन्द्रा की शिविका को अपहृत करने का प्रयास किया। वामा वाहिनी और चन्देल सैनिक जगनायक के नेतृत्व में चामुण्डराय के सैनिकों से शिविकाओं की रक्षा कर रहे थे। युद्ध करते-करते कुछ पालकियाँ चामुण्डराय के सैनिकों ने अपने घेरे में कर लीं। महारानी यह दृश्य देखकर अत्यन्त विचलित हो उठीं। उन्होंने विश्वस्त सैनिकों का घेरा बना कर पालकियों को सुरक्षित करने के लिए कहा। जगनायक भी पूरी शक्ति के साथ सैनिकों से जूझ रहे थे। चन्द्रा की शिविका पर जैसे ही कुछ चाहमान सैनिक झपटे, जगनायक ने अपने अश्व को एड़ लगाई और चाहमान सैनिकों के बीच कूद पड़े। शिविकाओं की खींचतान होती रही। वामा वाहिनी की कुछ सदस्याएँ भी घायल हुई। इसी बीच उदयसिंह और कुँवर लक्ष्मण ने युद्ध स्थल में प्रवेश किया। शिविकाओं को उठते देख उदयसिंह उनकी ओर झपटे। उन्होंने चामुण्डराय के सैनिकों को खदेड़ कर पालकियों को पुनः महोत्सव के घेरे में लाकर रखवाया। जोगियों को देखकर महारानी की विकलता कम हुई। उदयसिंह द्वारा पालकियों को पुनः महोत्सव के घेरे में रखवाए जाने पर महारानी का विश्वास लौटा।
ब्रह्मजीत और ताहर के युद्ध को देखकर कुँवर लक्ष्मण आगे बढ़ गए। उन्होंने चाहमान सेना की ललकारा। कुँवर के बढ़ते ही चामुण्डराय आगे बढ़ आए। देवा को पालकियों की सुरक्षा का भार सौंप, उदयसिंह आगे बढ़ गए। उनका रवा कौशल देखने योग्य था। आक्रमण और बचाव का क्रम निरन्तर चलता रहा। क्रमशः उदयसिंह का पक्ष प्रबल होता जा रहा था। चामुण्डराय की सेनाएँ कीर्तिसागर से हटने लगीं। उदयसिंह घूम-घूम कर सैनिकों से कहते’, आप सेवक नहीं, हमारे बन्धु हैं। महोत्सव की प्रतिष्ठा आप के हाथ है।’ उदय सिंह की स्नेह सनी वाणी से सेना द्विगुणित उत्साह से बढ़ने लगी। कुँवर लक्ष्मण , तालन, उदयसिंह सभी ने आगे बढ़कर ब्रह्मजीत के युद्ध कौशल की प्रशंसा करते हुये उन्हें कीर्तिसागर की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित किया। धाँधू, कदम्बवास, तालन, चामुण्डराय से कुँवर लक्ष्मण , तालन, देवा, उदयसिंह का संघर्ष निरन्तर चलता रहा। यद्यपि चामुण्डराय की सेना पीछे हट रही थी पर जय-पराजय का निर्णय कठिन था। तलवारें चमकतीं, तीरों की बौछार होती पर वीर सैनिकों में उत्साह का अभाव न था। पीठ दिखाना कायरता समझी जाती थी। पीठ दिखाने वाले का सम्मान उनकी पत्नी भी नहीं करती थी। सम्मुख युद्ध में वीर गति प्राप्त करना परिवार, समाज सभी के लिए गौरव की बात होती। पीठ दिखाने पर अपमान ही नहीं, जीविका से भी हाथ धोना पड़ता। साहस, शौर्य ही उनका मूल्य निर्धारित करता। नारियाँ बात करतीं, ‘भल्ला हुआ जो मारिया बहिणि म्हारोकन्त’, इसीलिए सैनिक प्राणों की चिन्ता छोड़ अस्त्र उठाते।
चामुण्डराय और उदयसिंह दोनों अपने-अपने पक्ष को उत्साहित करने में लगे थे। दिन ढल गया था पर अस्त्रों की खनक में कोई उतार नहीं दिख रहा था। सूर्यास्त के पूर्व दोनों सेनाएँ पूरी शक्ति के साथ निर्णायक स्थिति में पहुँचना चाहती थीं। पर यह कार्य सरल नहीं था। चामुण्डराय का दबाव अवश्य कम हुआ था पर जोगियों की सेना भी विजयश्री के निकट नहीं थी। जोगियों की शक्ति का आकलंन कर चामुण्डराय ने अपनी सेना शनैः शनै पीछे हटाई। उनकी दृष्टि थी कि जोगी अधिक दिन तक महोत्सव में निवास नहीं करेंगे। इसलिये जोगियों से निर्णायक युद्ध कर अपनी शक्ति क्षीण करना, रणनीति की दृष्टि से संगत नहीं था। युद्ध करते हुए ही उसने अपनी नीति के अनुरूप कीर्तिसागर से सेना हटाई। पर शिविकाओं सहित राजपरिवार की महिलाओं ने माँ चन्द्रिका का नाम लेते कीर्ति सागर पर ही रात्रि-निवास किया। प्रातः होते-होते चाहमान सेनाएँ महोत्सव से हट गई थीं। जोगियों का उत्साह बढ़ गया था। उदयसिंह, तालन, देवा, कुँवर लक्ष्मण , ब्रह्मजीत कीर्तिसागर पर आ गए। जोगियों की सेना सुरक्षा हेतु सन्नद्ध हो गई। महारानी के साथ महिलाओं तथा चन्द्रा के साथ नगर की बालिकाओं ने स्नान किया। वे भुजरियाँ सिराने की तैयारी करने लगीं। जोगियों के अवदान से महारानी की कृतज्ञ आँखें भर आईं। नगरवासी चाहमान सेनाओं के हटते ही उत्फुल्ल हो, कीर्तिसागर की ओर दौड़ पड़े। महात्माओं की जय के उद्घोष से कीर्तिसागर गूँज उठा।
महारानी ने भुजरियाँ सिराने के लिए बालिकाओं को इंगित किया। चन्द्रा बालिकाओं के साथ कीर्तिसागर तट पर भुजरियों को दोनो में रखने लगीं। दोने सागर में तैरने लगे। नारियाँ गीत गाने लगीं। बालिकाएँ बन्धुओं को भुजरियाँ अर्पित करने लगीं। चन्द्रा जब भुजरियाँ भाई राजकुमार ब्रह्मजीत को अर्पित कर चुकी तो उसके नैन भर आए बोली, ‘माँ लहुरे वीर हर बार भुजरियों का पर्व कराते थे आज ......?’ माँ ने छोटे जोगी की ओर संकेत किया। चन्द्रा छोटे जोगी की ओर बढ़ी कि उन्होंने कुँवर की ओर संकेत करते हुए कहा,‘भुजरियों के अधिकारी बड़ो जोगी......। इन्हीं के संकल्प से पर्व सम्भव हो पाया।’ चन्द्रा भुजरियाँ कुँवर को अर्पित करने लगी तो कुँवर लक्ष्मण भावुक हो उठे। उनके मुख से निकल गया, ‘जोगी को एक भगिनी मिली। अब आजीवन उसकी सुरक्षा सबसे बड़ा धर्म है।’ चन्द्रा ने तालन, देवा को भुजरियाँ अर्पित की। उन्होंने भी उसकी सुरक्षा का व्रत लिया। जब उदयसिंह को भुजरियाँ अर्पित करने लगी तो उदयसिंह मुस्करा उठे। उनकी बतीसी खिलते ही चन्द्रा बोल उठी,‘माँ, लहुरे भैया।’ इतना कहते ही चन्द्रा को मूर्च्छा आ गई। चित्रा और देवा ने सँभाला। उदयसिंह दौड़ कर एक दोने मे जल लाए। मुख पर जल के छींटे पड़ने पर उसकी आँखें खुलीं। उदयसिंह ने माँ मल्हना के पैर छुए। महारानी उदयसिंह को अंक में भरकर रो पड़ीं।
‘बेटा, तुम्हारे बिना महोत्सव सूना हो गया है।’
‘माँ, मैं तो आपका हूँ ही, कान्यकुब्ज के कुँवर लक्ष्मण राणा सामने खड़े हैं।’ कुँवर ने भी महारानी को प्रणाम किया। चन्द्रा के उठते ही देवा, तालन ने भी महारानी को सिर झुका अभिवादन किया। कुमार ब्रह्मजीत , उदयसिंह, लक्ष्मण राणा , तालन, देवा से गले मिले।
‘कान्यकुब्जेश्वर की जय, ‘लहुरे वीर की जय’ से पूरा कीर्तिसागर निनादित हो उठा।
‘लहुरे भैया आ गए’ कहते हुए नगर के नर-नारी दौड़ पड़े। सभी में उदयसिंह को देखने की ललक थी। उदयसिंह जोगी वेष में’ जो भी सुनता, दौड़ा चला आता। उदयसिंह मुस्कराते हुए सभी का अभिवादन स्वीकारते, हाल-चाल पूछते। महाराज परमर्दिदेव को क्षण क्षण के घटनाओं की जानकारी थी। वे भी कीर्तिसागर पर आ गए। उदयसिंह ने उनका चरणस्पर्श किया। वे भावुक हो उठे। कुँवर लक्ष्मण राणा को देखकर वे प्रसन्न हुए। देवा और तालन भी महाराज से मिले।
‘बेटे, तुम्हारे साथ अन्याय हुआ है, क्षमा करना,’ कहते-कहते उनका गला भर आया।
‘भैया अब यहीं रहो’, चन्द्रा बोल पड़ी।
‘कान्यकुब्जेश्वर की कृपा से यहाँ आ सका हूँ बिना अनुमति के………..।’
‘भैया लहुरे वीर को यहाँ रहने की अनुमति दीजिए न,‘चन्द्रा ने कुँवर लक्ष्मण राणा से कहा।
‘इसके लिए महाराज से अनुमति लेनी पड़ेगी। कान्यकुब्ज भी छोटे जोगी को मुक्त करने में कष्ट का अनुभव करेगा,‘कुँवर ने हँसते हुए जोड़ा।
‘चाहमान सेनाएँ हटी हैं पर उन्होंने महोत्सव से दृष्टि नहीं घुमाई है। किसी भी क्षण वे आक्रमण कर सकते हैं,’ महारानी का स्वर उभरा।
‘बड़े भैया से भी अनुमति लेनी होगी,’ उदयसिंह बोल पड़े।
‘माण्डलिक को भी मनाऊँगा’, महाराज ने कहा।
‘महोत्सव की रक्षा का संकल्प तो बड़ो जोगी ने लिया है,’ कहकर उदयसिंह हँस पड़े।
‘क्या इसमें भी कोई संशय है?’, कुँवर ने पुष्टि की।
उत्फुल्ल वातावरण में पर्व सम्पन्न हुआ। कुँवर ने कान्यकुब्ज जाने की अनुमति चाही। सभी के नयन आर्द्र हो उठे। महाराज ने माण्डलिक को मनाने के लिए दूत भेजने की बात की। उदयसिंह ने कहा, ‘हम लोगों के जीवित रहते महोत्सव पर आँख उठाकर कोई कैसे देख सकेगा माँ? यह मातृभूमि है।’ महारानी की आँखें छलछला उठीं। महाराज भी मुँह फेर कर आँसू पोंछने लगे। युद्ध में जो वीर गति पा गए थे, उनके शवों को अग्नि दी गई। समरजीत के शव को भी लाकर अग्नि को समर्पित किया गया। सम्पूर्ण परिवेश शोक में डूब गया था। समरजीत और अभयी की जय के साथ ही कान्यकुब्ज दल ने अग्नि स्थल की परिक्रमा की। दल राजजुहार कर अपने गन्तव्य की ओर बढ़ गया।
अभयी का शव उरई पहुँचाया गया। माहिल का शरीर और मन दोनों सुन्न हो गए थे। वे बहुत कम बोलते। अभयी को अग्नि देते समय उनकी आँखों का रस सूख सा गया था। वे जिसे देखते, देखते ही रहे जाते। वाणी का स्वर लुप्त हो गया था। अभयी के साथ ही माहिल के स्वप्नों का महल ढह गया था। उनके एक ही पुत्र था जिसे वे उरई का स्वतन्त्र शासक देखना चाहते थे। पर कीर्तिसागर पर उसने वीर गति प्राप्त की। माहिल अब न रो सकते थे, न मुस्करा सकते थे। उनके बनाए व्यूह ने ही उन्हें धर दबोचा। वे सोचते रहे, ‘मुझसे चूक कहाँ हुई? वे जो भी करते रहे हैं, उन परिस्थितियों में क्या दूसरे नहीं करते? उनका स्वतन्त्र राज्य का सपना क्या नया था? वे महोत्सव में मन्त्री थे। स्वतन्त्र उरई का स्वप्न भी अब किसके लिए? केवल बात से समर नहीं जीता जा सकता! शक्तिहीन की बात कौन सुनता है? सभी तो उसे नारद की संज्ञा से अभिहित करते हैं। सूचना शक्ति है पर वह अन्तिम तो नहीं है। सूचनाओं की नाव खेने वाले में साहस तो चाहिए ही। अब वह साहस कहाँ से जुटाएँ? वनस्पर बन्धुओं को उन्होंने महोत्सव से अलग तो किया था पर वह दाँव भी असफल रहा। किसी न किसी दिन वे महोत्सव पुनः आ धमकेंगे। माहिल की अवशेष शक्ति भी छिन जाएगी। अब कौन उन पर विश्वास करेगा? ‘मैंने महोत्सव को बचाने का प्रयास ही कहाँ किया? अब परमर्दिदेव मुझ पर विश्वास करें, यह असम्भव है। पर मैं जिस कला में निषृणात हूँ उससे वे मेरे बनाए वृत्त से बाहर नहीं जा सकेंगे। पर अब मैं वृत्त बनाऊँ ही क्यों? वृत्तों में वृत्त मैं बनाता रहा। क्या इससे मुक्ति मिलेगी?’ माहिल बुदबुदाते रहे।
माहिल की दिनचर्या परिवर्तित हो गई। उन्हें भगवान महावीर की वाणी का स्मरण होने लगा। उनकी आस्था महावीर में थी पर जीवन में उनके उपदेशों को उतारने का प्रयास उन्होंने कभी नहीं किया। सत्ता के षड्यन्त्र में उलझकर रह जाने वाले माहिल अब निविड़ अन्धकार में प्रकाश की खोज कर रहे थे। कुछ दिन उन्होंने मौन धारण किया, पर मन की चंचलता की खोज में वे घने वन की ओर निकल जाते, लौटते तो उनके साथ पूर्व की भाँति कोई आखेट नहीं होता। कभी-कभी वे चीख पड़ते, पर उद्वेलन कम न होता।
कई दिन बीत गए। सावन की फुहार, लोकनर्तकों के गीत उन्हें रस नहीं दे पाते। माहिल की नींद उड़ गई। पत्नी अत्यन्त चिन्तित हो उठीं। उन्होंने अपनी ओर से भी माहिल को सामान्य स्थिति में लाने का प्रयास किया। अभयी की वीरगति से उन्होंने भी अपना इकलौता पुत्र खो दिया था। उनका मन स्वयं विचलित हो उठता। पर माहिल की उद्विग्नता उन्हें अधिक कष्टकर लगती। वही सभी को सँभालतीं। आवश्यकतानुसार कर्मियों को निर्देश देतीं। माहिल शून्य की ओर ताकते रहते।
चामुण्डराय ने अपनी सेना हटाकर उन्हें कोंच के निकट विश्राम करने के लिये निर्देशित कर दिया। कदम्बवास, चामुण्डराय , धाँधू, ताहर सभी ने विचार विमर्श किया। तय हुआ कि कान्यकुब्जेश्वर की सेनाओं की वापसी तक प्रतीक्षा की जाए। विश्राम की सूचना मिलने से सैनिकों में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई। भोजन, व्यायाम, प्रशिक्षण, विश्राम, यही दिनचर्या हो गई। सायंकाल मनोरंजन के विविध रूपों का आयोजन कर सैनिक सभी में गुदगुदी पैदा करते। चामुण्डराय के सैनिक नटों के एक समूह को पकड़ लाऐ थे। एक रात उनका ही प्रदर्शन होता रहा और सैनिक ठहाका लगाते रहे। प्रातः उन्हें छोड़ दिया गया।
जैसे कुँवर लक्ष्मण राणा , उदयसिंह सहित कान्यकुब्ज लौटे, चामुण्डराय ने निर्णायक युद्ध का मन बनाया। पर कदम्बवास ने रोक दिया। उनका विचार था कि महोत्सव पर आक्रमण होते ही कान्यकुब्ज से सहायता आ सकती हैं। इसलिए अपनी सैन्य शक्ति को सुगठित करना आवश्यक है। सैन्य बल पंजूनराय को सौंप, कदम्बवास और चामुण्डराय चाहमान नरेश से परामर्श करने चले गए।