Kanchan Mrug - 27 in Hindi Moral Stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | कंचन मृग - 27. पर्व हम कराएँगे

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कंचन मृग - 27. पर्व हम कराएँगे


27. पर्व हम कराएँगे-

महोत्सव में महाराज परमर्दिदेव प्रतिदिन स्थिति का आकलन करते,पर भुजरियों के पर्व के सम्बन्ध में कोई निर्णय नहीं कर सके। पर्व का दिन निकट आ रहा था। महारानी मल्हना का संकट बढ़ता जा रहा था। हर व्यक्ति पर्व की ही बात करता। चन्द्रा वामा वाहिनी बना, चर्चा का विषय बन गई थी। लोग व्यंग्य करते, पुरुष चूड़ियाँ पहनेंगे और नारियाँ नेतृत्व करेंगी। पर महारानी को युद्ध की विभीषिका का अनुमान था। वे जोखिम नहीं उठाना चाहती थीं। उन्हें अपनी असमर्थता पर क्षोभ हो रहा था। चन्द्रा के आ जाने पर उन्होंने कहा, ‘तुमने वामा वाहिनी बना हमें हँसी का पात्र बना दिया।’
‘कौन हँसी करता है माँ। अपनी सुरक्षा के लिए वामा वाहिनी क्या अनुचित है? हम प्राण दे सकते हैं पर पराजय स्वीकार नहीं करते। घेरेबन्दी से कभी न कभी तो निपटना होगा। क्या हम उपहार की भाँति भेंट किए जाने के लिए हैं? हमारा कोई अपना अस्तित्व नहीं है, माँ?’ महारानी की आँखें भर आईं। उन्होंने चन्द्रा को अंक में लेते हुए कहा, ‘बेटे तूने कैसे मान लिया कि तुझे भी भेंट कर दिया जाएगा। मैं अभी जीवित हूँ। अभी उदयसिंह भी जीवित हैं। महाराज की कशा में बल है।’
ब्रह्मजीत ने भुजरियों के पर्व को न मनाने का परामर्श दिया था। उनका कहना था कि अनायास युद्ध का मोर्चा खोलना रणनीति के नियमों के विरुद्ध है। हमें पूरी तैयारी के बाद ही युद्ध में उतरना चाहिए। महारानी ने अभयी और समरजीत को बुलवा लिया। दोनों ने पर्व कराने का आश्वासन दिया, पर इससे महारानी आश्वस्त नहीं हो पा रहीं थीं। दोनों ने कभी किसी सैन्य बल का नेतृत्व नहीं किया था। समरजीत तो अभी बच्चा ही था।
कान्यकुब्ज से निकलते ही उदयसिंह को ज्ञात हो गया कि पुरुषोत्तम और सलक्षण का अन्त हो गया है। वे बहुत दुःखी हुए। उन्हें इस बात का कष्ट था कि उन्हें इसकी सूचना तक नहीं दी गई। महोत्सव की सेना ने पुरुषोत्तम का साथ नहीं दिया। ब्रह्मजीत , अभयी, समरजीत किसी ने भी शिशिरगढ़ की कोई सहायता नहीं की। उन्हें परमर्दिदेव पर भी क्रोध आ रहा था। पर अब सब कुछ व्यर्थ था। वह मातृभूमि का अपमान नहीं देख सकते थे। महारानी और चन्द्रा के ढरकते अश्रु उन्हें निछावर होने के लिए बाध्य करते। उन्होंने दल को शिशिरढ़ की ओर मोड़ दिया।
शिशिरगढ़ पहुँचते ही सैन्य दल रुक गया। कुँवर लक्ष्मण , उदयसिंह, तालन सभी अपनी सवारियों से उतर पड़े। शिशिरगढ़ के ध्वस्त भवन, पण्यशालाएँ, लूटे हुए गाँव, पुरुषोत्तम की अनुपस्थिति को व्यंजित करते। सभी की आँखें भरी हुई थीं। उदयसिंह ने हल जोतते हुए व्यक्ति से जानकारी ली। पुरुषोत्तम और सलक्षण की समाधियाँ अगल-बगल ही थीं। सभी ने समाधियों की परिक्रमा की। उदयसिंह बुँबकार छोड़ कर रो पड़े। उसी समय एक व्यक्ति दौड़ता हुआ आया। उसने उदयसिंह को पहचाना। उन्हें एक पत्र दिया। पत्र पुरुषोत्तम ने लिखवाया था।
‘ प्रिय भाई,
मैं जा रहा हूँ। मुझे विश्वास है कि तुम समाधि तक अवश्य आओगे। शिशिरगढ़ के बाद चाहमान महोत्सव घेरेगे। तुम्हारे रहते यदि महोत्सव का पतन हो गया तो जीवन व्यर्थ है। इसी लिये शिशिरगढ़ की पीड़ा भूल कर महोत्सव बचाओ। तुम्हारा भाई पुरुषोत्तम ।’ सभी रो पड़े। सैयद तालन ने सबको धैर्य बँधाया। महोत्सव की ओर प्रस्थान करने के लिए समाधि स्थल से सभी बाहर आए। समाधि स्थल पर भीड़ देखकर आसपास के लोग इकट्ठे हो गए थे। उदयसिंह ने लोगों से घटना के सम्बन्ध में विस्तार से पूछा। लोगों ने यथा शक्ति उत्तर दिया। सभी दुःखी थे। पुरुषोत्तम के शौर्य की प्रशंसा कर रहे थे। पर अब ध्वस्त शिशिरगढ़ अपनी कहानी कहने में सक्षम था।
लोग आगे बढ़े। भीड़ कुछ दूर तक आई। इसके बाद अपने अपने कार्यो में व्यस्त हो गई। उदयसिंह एवं देवा ने सुझाव दिया कि हम लोग वेष बदल कर चलें। सभी ने जोगियों का वेष धारण किया। बहुत से सैनिकों को भी जोगी वेष धारण करवा दिया गया। ऐसा लगने लगा कि यह सैन्य दल नहीं जोगियों का जमावड़ा है। कुँवर लक्ष्मण ने भी वेष बदला। दल आगे बढ़ा और महोत्सव से कुछ पहले ही जल की उपलब्धता देख कर रुक गया। शिविर लग गए और दल को विश्राम करने के लिए निर्देशित कर दिया गया। उदयसिंह और देवा आगे बढ़कर चाहमान सेना का अनुमान लगाने लगे। महोत्सव के चारों ओर चाहमान झण्डों की पंक्तियाँ ही दिखाई पड़तीं। उन्हें लगा कि एक विशाल दाहिनी से महोत्सव घिरा है। उदयसिंह और देवा अपने दल में लौट आए। सूर्यास्त हो रहा था। उदयसिंह, देवा, तालन, कुँवर लक्ष्मण राणा के शिविर में पहुँच गए। विचार- विमर्श हुआ। यह तय किया गया कि सेना को यहीं छोड़ दिया जाए। जोगी वेष में ही उदयसिंह, देवा, तालन, कुँवर लक्ष्मण , महोत्सव में प्रवेश कर स्थिति की जानकारी लें। उसके बाद रणनीति तय की जाए।
प्रातः सूर्योदय होने तक सभी तैयार हो गए। कुँवर लक्ष्मण ने एकतारा, तालन ने करताल, देवा ने खँझड़ी तथा उदयसिंह ने बाँसुरी ले ली। बलाध्यक्ष को सेना सौंप कर सभी महोत्सव की ओर चल पड़े। बाहर से चाहमान की सैन्य शक्ति का निरीक्षण किया। आश्वस्त करते चारों जोगी कीर्ति सागर पर पहुँचे। जल पिया। कीर्ति सागर के आसपास की सेनाओं को देखा। इसी बीच चामुण्डराय से भेंट हो गई। उन्होंने कहा, ‘इस समय महोत्सव में भ्रमण करना प्रतिबन्धित है। इसके लिए महाराज से अनुमति लेनी पड़ेगी।’ इतना सुनते ही कुँवर क्रुद्ध हो उठे, ‘वैरागियों पर किसी का नियंत्रण नहीं होता, आप को इसका पता होना चाहिए। हम अपनी इच्छानुसार भ्रमण करते हैं। अपने महाराज से बता देना।’ वैरागियों के ओज को देखते हुए चामुण्डराय ने इन्हें न छेड़ना ही उचित समझा। चारों महोत्सव में प्रवेश करने के लिए आगे बढ़ गए। प्रतोली द्वार पर द्वारपालों ने द्वार नहीं खोला। बलाध्यक्ष के आदेश पर ही द्वार खोला जा सकता था। कुँवर ने द्वारपालों को डाँटा, ‘हम कोई गुप्तचर नहीं हैं। देश -देश विचरण करना हमारा काम है। कान्यकुब्जेश्वर के यहाँ वनस्पर भाइयों ने कहा महोत्सव अवश्य जाइएगा। इसीलिए इधर चले आए। नगर का दर्शन अवश्य करेंगे। अपने बलाध्यक्ष से आज्ञा ले लो।’ द्वारपालों में से एक अन्दर आज्ञा लेने चला गया। तालन ने करताल से स्वर निकाला। देवा की खँझड़ी तथा कुँवर का एकतारा भी बोल उठा। उदयसिंह ने बाँसुरी से मोहक ध्वनि निकाली और गीत गाने लगे। संगीत का समवेत स्वर उभरा। द्वारपालों ने भी ताल देना प्रारम्भ कर दिया। भीड़ इकट्ठा होने लगी। द्वारपालों की चिन्ता बढ़ी। तब तक बलाध्यक्ष का आदेश मिल गया और चारों जोगी द्वार के अन्दर हो गये।
अन्दर पहुँचकर जोगियों ने संगीत का जो स्वर उभारा, उससे बाल-वृद्ध सभी की हृदतंत्री झनझना उठी। कुछ कहते महाराज आप ऐसे समय आए जब महोत्सव पर संकट के बादल छाए हुए हैं। हमारी हँसी भी चामुण्डराय ने छीन ली है। सभी जोगियों की सधी देह को देखते। उनके रूप से प्रभावित हो पूछते, ‘महाराज आपका इतना मोहक रूप आप जोगी क्यों बन गए?’ ‘क्या योग केवल कुरूपों के लिए है?’ देवा ने हँसते हुए कहा। छोटे जोगी की मोहक तान लोगों में थिरकन पैदा करने लगी। चारों जोगी बजाते-गाते आगे बढ़े। नर-नारी इनके रूप और संगीत पर मुग्ध हो देखते रह जाते। घर-घर चर्चा होने लगी। बहुत बड़े जोगी महोत्सव आये हैं। हो सकता हैं उनके कारण हमारा संकट टल जाय। जोगी जिधर जाते लोगों की भीड़ साथ - साथ चलती। कुएँ पर कुछ पनिहारिनें पानी निकाल रही थीं। जोगी गाते बजाते कुँए तक पहुँच गए। दिन चढ़ आया था। एक पनिहारिन ने जोगियों को पानी पिलाया। पानी पिलाते समय पनिहारिन ने छोटे जोगी के हाव-भाव को देखा। उसने दूसरों से कहा, ‘छोटा जोगी लहुरे वीर जैसा लगता हैं।’ दूसरी पनिहारिनों ने कहा, ‘लहुरे वीर जोगी क्यों बनेंगे?’
इसी बीच अन्तःपुर में जोगियों के आगमन का समाचार पहुँचा। महारानी मल्हना ने तुरन्त चित्रा को जोगियों को बुलाने के लिए भेजा। चित्रा दौड़ती हुई आ गई। उसने हाथ जोड़ कर कहा,’ ‘महारानी आप का दर्शन करना चाहती हैं।’
‘हमने सुना है महारानी सद्धर्म की साधिका हैं। हम महारानी से अवश्य मिलेंगे।’ कुँवर ने कहते हुए एक तारा का स्वर तेज कर दिया। उसी के साथ करताल और खँझड़ी का भी स्वर उभरा। छोटा जोगी बाँसुरी से स्वर निकालते हुए थिरक उठा। चित्रा भी मुग्ध हो जोगियों को देखती रही। उसकी दृष्टि छोटे जोगी पर टिक जाती। उसके थिरकन में जो लय थी वह कुछ पहचानी सी लगती। पर वह किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकी। जोगियों की स्वीकृति की सूचना देने वह महारानी के पास पहुँच गई। चन्द्रा भी आ गई। तब तक जोगी भी गाते बजाते अन्तःपुर के द्वार तक पहुँच गए। महारानी ने देखते ही जोगियों को प्रणाम किया। कुँवर ने हाथ उठाकर आशीष दिया। जोगियों की देहयष्टि देखकर महारानी सकते में आ गई। उन्हें लगा कि कहीं ये जोगी चाहमान योद्धा न हों। महारानी का संदेह जोगी भी भाँप गए। कुँवर ने महारानी से कहा, ‘सद्धर्म की साधिके, शंका मत कर, हम पृथ्वीराज के गुप्तचर नहीं है। गुरु गोरखनाथ के शिष्य हैं। देश भ्रमण को निकले हैं। कान्यकुब्ज में उदयसिंह से महोत्सव की प्रशंसा सुनी तो इधर चले आए।’
उदयसिंह का नाम सुनते ही महारानी की आँखों में अश्रु झलक आए। चन्द्रा बोल पड़ी, ‘‘वीरजू ने और कुछ नहीं कहा था? ‘वे महोत्सव की प्रशंसा करते अघाते नही थे’ देवा ने जोड़ा। ‘वे हमें प्राण दान दे चुके हैं,’ महारानी ने कहा। ‘वीरजू को यह पता चल जाता तो वे दौड़ कर यहाँ आते,’ चन्द्रा ने आत्मविश्वास के साथ कहा। चित्रा ने दौड़कर आसन्दी लगा दी। चारों जोगी बैठ गए। तालन ने हाथ उठाकर करताल बजाया। एकतारा और खँझड़ी के साथ उदयसिंह की बाँसुरी भी सुर मिलाने लगी। छोटे जोगी के पग थिरकने लगे। सभी संगीत की स्वर लहरियों में खो गए। सम्पूर्ण अन्तःपुर संगीतमय हो गया। जोगियों के स्वर, लय और ताल को देखसुन सभी मुग्ध थे। सेवक, सेविकाएँ, भृत्य जो जहाँ था, वहीं खड़ा रह गया। जोगियों द्वारा गायन-वादन का कार्य प्रायः किया जाता है पर इन जोगियों का संगीत अनुपम था।
क्षणभर को लोग ध्यानावस्थित हो गए। संगीत के अवरोह के साथ ही सभी की चेतना लौटी। उदयसिंह ने अपना उष्णीष इस तरह बाँधा था कि उन्हें लोग पहचान न सकें। अपनी वाणी में भी थोड़ा अन्तर कर लियाथा। पर भूल वश वह अँगूठी उँगली में पहने रह गए थे जिसे महारानी ने विवाह के अवसर पर पहनाया था। चन्द्रा की दृष्टि बार-बार छोटे जोगी की उँगलियों पर ठहर जाती। वह बोल पड़ी, ‘‘महात्मन्, आप की अँगूठी ठीक वैसी ही है जैसी माँ ने वीरजू को पहनाई थी।’’ उदयसिंह को भूल की प्रतीति हुई। वे बोल पड़े, ‘हमने तो कान्यकुब्जेश्वर के यहाँ भिक्षाटन एवं संगीत का कार्यक्रम किया था। उदयसिंह हम लोगों से अधिक प्रभावित हुए।’
‘उन्होंने ही यह अँगूठी छोटे जोगी के हाथ में पहना दी।’ कुँवर लक्ष्मण राणा ने तत्काल जोड़ा। ‘उन्होंने हमारी भी बड़ी सेवा की।’ तालन ने भी जोड़ दिया।
‘छोटे जोगी के ही कदकाठी, बिल्कुल ऐसे ही थे लहुरे वीर,’ महारानी रो पड़ीं। ‘चामुण्डराय ने महोत्सव घेर लिया है। इस संकट से लहुरे वीर ही उबार सकते थे। हे धरती माँ! पाताल से लहुरे वीर को प्रकट करो।’
जोगियों की भी आँखें भर आईं। चन्द्रा ने माँ को सचेत किया, ‘माँ जोगी भी विह्वल हो रहें हैं।’
‘माँ, क्या आपने उदयसिंह को सूचित नहीं किया?’ कुँवर ने पूछा।
‘महाराज ने उन्हें निष्कासन दे दिया था। अब संकट के समय सूचना भेजने में उन्हें संकोच हो रहा है। हमारे सूचना तन्त्र पर भी चामुण्डराय निरंतर चौकसी रख रहे हैं।’
इसी बीच एक गौरैया का जोड़ा उड़कर आम की डाल पर बैठा। दूसरी ओर से एक बाज आ गया। जैसे ही बाज गौरेया पर झपटा। एक सैंनिक से धनुश तीर ले कुँवर ने बाज को धराशायी कर दिया। बाज के गिरते ही जोगियों के पास इकट्ठे लोगों में खुशी का क्षण लहक उठा। पर यह क्षण अत्यन्त अल्प था।
‘अब महोत्सव के पक्षी भी रक्षित नहीं हैं महात्मन्। यदि कान्यकुब्ज जाइएगा तो लहुरे वीर से कहिएगा कि नगर के पशु-पक्षीं भी......’ कहते-कहते महारानी पुनः रो पड़ीं। चारों जोगियों की व्याकुलता बढ़ गई। कुँवर ने उदयसिंह को संकेत किया कि अपना परिचय दे दिया जाए पर उदयसिंह ने ओठों पर उँगली रख दी। कुँवर सँभल गए।
‘कल भुजरियों का पर्व है, यह महोत्सव ही आन से जुड़ गया है। बालिकाएँ मौत से भी जूझने के लिए तैयार हैं’, महारानी कह उठीं।
‘महात्मन्, क्या यह नगर के लिए लज्जा की बात नहीं है कि हम कीर्ति सागर तक पर्व मनाने न जा सकें। जब युद्ध अनिवार्य है तब पर्व के अवसर पर ही क्यों न बिगुल बजा दिया जाए?’ चन्द्रा बोल पड़ी।
‘पर यदि बालिकाएँ अपहृत हो गईं......?’, महारानी से न रहा गया।
‘सद्धर्म की साधिके ! हम जोगी हैं। युद्ध से हमारा कोई लेना देना नहीं है किन्तु बालिकाओं के अपहृत होने की सम्भावना देखकर हम यह निर्णय करते हैं कि पर्व हम कराएँगे। हमारे रहते चामुण्डराय बालिकाओं की ओर दृष्टि नहीं उठा सकेगा’, कुँवर ने भावुक होकर कहा। सभी जोगियों ने इसका समर्थन किया। पर महारानी की शंका नहीं गई। वे कह पड़ीं, ‘महात्सन्, आप युद्ध कला में निष्णात नहीं हैं, योग और युद्ध का सम्बन्ध? चाहमान की विशाल सेना चामुण्डराय के नेतृत्व में नगर को घेरे हुए है। आप पर कोई विपत्ति आ गई तो हमारा धर्म भी.....।’‘हमने आप को माँ कह दिया है। यह अनायास नहीं हुआ। गुरु गोरक्षनाथ का यह अदृश्य संकेत है। विपत्ति में भागना हम जोगियों का धर्म नहीं है। चाहमान क्या? सम्पूर्ण पृथ्वी एक ओर हो जाए तब भी जोगी मैदान नहीं छोड़ता।’ कुँवर कह गए। ‘आप चामुण्डराय की चिन्ता न करें। वे हमारे समक्ष एक क्षण भी टिक नहीं सकेंगे। ’ छोटे जोगी से न रहा गया।
‘हमारे गुरु भाई सच कहते है माँ, आप सन्देह न करें,’ देवा भी बोल पड़े। तालन ने सिर हिला करताल की ध्वनि से स्वीकृति दी। पर महारानी अब भी विश्वास नहीं कर पा रहीं थी। उन्होंने जोगियों के कथन को गम्भीरता से नहीं लिया। उनकी आँखों में शंका के भाव पढ़ते ही चित्रा बोल पड़ी, ‘माँ महात्माओं पर अविश्वास का कोई कारण नहीं है। ये त्रिकालदर्शी योगी सक्षम हैं।’
‘पर युद्ध और योग साधना......’ महारानी के इतना कहते ही कुँवर लक्ष्मण उत्तेजित हो उठे, ‘सद्धर्म की साधिके! यदि हम कल का पर्व न करा सके तो गुरु गोरक्ष नाथ हमारी सम्पूर्ण साधना नष्ट कर दें।’
‘महात्मन्’, कह कर महारानी स्तुति करने लगीं, ‘हमें विश्वास हो गया कि भगवान ने आपको इसी हेतु भेजा है। उन्होंने हमारी प्रार्थना सुन ली।’ महारानी ने चित्रा से जोगियों के लिए भोजन की व्यवस्था करने के लिए कहा, पर कुँवर ने रोक दिया। उन्होंने कहा, ‘हम केवल जल ग्रहण करेंगे। भोजन हमारा एक ही समय होता है। चन्द्रा और चित्रा ने जल की व्यवस्था की। जोगियों ने जल ग्रहण किया।
‘प्रातः हम पर्व सम्पन्न कराने के लिए उपस्थित होंगे’, कहकर जोगी लौट पड़े।
महारानी अलिन्द में आ गई थीं, उसी समय माहिल आ गए। उन्होंने महारानी से कहा कि , ‘चाहमान नरेश ने सन्देश भिजवाया है कि हम अधिक समय नहीं दे सकते। यदि हमारी माँग के अनुरूप कोई निर्णय नहीं हुआ तो महोत्सव को धूल में मिला देंगे। महाराज कोई निर्णय नहीं कर पा रहे हैं। आप उनकी सहायता करें।’ ‘क्या आप चाहते हैं कि चन्द्रा की शिविका दिल्ली भेज दी जाए?, खर्जूर वाहक की बैठक, गोपाद्रि का राज्य उन्हें सौंप दिया जाए। महोत्सव की सम्पत्ति उन्हें देकर लोगों को दास बना दिया जाए। हम लड़ेंगे, अन्तिम क्षण तक लड़ेंगे? दास-दासी बनना हमें स्वीकार्य नहीं है।’
‘क्या यही चाहमान नरेश से निवेदित किया जाए?’
‘कर दीजिए।’
माहिल दो डग ही आगे बढ़े होंगे कि महारानी ने कहा, ‘रुको।’ माहिल रुक गए।
‘चाहमान नरेश से कहो पर्व के सप्ताह भर बाद हम उत्तर देंगे। आप इतना भी प्रभाव नहीं रखते।’
‘क्यों नहीं?, हमारा सम्पर्क है। हम उन्हें सहमत कर लेंगे किन्तु एक दिन आप को निर्णय लेना ही पड़ेगा।’
‘यथा समय निर्णय लिया जाएगा।’ महारानी के इतना कहते ही माहिल चल पड़े। महारानी कल के पर्व की तैयारियों में व्यस्त हो गई। उन्होंने समरजीत और अभयी को बुलाकर पर्व के अवसर पर आवश्यक प्रबन्ध करने की योजना बनाई। दोनों ने सैन्यबल को सजग किया।
माहिल को जोगियों के संकल्प की जानकारी हुई, समरजीत, अभयी के प्रयत्नों की भी। वे अभयी के पास पहुँच गए। अभयी ने पिता का चरण स्पर्श किया। वे आसन्दी पर बैठे, अभयी भी निकट ही बैठ गए।
‘मैं चाहता हूँ कि तुम पर्व में अगुणई न करो।’
‘क्यों पिता जी?’
‘क्यों का उत्तर अभी न पूछो।’
‘पर मैं संकल्प कर चुका हूँ।’,
‘संकल्प भीष्म पितामह ने लिया था। उसी संकल्प के नाते वे अपमानित हुए।’
‘मैंने समझा नहीं पिता जी।’
‘भीष्म ने हस्तिनापुर की रक्षा का व्रत लिया था, वे बार-बार सुयोधन द्वारा अपमानित किए गए। न तो वे कौरव कुल को ही अनुशासित कर सके और न राजकुल की रक्षा ही हो सकी। सत्ता हाथ से निकल जाने पर अपमानित होना ही पड़ता है।’
‘पर मैं अपने संकल्प से पीछे नहीं हट सकूँगा। मैंने वचन दिया है।’
‘वचन देना और विस्मरण कर जाना राजनीति में चलता है।’
‘पर मैं राजनीति नहीं, वचन का पालन करना चाहता हूँ।’
‘मेरी भी आकांक्षा है बेटे, तुम्हारा राजतिलक हो पाता।’
‘पर मैं राजतिलक के लिए किसी के साथ घात नहीं कर सकता, पिता जी। हमारे कुछ आदर्श हैं। किसी स्वार्थ के लिए आदर्शों को तिलांजलि देना सम्भव नहीं है।’
‘मैंने कब कहा कि तुम पर्व में सम्मिलित न हो? मै केवल इतना चाहता हूँ कि तुम सुरक्षित रहो।’
‘सभी सुरक्षित रहेंगे तभी मैं सुरक्षित रह पाऊँगा। अपनी सुरक्षा के लिए दूसरों को बलिदान करा दूँ, यह सम्भव नहीं है। इस धरती का मान रहेगा। तभी मैं भी......।’
‘अभी समय है विचार कर लो।’ कह कर माहिल उठ पड़े। उनके पग लड़खड़ा रहे थे।
अभयी ने बलाध्यक्ष के साथ बैठकर विचार विमर्श किया। कंचुकी से भी बात की, उन्हें सजग किया। कंचुकी ने अन्तःपुर की सुरक्षा की जानकारी दी।