Laga Chunari me Daag - 11 in Hindi Women Focused by Saroj Verma books and stories PDF | लागा चुनरी में दाग़--भाग(११)

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लागा चुनरी में दाग़--भाग(११)

दूसरे दिन शाम के वक्त मैं फिर से छत पर पहुँचा,मैं वहाँ बैठकर किताब पढ़ने लगा,तभी थोड़ी देर के बाद वो अपनी छत पर आकर मुझसे बोली...
"कैंसे हैं जनाब!",
मैं ने अपना चेहरा किताब से हटाया और उसकी ओर देखकर बोला...
"जी! बिल्कुल दुरुस्त हूँ,आप सुनाइए कि कैंसीं हैं",
"जी! अल्लाह के फ़ज़्ल से मैं भी ठीक हूँ",वो बोली...
"अपना नाम नहीं बताया आपने",मैंने उससे कहा...
"जी! महज़बीन...महज़बीन नाम है मेरा और आपका",वो बोली...
"जी! नाचीज़ को शौकत कहते हैं",मैंने उससे कहा....
और उस दिन के बाद हम दोनों की मुलाकातों का सिलसिला बढ़ने लगा,वो शाम को छत पर आती तो अपने दुपट्टे में छुपाकर कुछ ना कुछ मेरे खाने के लिए जरूर लेकर आती थी,मैं खाने का शौकीन था और वो खाना बहुत अच्छा बनाती थी,गलौटी कबाब तो इतने अच्छे बनाती थी कि मुँह में रखते ही घुल जाते थे,उसने मुझसे मेरी पसंद भी पूछी थी कि मुझे खाने में क्या क्या पसंद है,कभी कभी तो वो मेरी पसंद की चींजे भी बनाकर छत पर लाया करती थी, बातों बातों में उसे पता चला कि मैं शायरी कहता हूँ तो वो कभी कभी मुझसे शायरियाँ कहने को कहती और मैं उसे अच्छे अच्छे शेर सुनाया करता,हमारी मुलाकातें अब बढ़ने लगीं थीं,फिर धीरे धीरे उन मुलाकातों ने इश्क़ का रुप ले लिया और मैं उसे चाहने लगा,लेकिन दिल के जज्बात जुबान पर आने से डरते थे और मैं उससे अपने दिल की बात अभी तक नहीं कह पाया था,शायद वो भी मुझे पसंद करती थी लेकिन वो भी कहने से डर रही थी,लड़की जो ठहरी,अक्सर इश्क़ के मामले में लड़कियांँ पहल नहीं किया करतीं,वैसे तो वो बहुत खुश नजर आती थी लेकिन कभी कभी उसकी आँखों में मुझे एक अजीब सी मायूसी और लाचारी दिख जाया करती थी,मैं उससे कुछ पूछता तो वो कोई ना कोई बहाना बनाकर टाल जाती थी....
मैं उसके हुस्न में डूब रहा था,वो मेरे इश्क़ में सँवर रही थी,मैं उस दिन उसे अपने दिल की बात बताने वाला था और मैंने उसके लिए शायरी से भरा एक प्यार भरा ख़त लिखा,लेकिन शायद हमारा एक हो जाना जिन्दगी को मंजूर ना था,वो शाम को छत पर आई और फूट फूटकर रोने लगी,मैंने उससे उसके रोने की वजह पूछी तो वो बोली....
"जिनके यहाँ मैं रहती हूँ वो हमारे दूर के रिश्तेदार हैं,वे मेरे चचाजान हैं और उन्होंने कई बार मेरे साथ बदसलूकी करने की कोशिश है,कल तो हद ही हो गई उन्होंने कल मुझे कमरे में दबोच लिया था,वो तो खुदा का शुकर था उस समय अम्मी ने मुझे आवाज़ लगा दी और मैं उनके चंगुल से निकल गई",
"क्या ये बात तुमने अपनी अम्मी अब्बू से बताई",मैंने पूछा..
"जी! नहीं! मुझे रुसवाई से डर लगता है",वो बोली...
"इसका मतलब है कि तुम बड़ी बेअक्ल हो,ऐसी बातें कम से कम अपने वालिदैन से तो कहनी चाहिए,नहीं तो वो नीच हमेशा तुम्हारा फायदा उठाता रहेगा",मैंने उससे कहा....
"मैं अपने अम्मी अब्बू से सब बता तो दूँ लेकिन फिर हम लोगों के रहने का ठिकाना छिन जाएगा,वो इन्सान उसी वक्त हम सभी को अपने घर से बाहर निकाल देगा,फिर हम सभी कहाँ जाऐगें",महज़बीन बोली....
"तो क्या तुम उस इन्सान की बतमीजियाँ यूँ ही बरदाश्त करती रहोगी?",मैंने उससे कहा...
"मेरे पास इसके सिवाय और कोई रास्ता भी तो नहीं है",वो बोली...
"तो फिर मरो,यहाँ मुझसे मिलने मत आया करो और ना ही मुझसे बात किया करो"
और ऐसा कहकर मैं छत से नीचे चला आया,जब मैं नीचे पहुँचा तो मुझे लगा कि मैंने उसे कुछ ज्यादा ही बोल दिया, मुझे उससे ऐसा नहीं कहना चाहिए,आखिर उसने मुझे अपना हमदर्द समझकर ही तो उस बात का राजदार बनाया था और मैंने उसे खरीखोटी सुनाकर उसका दिल तोड़ दिया,जो ख़त मैंने उसके लिए लिखा था वो कुर्ते की जेब में वैसा का वैसा ही धरा रह गया, फिर दूसरे दिन जब मैं छत पर गया तो महज़बीन छत पर नहीं आई,शायद वो मुझसे ख़फा हो गई थी, इसके बाद फिर वो कभी छत पर नहीं आई,मैं फिर भी छत पर हर शाम ये सोचकर जाया करता था कि भला वो कब तक मुझसे ख़फा रहेगी,एक ना एक दिन तो वो मुझसे मिलने छत पर आऐगी ही.....
उसके घर की छत और मेरे घर की छत आपस में जुड़ी हुई थी,हम दोनों आसानी से छत की दीवार फाँदकर एक दूसरे की छत पर आ जा सकते थे,जब वो मुझसे मिलने आया करती थी तो छत की दीवार फाँदकर आया करती थी,क्योंकि छत की दीवार ज्यादा ऊँची नहीं थी और उस दिन मैं छत पर बैठा उसका ही इन्तजार कर रहा था, वो आई और मुझे आवाज़ देकर बोली....
"शौकत! मैंने उसका खून कर दिया",
मैंने देखा तो उसके हाथ में खून से सना चाकू था,उसके कपड़ो पर खून के छींटे थे,उसके बाल बिखरे थे और माथे पर पसीना झलक रहा था,उसकी हालत देखकर मैंने उससे पूछा....
"तुमने किसका खून कर दिया महज़बीन!",
"चचाजान का,वो मेरी आबरू के साथ खेलना चाहते थे",वो बोली...
"उस वक्त घर के और लोग कहाँ थे",मैंने उससे पूछा...
"अब्बू और चचाजान मस्जिद गए थे,चचीजान,अम्मी और चचीजान के बच्चे किसी रिश्तेदार के यहाँ गए थे,मैं घर पर अकेली थी,उसी वक्त चचाजान घर आ गए और मेरे साथ बदसलूकी करने की कोशिश करने लगे,मेरे हाथ चाकू लग और मैंने उनका कत्ल कर दिया", वो सब एक साँस में कह गई....
"चलो! मैं चलकर देखता हूँ कि क्या हुआ था",
और ऐसा कहकर मैं उसके साथ नीचे गया,वहाँ जाकर मैंने देखा कि वो इन्सान खून से लथपथ होकर जमीन पर पड़ा था,अभी भी उसकी साँसें चल रहीं थीं,उसके बचने की अभी भी गुँजाइश बची थी,इसलिए मैंने महज़बीन के हाथों से चाकू छीनकर उसके सीने पर फिर से दो चार वार कर दिए,अब वो बिलकुल से ठण्डा पड़ चुका था,इसके बाद मैंने महज़बीन से कपड़े बदलने और मुँह धोने को कहा,फिर उसने वैसा ही किया,उसने कपड़े बदले ही थे कि तभी उसके घरवाले आ गए और उनलोगों ने मुझे वो चाकू हाथ में लिए हुए देख लिया, इसके बाद उनलोगों ने पुलिस बुलाई और मुझे खून के जुर्म में जेल भेज दिया गया,मैंने पुलिस से कहा कि मुझे रुपए चाहिए थे इसलिए मैंने रफ़ीक साहब का कत्ल कर दिया,मुझे पहले से पता था कि घर में कोई नहीं है और मैं उस घर में चोरी करने के इरादे से घुस गया,लेकिन जब रफ़ीक साहब घर लौट आए तो मजबूरी में मैंने उनका कत्ल कर दिया.....
इसके बाद रफ़ीक साहब के खून के जुर्म में मुझे सजा हुई और इस सदमे को मेरी फूफूजान बरदाश्त नहीं कर पाईं और उनका भी इन्तकाल हो गया,मेरे जेल जाने पर महज़बीन बहुत रोई लेकिन मैंने उसे अपनी कसम देकर चुप करा दिया था कि अगर तुमने किसी से कुछ कहा तो मेरा मरा मुँह देखोगी, मैं उससे मौहब्बत करता था इसलिए खुद को उस पर कुर्बान कर दिया,मैं पाँच साल तक जेल में रहा फिर मैं एक साथी की मदद से जेल से भाग निकला,वो साथी मुझे पप्पू गोम्स के पास ले गया और मैं फिर पप्पू गोम्स के साथ काम करने लगा.....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....