किस्से वीर बुंदेलों के -राजधर्म
(वीर सिंह देव आख्यान)
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तत्समय एक अन्य स्थिति यह थी कि बड़ौनी से 6 कोस की दूरी पर, सम्राट अशोक, रूद्रसेन वाकाटक एवं समुद्रगुप्त के कालों में उत्तर दक्षिण की सुगम यात्रा के लिए, इस वन क्षेत्र के पूर्व उत्तर सीमांत के निकट, एक प्राचीन राजमार्ग स्थापित था, इसी राजमार्ग पर सम्राट अशोक का एक शिलालेख (गुजर्रा), तथा राजा टोड़रमल का शिलापट्ट (दरियापुर) भी स्थित हैं। इस राजमार्ग के दोनों ओर, थोड़ी-थोड़ी दूरी पर ग्रामीण बसाहट थी, (जो आज भी है) ।
इसी मार्ग की नदियों पर, दो जगह, अस्थाई निर्गम पुल बनाकर, आवागमन के समय, सेनायें ग्रामीण बसाहटों की लूटपाट कर, उन्हें उजाड़़ देते थे। इस कारण भी यह क्षेत्र समृद्ध या सुव्यवस्थित नहीं था।
जीवनयापन के समुचित साधनों के अभाव तथा सेनाओं की उखाड़-पछाड़ के कारण, यहाँ के निवासियों की जीवनशैली में छुपकर रहना, छुपे रहकर आक्रमण करना तथा यात्रा समूहों को लूटना इत्यादि आचरणगत तथा वनसंपदा उपार्जन-दोहन व्यवहारगत सम्मिलित थे।
यह वह समय था, जब समूचे भारतवर्ष पर, मुगल-अफगान-तुर्क आताताईयों के बर्बर आक्रमण निरंतर हो रहे थे। एकछत्र साम्राज्य स्थापना के लिए, संपूर्ण भारत पददलित किया जा रहा था। गांव-नगर लूटे-जलाये जाते थे। मंदिर, धर्मस्थल तोड़े नष्ट किए जा रहे थे। भय और आतंक वायु पर सवार था।
मुगलों की राजधानी आगरा से दक्षिण भारत जाने का प्रमुख, प्रतिरोध से सुरक्षित मार्ग होने के कारण, विशाल, बर्बर मुगलसेना के बारंबार आवागमन में रौंदे जाने से त्रस्त, भारतवर्ष का यह मध्यक्षेत्र त्राहि त्राहि कर रहा था।
मुगल बादशाह को परास्त कर, भारत की सल्तनत हथियाने वाले शेरशाह को कालिंजर युद्ध में मृत्यु देने वाले महाराजा मधुकर शाह की मुगल संधि ने, बुंदेलखण्ड की राजधानी ओरछा को सुरक्षित कर दिया था। परंतु मुगल-अफगान-तुर्क सेनाओं के मार्ग में पड़ने वाले ग्राम, नागरिक अथवा कृषिक्षेत्र, भयावह उत्पीड़न एवं नरसंहार का सामना करने पर विवश थे। बड़ौनी नगरी, इस मुगल विजयपथ से किंचित हटकर, दक्षिणी सिरे पर, पहाड़ों के सघन छलावरण में स्थित होकर बहुत कुछ सुरक्षित थी।
महान महत्वाकांक्षी बृसिंगदेव ने बड़ौनी जागीरदार बनते ही, सर्वप्रथम आंतरिक संकटों का निवारण करते हुए, ठग-बटमारों से क्षेत्र को मुक्त करके, उन्हें एक सुनिश्चित विधान के अंतर्गत शासित किया। विधान को अस्वीकार करने वाले समूहों को उनके चौधरी, मुखिया, जागीरदार समेत, दूर सिंध नदी के पार, चर्मन्यवती सरित (चंबल) के बीहड़ क्षेत्र की ओर धकेल, उन्होंने सेंवढ़ा, भांडेर, समथर, नदीगांव, लहार, दमोह, करैरा, दिनारा, नरवर, रतनगढ़, वेरछा, इंदरगढ़ (दातपुरा), नरगढ़, बालाजी आदि जागीरों को विजित कर, बड़ोनी जागीर को एक विस्तृत राज्य का स्वरूप प्रदान किया। किंतु केंद्रीय सत्ता से मान्यता ना होने तथा ओरछेश पिता से विद्रोह करके स्वयं को स्वतंत्र राजा घोषित न करने के कारण, बड़ौनी, ओरछा राज्य की 'करद' जागीर ही रही।
तत्समय बड़ौनी-दतिया से वृहद या विस्तृत एक भी जागीर, ओरछा के बुंदेला साम्राज्य अथवा विंध्यक्षेत्र में नहीं थी। परंतु स्वतंत्र राज्य या उप राज्य की मान्यता न होने से सर्वाधिक शक्तिशाली होकर भी, वह जागीरदार ही कहे जाते। बृसिंगदेव को यह स्वीकार्य नहीं था। किंतु पितृआज्ञा का उल्लंघन या मुगलों की तरह पितृद्रोह उनके लिए दुष्कृत्य था।
जिन जागीरों पर बृसिंगदेव ने अधिपत्य किया था, यह वो जागीरें या ग्राम-नगर क्षेत्र थे, जो, या तो ओरछा राज्य से विद्रोह कर चुके थेे अथवा दूसरे सीमांत राज्यों के शासन में थे।
इसी कालावधि में बृसिंगदेव की छुटपुट झड़पें, यदाकदा अपने जागीर क्षेत्र के मध्य या निकट से आते-जाते मुगल सैन्य समूहों से होती रहीं। समृद्ध सैन्य बल न होने के उपरांत भी, अपने क्षेत्र की दुर्गमता का लाभ उठाते हुए, उन्होंने दर्जनों बार मुगलसेना की टुकड़ियों पर अचानक छापा मारकर, सैकड़ों मुगल-अफ़गानों को हताहत करके, मुगल सेना द्वारा लूट कर लाए गए धन को वापस लूट लिया।
शनैःशनैः बृसिंगदेव मुगल सेना के लिए भय का पर्याय बन गए। मुगलों के तारीख बिगाड़ (निगार) मुंशी, उन्हें दस्यु जागीरदार के रूप में रेखांकित करने लगे थे। उनकी जागीर पर मुगल सहायक नरवर-ग्वालियर के राजाओं के आक्रमण होते, किंतु विंध्य पर्वत श्रेणियों की सुदीर्घ श्रंखलाओं एवं सघन-गहन वनों के छलावरण में बृसिंगदेव तथा उनकी जागीर बड़ौनी सदा सुरक्षित रहे।
बृसिंगदेव ने मुगलों की बड़ी सेनाओं के आक्रमण से सुरक्षित रहने के लिए, इस काल में, अंचल के घने वनों में कई स्थानों पर, भूमिगत आश्रय, बावड़ी आदि के निर्माण भी कराये।
इसी समय, मुगल बादशाह अकबर तथा उनके हिंदू रानी से जन्मे पुत्र, शहजादा सलीम में, उत्तराधिकार के मसले पर गहन मतभेद हो गये। मतभेद के केंद्र में तत्कालीन मुगल भारत के प्रधानमंत्री तथा बादशाह जलालुद्दीन अकबर के साले, आईने अकबरी के लेखक, कट्टर इस्लामी अबुल फजल थे।
पिता-पुत्र में आमने-सामने युद्ध की निर्मित होती परिस्थितियों को देखते हुए, अबुल फजल के दक्षिण भारत विजय अभियान से स्वयं को पृथक कर, शहजादा सलीम प्रयाग के इलाहाबाद में वास करने लगे थे।
बृसिंगदेव को यह उचित अवसर प्रतीत हुआ। उन्होंने इलाहाबाद पहुँचकर, संगम पर, सलीम से भेंट की और अपनी तथा अपने क्षेत्र की समस्याओं से उसे अवगत कराया।
शहजादा स्वयं ही पीड़ित, भयभीत तथा उत्तरोत्तर असहज होती परिस्थितियों से आशंकित एवं व्याकुल था। उसने अपनी असमर्थताएँ, उलझनें व्यक्त कीं। उसके पथ का सबसे बड़ा कंटक या रोड़ा था अबुल फजल। दो समस्या ग्रस्त राजकुमारों की परस्पर आवश्यकता, मित्रता के रूप में अविष्कृत होकर अवस्थित हुई।
बृसिंगदेव ने सलीम के बादशाह बनने का मार्ग प्रशस्त करने के लिए कंटक मुक्ति का संकल्प व्यक्त किया, तो सलीम ने बृसिंगदेव को स्वतंत्र एवं संप्रभु राजा बनने में सहयोग का वचन दिया।
अपने नौ जागीरदार परिजनों-साथियों, भगवंतराय बुंदेला, चंपतराय बुंदेला, भीमराव बुंदेला, नरसिंह देव बुंदेला, प्रतापराय परमार, सुजानराय परमार, केशवराय गौढ़, मुकुटमणि धँधेरा, हरसिंह देव बुंदेला तथा उनके सैन्य समूह के सहयोग से वीरसिंह देव ने दक्षिण भारत से लूट-वसूली करके लौटते, शेख अबुल फजल का आँतरी (ग्वालियर) के निकट, बिलऊआ-पराईछा में वध कर दिया।
सल्तनत के प्रधानमंत्री तथा अपने अजीज साले अबुल फजल की मौत की खबर से बौखलाए अकबर ने बड़ौनी पर कई आक्रमण किये। परंतु बृसिंगदेव का कुछ नहीं बिगाड़ सके।
सलीम एवं उसके पिता के मध्य अवरोध दूर होते ही पिता पुत्र में समझौता हो गया। कुछ ही समय पश्चात अकबर की मृत्यु हो गई। अंततः सलीम जहाँगीर के नाम से मुगल सल्तनत का बादशाह बना और अपने वचन का निर्वाह करते हुए, उसने बड़ौनी-दतिया को स्वतंत्र राज्य की मान्यता देकर, बृसिंगदेव को, कर मुक्त, मित्र राजा घोषित किया। इसके ठीक 1 वर्ष पश्चात ही ओरछा का सिंहासन भी बृसिंगदेव (वीरसिंह देव) को सौंपकर अपनी कृतज्ञता का ज्ञापन किया।
इस समय, मधुकरशाह के पश्चात, ओरछा की गद्दी पर रामशाह थे। जहाँगीर ने रामशाह को चंदेरी का राजा नियुक्त किया। इस तरह बृसिंगदेव ने, एकछत्र, निष्कंटक बुंदेला साम्राज्य की संकल्पना को साकार किया।
इसे मुगलों की चतुराई कहें या विवशता, दक्षिण विजय में मध्य क्षेत्र के राजपूत राजाओं के सहयोग की आवश्यकता तथा दक्षिण विजय अभियान हेतु जाने वाले सैन्य समूहों की शक्ति, मार्ग में ही बुंदेलों से उलझ कर नष्ट होने से बचाये रखने का भाव, बृसिंगदेव को 7 हजारी मनसब देते हुए, जहाँगीर ने मैत्री के साथ, बृसिंगदेव की एक धार्मिक संधि शर्त भी स्वीकार की, जिसके अनुसार मथुरा, वृंदावन, ब्रज का जीर्णोद्धार, केशवराय मंदिर (कृष्ण जन्मभूमि पुनर्निर्माण), अयोध्या, काशी, प्रयाग उद्धार सहित, बुंदेलखण्ड क्षेत्र के धार्मिक स्थल भी मुगल आक्रमण से मुक्त रहेंगे।
यह धार्मिक संधि औरंगजेब के काल तक भी प्रभावी रही। यही कारण था कि तीर्थ स्थानों पर जब-जब मुगल सेनाओं ने तोड़फोड़ की, वहाँ के प्रमुख मंदिरों की देव प्रतिमाएँ/विग्रह, दतिया, ओरछा आदि स्थानों पर लाकर संरक्षित कर दिए गए।
महाराज बृसिंगदेव के राज्यारोहण से पूर्व, क्षेत्र में सिंचाई के पर्याप्त साधन ना होने से, कृषि पर निर्भर प्रजा और वणिक समुदाय की दशा ठीक न थी। बुंदेलखंड के 12 वर्षीय महा दुर्भिक्ष काल (सूखा-अकाल) में बृसिंगदेव ने अबुल फजल से छीने गए "माले गनीमत" का, प्रजा के कल्याण तथा धर्म के उत्थान के लिए बहुत ही सुंदर सदुपयोग किया।
दूर-दूर तक के सभी अंचलों में सैकड़ों कुआ, बावड़ी, चोपड़ा, बांध, प्रतिबंध, तथा बृहद जलाशय बनवाये। आवासीय जलस्रोत, परिवहन पथ, धर्मशालाएँ, संत-वृद्ध महालय, विश्रामालय, विपणन केंद्र इत्यादि निर्मित करवाकर, कृषि तथा व्यापार को सुगम बनाया।
सामाजिक विपणन, कृषि भूमिहीन प्रजा तथा श्रमिक एवं शिल्पी वर्ग के कल्याण सहित, राज्य के सौंदर्यीकरण-सुदृढ़ीकरण हेतु, सैकड़ों भवन, राजप्रासाद, दुर्ग अादि का निर्माण कराया। मठ, मंदिर, आश्रमों की स्थापना कर, सदाव्रत की व्यवस्थाएँ कीं।
एक मुहूर्त में 52 गढ़ी (आंचलिक दुर्ग) की नींव रखे जाने की घटना भी इसी समय की है।
इनके शासनकाल में प्रजा का हर वर्ग, हर तरह से सुरक्षित, सुखी तथा प्रसन्न था। महाराज बृसिंगदेव ने अपने महल में एक "गुहार का झरोखा" भी बनवाया। जो सीधे महाराज के शयनकक्ष में खुलता था। इस झरोखे पर चाँदी की घंटियों की एक झालर टँगी हुई थी। इस झालर से एक रस्सी जुड़ी थी जिसका निचला सिरा राजमहल के मुख्य द्वार पर लटकता था। इस रस्सी को कोई भी दुखी-पीड़ित, किसी भी समय खींच कर, अपनी फरियाद कर सकता था। राजा की अनुपस्थिति में यह फरियाद महारानी सुना करती थीं।
क्रमशः 5