2/ किस्से वीर बुंदेलों के- राज धर्म
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महल के पहरे ( पौड़ीे ) के निचले हिस्से में, जहाँ एक शिलालेख लगा हुआ है, खड़े होकर, हम, महल और वीरसिंह देव के बारे में सुनी सुनाई बातें दोहरा रहे थे। हमें नहीं मालूम था कि हमारा यह वार्तालाप कोई और भी बहुत गौर से सुन रहा था। हमारे ठीक पीछे। नीचे की ओर जाती सीढ़ियों के ऊपरी मुहाने पर बने प्रस्तर द्वार की पथरीली चौखट से पीठ सटाए। यही थे राजा काका। राजा काका हमारे स्थानीय मित्रों के पूर्व परिचित थे। हमारे आपसी वार्तालाप में, राजाओं की निरंकुशता, नरसंहार, लूट और फिर उसी धन से निर्माण का जिक्र जैसे ही आया, तभी निचली सीढ़ियों की तरफ से आती एक गंभीर आवाज ने हमारे उच्छृंखल विचार प्रवाह में खलल डाला। पीठ पीछे स्थित निचली सीढ़ियों की ओर पलटते हुए हमने एक बुजुर्ग व्यक्ति को वहाँ बैठे देखा। विक्रम ने उन्हें पहचान कर प्रणाम किया। अनवर भी उन्हें जानता ही था। हम कुछ कदम चलकर उनके निकट आ गए। हम सभी ने उन्हें आदर सहित प्रणाम किया तो उन्होंने बात का सिरा वहीं से पकड़ा जहाँ से हमने छोड़ा था। 'आप सबका कहना है कि, बुंदेले राजा निरंकुश, हत्यारे और लुटेरे थे'।
'क्या नहीं थे' ? अर्णव, जो कंप्यूटर इंजीनियर था, बोल पड़ा।
'हमने जितना भी इतिहास पढ़ा है, उसमें आपस की मारकाट, भितरघात, लूट, नरसंहार यही सब तो है' । बहस पर आमादा अर्णव की ओर देखकर राजा काका मुस्कुराये। 'दरअसल, भारतीय राजाओं का, विशेषकर बुंदेलखंड के राजाओं का, वास्तविक चरित्र चित्रण, नई पीढ़ी को पढ़ने या सुनने को मिला ही नहीं। इसीलिए उन महापुरुषों का सही मूल्यांकन भी नहीं हुआ। मुगलिया सल्तनत के वाक़यानिगारों ने जो लिखा वो मुगल सल्तनत के हानि-लाभ, पसंद-नापसंद, इस्लामिक कट्टरता तथा मुगलों की श्रेष्ठता साबित करने के नजरिए से लिखा।'
'अंग्रेजों ने जो इतिहास रचना की, वह भविष्य में अपने प्रभाव के मद्देनजर, अपनी सुविधानुसार लिखा। जिसे उन लेखकों ने,बाद के आपसी पत्रव्यवहार में स्वीकारा भी है। भारत में आने वाले विदेशी यात्रियों ने आंचलिक भाषाई अनभिज्ञता के कारण भ्रमित होकर मनसूझा लिखा। कहीं-कहीं इन लेखकों ने पूर्वाग्रह और दुराग्रह से भी काम लिया। इसीलिए हमारा इतिहास भ्रामक हो गया है।' राजा काका ने स्पष्ट किया।
'यही तो प्रामाणिक किताबें मानी जाती हैं इतिहास की। और कहां से हमें जानकारियाँ प्राप्त होंगी।' अभिषेक बोल पड़ा। 'किसी एक किताब को पढ़कर या गूगल बाबा से ज्ञान लेकर, किसी कालखंड के, किसी भी व्यक्ति अथवा समाज के बारे में बनाई गई राय, या धारणा, उचित नहीं कही जा सकती'। राजा काका ने मुस्कुराते हुए समझाया। एक ही कालखंड के, एक ही राज्य, समाज अथवा व्यक्ति के बारे में लिखी गई, कई अलग-अलग किताबों में, अलग-अलग तथ्य और कथानक हो सकते हैं। समकालीन राज्याश्रयी कवि-लेखक भले ही बढ़ा-चढ़ाकर लिखते हों, पर मूल घटना तो उसमें होती ही है। यहाँ पढ़ने वाले पर जिम्मेदारी आयद होती है। उस कथानक में से मूल तथ्य, नीर-क्षीर विवेक के साथ निकालकर ग्रहण करे। इन सब को पढ़कर ही हम किसी उचित निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं'। कहते-कहते राजा काका ने एक नजर मेले पर डाली।
कुछ बच्चे अपने माता-पिता, कुछ अपने बड़े भाई-बहन से झूले के लिए जिद करते नजर आए। झूले के पास ही हँसती-खिलखिलाती ग्राम बालाएँ भी दृष्टिगत हुईं। जिनकी शुभ्र दंतपंक्ति देख, काका को अपने खेत के मकई-ज्वार के कच्चे भुट्टे याद आ गये।
'आज के इस अर्थयुग में इतना समय किसके पास है काका' विकास ने बात आगे बढ़ाई'। 'और फिर ये किताबें भी क्या आसानी से उपलब्ध हैं'।
'हाँ, शोधार्थियों तक को तो सामग्री उपलब्ध नहीं हो पाती' श्रुति ने विकास से सहमति जताई। 'चलो पढ़ नहीं सकते, तो, सुन तो सकते हो। जिसने यह सारी किताबें पढ़ी हों अथवा जिसका इतिहास ज्ञान बहुत अच्छा हो और उसके मन में, कोई पूर्वाग्रह-दुराग्रह जैसी गांठ भी न हो। ऐसे व्यक्ति से मिलकर, जब जितना समय मिले, बहुत कुछ जाना, समझा जा सकता है'। कुछ बोलने का प्रयास करते पलाश की ओर हाथ उठाकर, ठहरने का इशारा करते काका ने अपना कथन जारी रखा। 'ऐसा नहीं है कि ऐसे लोग हैं ही नहीं। लेकिन आप...', वे फिर मुस्कुराये, 'अपना रेडीमेड बहाना, समय का अभाव, चिपका कर, स्वयं की जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकते। और इस तरह, अपने ऊपर भविष्य में होने वाले दोषारोपण से भी बरी नहीं हो सकते। नई पीढ़ी को अपने इतिहास तथा अपनी संस्कृति को जानना-पहचानना-समझना बहुत जरूरी है। वर्ना ....।' राजा काका गंभीर हो उठे।
'वर्ना क्या बाबा'। कांता अरुणा एक साथ बोल पड़ीं। 'वरना पाश्चात्य सभ्यता के अनुकरण तथा दबाव में, वो दिन जल्द आएगा, जब हमारी सभ्यता और संस्कृति भी, तमाम लुप्त हो चुकी सभ्यताओं की तरह ही विलुप्त हो जाएगी'। काका के इस वाक्य के साथ ही मनो-मस्तिष्क में एक सनाका सा खिंच गया।
कुछ पल, हमारी स्तंभित अवस्था के रहे। राजा काका की आवाज ने ही हमारी तंद्रा भंग की। 'हमारी संस्कृति और सभ्यता की विरासत, पत्थर की प्राणहीन प्रतिमाएं अथवा भवनों के अवशेष ही नहीं होते। हमारे उन महापुरुषों की महान गाथाएँ भी होती हैं, जो, कागजों-शिलालेखों की उम्र बीत जाने के बाद भी दिल तथा जुबानों में अमिट रहती हैं। यदि हमने उन्हें नहीं जाना, उन्हें भुला दिया, तो.. (फिर से महल की तरफ इशारा करते हैं)...ये पत्थर भी क्या कर लेंगे। इन्हें भी तो एक दिन विखर ही जाना है। इन्हें भी तो वक्त का साथ देना है, जो कभी किसी के लिए नहीं रुकता।'
'तुम्हें...काका ने हम सब की तरफ उँगली उठाई । 'अगर अपनी मिट्टी, अपने देश से प्यार है, तो अपनी विरासत को जानना चाहिए। अपने महान देश के महान पुरुषों-नारियों को जानना-समझना चाहिये।' मुगल वाक़यानिगार लम्बे समय तक चम्पतराय, वीरसिंहदेव, छत्रसाल, शिवाजी, जैसे तमाम वीरों को दुष्ट दस्यु, धड़ैती (डकैती) करने वाले लिखते रहे। तुर्क-तातारों ने पृथ्वीराज चौहान को घमंडी, चरित्रहीन, मूर्ख लिखा। अंग्रेजों ने भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद को गुंडे और आतंकवादी लिखा।
...तो क्या हम सब यही मान लें। इसे ही अपनी विरासत समझें। कदापि नहीं। देश-काल-परिस्थितियों को जानकर हमें वास्तविकताओं को समझना होगा। हमारे देश की तमाम महान विभूतियों के वास्तविक जीवन को हृदयंगम कर, जुबान पर रखना होगा तभी हम सब अपनी संस्कृति, अपनी विरासत से न्याय कर पायेंगे। और तभी हम इसे अमर रख पायेंगे।' राजा काका ने गहरी साँस ली।
'लेकिन हम, मेरा मतलब है नई पीढ़ी, अपने कैरियर पर ध्यान दे या इतिहास पढ़े।' साँवली इड़ा ने भी आखिरकार मुँह खोला।
'चलो इतिहास मत पढ़ो। लेकिन इतिहास में वर्णित त्याग-बलिदान-वीरता की गाथाएँ-किस्से तो पढ़़-सुन सकते ही हैं। इनमें भी हमें बहुत कुछ, हमारी संस्कृति, हमारे महापुरुषों का परिचय, उनके कृतित्व-व्यक्तित्व की झलक मिल जाती है।'
'लेकिन बाबा...। कांता ने भी अपनी चुप्पी तोड़ी। 'अब ये किस्से सुनाने का समय भी किसे है। सुना है, कभी नानियाँ-दादियाँ ऐसे किस्से सुनाया करती थीं। अब तो उस जमाने वाली वे नानीं-दादीं भी नहीं हैं।
'हम कहाँ ढूँढें ऐसे किस्से सुनाने वालों को।' श्रोती ने जुमला जोड़ा।
'बेटा जी..कहते हैं ढूँढने से तो भगवान भी मिल जाते हैं। जिन खोज्याँ, तिन पाईंयाँ, गहरे पानी पैठ।... अच्छा चलो छोड़ो, क्या आप सब (महल की ओर इशारा करके) इस महल के निर्माता, महाराजा वीरसिंहदेव का कोई किस्सा सुनना चाहोगे'। राजा काका ने अचानक विषय परिवर्तन किया।
'हाँ काका'... विक्रम ने तत्परता से कहा। 'लेकिन...मोहित और गजेन्द्र एक साथ बोल पड़े। 'शाम गहरी हो चली है,। मेला भी बढ़ता जा रहा है। किस्सा सुनने बैठ गए तो रात हो जायेगी।'
इसी समय महल के चौकीदार/सुरक्षाकर्मी ने महल की निचली सीढ़ियों का दरवाजा बंद करके ताला लगाते हुए, सीढ़ियों की जाली भी बंद करने का इशारा किया, तो राजा काका सहित, हम सभी महल की सीढ़ियों से उतर कर, मंदिर के निकट, मातन (माताओं) के पहरे पर आ गए। धीरे-धीरे मेले का शोर बढ़ता जा रहा था। कान पड़ी आवाज, साफ नहीं सुनाई पड़ती थी।
आखिरकार विक्रम ने गले पर जोर देकर कहा 'काका.. आप कल यहाँ मिलोगे ? । राजा काका मुस्कुराये (यह शायद उनकी आदत में शुमार था) 'मेरी हर शाम महल की सीढ़ियों पर या माता के चरणों में ही गुजरती है।'
'तो फिर हम कल मिलते हैं' विक्रम के इतना कहने के बाद उन्हें प्रणाम करके हम सब, पहरे से उतर कर, अपने विश्राम स्थल, विक्रम के घर आ गए। देर रात तक, हमारे बीच राजा काका की कही बातें ही चर्चा का विषय रहीं। अर्णव अभी भी अपनी बात पर अड़ा हुआ था। अंत में सबने तय किया कि जब तक हम दतिया में हैं, राजा काका से मिलते रहेंगे और उनसे किस्से भी सुनेंगे। इसके बाद ही कोई धारणा बनायेंगे। तब तक हम सिर्फ पूर्व निर्धारित तरीकों से दतिया भ्रमण तथा गाथा श्रवण, तटस्थ भाव से करेंगे। तब कहीं हम सब अपने-अपने विस्तरों पर गये।
आज सुबह से ही, नित्यकर्मों से फारिग होकर हमारी मित्रमंडली ने शहर के विभिन्न मंदिरों का भ्रमण किया, मत्था टेका। अपना लंच हमने शहर की एक प्राचीन, पारंपरिक मिठाई की दुकान पर किया। गलियों-बाजारों में घूमते-टहलते, एक-दूसरे को धकियाते-बतियाते कब दिन गुजर गया, पता ही नहीं चला।
सूरज के पश्चिमी क्षितिज में पहुँचते ही, पूर्व निश्चयानुसार, हम 4:00 बजे ही पुराने महल पहुँच गए। राजा काका वहीं थे। ठीक कल वाली जगह पर। पथरीली चौखट पर। राम-सलाम के पश्चात, हम सब ने अपने फैसले से राजा काका को अवगत कराया। हमेशा की तरह वे मुस्कुराए। कुछ संतुष्ट भी नजर आए। 'देर आयद, दुरुस्त आयद।' हमें भी वहीं बैठ जाने का संकेत करते, उन्होंने शायद कोई कहावत कही।
'मैं, महाराजा वीरसिंह देव के राजधर्म से जुड़े, एक लोमहर्षक किस्से से आरंभ करता हूँ।' किसी सिद्धहस्त किस्सागो की भावभंगिमा अपनाते राजा काका बोले।
हम सब, उन्हें घेर कर सीढ़ियों पर ही जगह-जगह टिक गए। शनैः शनैः राजा काका के स्वर, भावपूर्ण तथा गंभीर होते गए। इस समय उनकी आंखें, जैसे दूर कहीं क्षितिज के उस पार देख रही थीं। राजा काका के साथ हम सब भी, महाराजा वीरसिंह जू देव के राजधर्म की इस कहानी के प्रवाह में बहते चले और मानो इतिहास के उसी कालखंड में जा पहुँचे, जहाँ कुछ अघटित घट रहा था।