ठंडी सड़क( नैनीताल)-10
बुढ़िया ने कहा,"मुझे अपना पूर्व जीवन याद है। गाँव में रहती थी।
गाँव जो लगभग साढ़े पाँच हजार फीट की ऊँचाई पर था।जंगल का सान्निध्य जिसे प्राप्त था।जाड़ों में बर्फ भी गिरती थी। वह सफेद बर्फ मन को भी श्वेत कर देती थी। वनों में चीड़ था, बाँज था, बुरुस था, काफल था, तुन था, पता नहीं कितने प्रकार के पेड़ थे।कुछ जानती थी, कुछ को नहीं जानती थी।मैंने पहली कविता वहीं लिखी जो मर चुकी है या परिवर्तित हो गयी है।चीड़ के वनों के ठेके होते थे। पेड़ों को चीर कर बड़ी-बड़ी बल्लियां निकाली जाती थीं।उन्हें नदी में बहा कर निश्चित स्थान तक ले जाया जाता था, वहाँ से ट्रकों से रेल स्टेशन तक।तब पर्यावरण या चिपको आन्दोलन की चर्चा नहीं होती थी।घास काटने जंगल जाते थे। दराती से घास काटना एक कला है। घास काटते-काटते मधुर स्वरों में लोकगीत गाये जाते थे। जैसे " झन दिया बौज्यू बिलौरी हाटा, लागनी बिलौरिक घा मा ---।" चार नदियां जो बरसात में जवान हो जाती थीं और जाड़ों में बूढ़ी।घरों में ताले नहीं लगते थे। बस, लोग दरवाजों को ढक देते थे। बहुत से बहुत सांगल लगा देते थे।जिससे पता लग जाता था कि घर में कोई नहीं है। तब तक किसी के मन में चोर नहीं घुसा था, वहाँ।अनाज पीसने के लिये घराट होते थे।घराट तीन-चार परिवार मिल कर लगाते थे। घराट पर जाते थे गेहूँ, मडुआ पिसाने। पानी की छक- छक- छक। नदी से बान(कच्ची नहरनुमा) बनाकर पानी पिनाऊ तक लाया जाता था। पिनाऊ का ढलान लगभग 60 डिग्री होता, उससे पानी तीव्र गति से गिरता। घराट के फितड़े पर जब पानी गिरता तो घराट(पत्थर) का ऊपर का पाट( गोल पत्थर) तेजी से घूमने लगता। नीचे का पाट स्थिर रहता। ऊपर डोके में अनाज डाला जाता था। दानों की गति को नियंत्रण करने के लिए एक डण्डे पर चिड़िया लगायी जाती थीं।ये एक,दो,तीन,चार उल्टे-सुल्टे लगाये जाते थे। जिससे अन्न के दानों की मात्रा का पीसने से सामजस्य हो सके। आटा कितना महीन हो या दानेदार हो उसका भी दो पाटों के बीच दूरी समायोजित करने का प्रबन्ध होता था। यह तकनीक सामूहिक रूप से विकसित की गयी लगती थी जो अब लगभग विलुप्त हो चुकी है।
बारी-बारी से उनका मालिकाना दिन आता था।घराट के मालिक का घराट पर होना आवश्यक नहीं होता था।लोग मुख्यत: गेहूँ या मडुआ पीसते थे और अपने अनुमान से भाग(पिसाई के बदले आटा) रख जाते थे, घराट के मालिक के लिये।पूर्ण इमानदारी होती थी और एक-दूसरे पर भरोसा रहता था।
घराट के पास श्मशान था। सुना जाता था रात को वहाँ पर भूतों की बैठक होती थी। और भूत आग से डरा करते थे। भूतों में लड़ाई-झगड़े नहीं होते थे। कोई कहता था उसने भूतों का ताश खेलते देखा।कोई कहता उसने नाचते देखा।सबकी अपनी विचित्र कहानी होती लेकिन एक साम्य होता कि वह डरावनी होती थीं।ऐसी भी धारणा थी कि वे रात को घराट पर पहरा देते हैं ,वे अच्छे भूत कहलाते थे।
हम जंगल में काफल खाने जाते थे। एक बार एक महिला काफल के वृक्ष से गिर गयी और चित्त रही( मर गयी)। महिलाएं अपने मायके को बहुत प्यार करती थीं। कहते हैं एक महिला ससुराल से मायके आ रही थी। गाँव के पास घराट पर वह रूकी और अन्दर घराट पर जाकर उसको दोनों हाथों से पकड़ कर चूमते हुए बोली," ओ ईजा( माँ), म्यर मैतक घट( मेरे मायके का घराट)," घराट जो तेजी से चल रहा था उससे उसके हाथ और होंठ छिल गये।
फिर समय आया गाँव भागने लगे,शहर की तरफ।कुछ पाने के लिये कुछ खोना पड़ता है। जैसे हमने पर्यावरण खोया,जंगल खोये और भी बहुत कुछ खोया और चौंधियाती चीजें और सुविधाएं प्राप्त कीं।
इसलिये कहीं से आवाज आती है-
"कितनी बार तोड़ा है मुझे
पत्थर समझकर,
कितनी बार उखाड़ा गया है
वृक्ष समझकर,
कितनी बार खोदा गया है
मिट्टी मानकर,
कितनी बार काटा गया है
प्यार देखकर,
कितनी बार लौटाया गया है
अशुद्ध पता मानकर,
कितनी बार उड़ाया गया है
किरकिरा धुआं कहकर,
कितनी बार फेंका गया है
रद्दी कागज सोचकर,
मेरी दास्तान में लिखा है
समय -समय और समय।"
बूढ़ा बोला तुम्हारी बातें बड़ी दिलचस्प होती हैं।
* महेश रौतेला