Dwaraavati - 9 in Hindi Fiction Stories by Vrajesh Shashikant Dave books and stories PDF | द्वारावती - 9

Featured Books
  • ऋषि की शक्ति

    ऋषि की शक्ति एक बार एक ऋषि जंगल में रहते थे। वह बहुत शक्तिशा...

  • बुजुर्गो का आशिष - 9

    पटारा खुलते ही नसीब खुल गया... जब पटारे मैं रखी गई हर कहानी...

  • इश्क दा मारा - 24

    राजीव के भागने की खबर सुन कर यूवी परेशान हो जाता है और सोचने...

  • द्वारावती - 70

    70लौटकर दोनों समुद्र तट पर आ गए। समुद्र का बर्ताव कुछ भिन्न...

  • Venom Mafiya - 7

    अब आगे दीवाली के बाद की सुबह अंश के लिए नई मुश्किलें लेकर आई...

Categories
Share

द्वारावती - 9

9

संध्या हो चुकी थी। महादेव जी की आरती करने के लिए गुल मंदिर जा चुकी थी। गुल ने घंटनाद किया, पुजारी जी ने आरती की। महादेव जी को भोग लगाया । प्रसाद लेकर गुल मंदिर से बाहर निकली ही थी कि उसके सम्मुख प्रसाद के लिए बढ़ा हुआ एक हाथ आ गया। गुल ने उस हाथ में प्रसाद रख दिया, उस हाथ के मुख को देखा।
वह उत्सव था। दोनों की द्रष्टि मिली। दोनों में से कोई कुछ नहीं बोला। गुल चलने लगी, उत्सव उसके पीछे चलने लगा। दोनों गुल के घर आ गए।
“खाना खाओगे?” गुल ने पूछा।
“नहीं।”
“क्यों?”
“यदि मैं खाऊँगा तो आपको भूखा रहना पड़ेगा।”
गुल हंस पड़ी, “आज ऐसा नहीं होगा। उस दिवस तो कोई आएगा और मेरा भोजन खाएगा ऐसा कोई अनुमान नहीं था। आज मैंने दो व्यक्तियों के लिए भोजन बनाया है। तुम मेरे साथ भोजन ले सकते हो।”
“क्या यह सत्य है कि पिछले दो दिवसों से आप मेरे लिए भी भोजन बनाती हो।”
“हां। क्यूँ?”
“बाबा भी यही कह रहे थे।” गुल ने स्मित दिया, भोजन भी। दोनों खाने लगे।
उत्सव ने गुल को देखा। उसे वह स्वयं माँ अन्नपूर्ण लगने लगी। वह तृप्त हो गया।
गुल भोजनोपरांत कार्य करने में व्यस्त हो गई। उत्सव गुल की प्रतीक्षा करता समुद्र को देखता रहा।
कुछ समय पश्चात गुल आ गई, “तो तुम अभी तक यहीं हो? मुझे तो लगा कि कहीं...।”
“नहीं पंडित गुल। अब मैं यहाँ से भागने वाला नहीं हूँ।”
“तो तब क्यूँ चले गए थे?”
“कभी कभी पेट की क्षुधा शांत होने पर भी मन के उजाले शांत नहीं होते। मुझे निंद्रा आ तो गई किन्तु कुछ ही क्षणों में लौट गई। मन की अशांति ने मुझे सोने नहीं दिया। मैं उठा और चला गया।”
“कहाँ?”
“महादेव के मंदिर में।”
“तो आरती के पश्चात क्यूँ चले गए? मैंने तुम्हें पुकारा भी था किन्तु तुमने सुना नहीं।”
“सुना तो था किन्तु मुझ में इतना साहस नहीं था कि लौट आऊँ।”
“तो अब क्यूँ लौट आए?”
“मुझे बाबा ने भेजा है।”
“कौन है वह? कहाँ मिले थे?”
“वह सागर के उत्तरी तट पर मुझे मिलते हैं। तीन बार वह मुझे मिल चुके हैं। आप उससे परिचित हैं?”
“नहीं। मैं किसी बाबा को नहीं जानती। क्या नाम था उसका?”
“वह तो मैंने नहीं पूछा।”
“ठीक है। यदि तुम्हें अपना नाम स्मरण हो गया हो तो मुझे बता सकते हो।”
“उत्सव। यही नाम है मेरा।”
“सुंदर नाम है। कहो आगे क्या विचार है?”
“जब तक मेरे प्रश्नों के आपसे उत्तर नहीं पा लेता,मैं यहीं रहूँगा। आपको कोई आपत्ति तो नहीं?”
उत्तर में गुल के अधरों पर स्मित था।
“तुम्हारे प्रश्न और उनके उत्तर? वह भी मुझ से?” गुल हंस पड़ी, “कहो क्या प्रश्न है?”
“अनेक प्रश्न है। मैं जब यहाँ आया था तो एक ही प्रश्न था मेरे मन में। किन्तु आपको मिलकर कई नए प्रश्न खड़े हो गए हैं। मुझे सर्व प्रथम उन प्रश्नों के उत्तर पाने हैं।”
“यह तो बड़ी गंभीर बात है। एक तरफ तुम कहते हो कि तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर मेरे पास है और दूसरी तरफ कह रहे हो कि मुझसे मिलते ही नए प्रश्न खड़े हो गए। तो यह तो विरोधाभास है। दो ही संभावना है। मेरे पास उत्तर हैं अथवा मैं नए प्रश्नों को जन्म देती हूँ, दुविधा बढ़ा देती हूँ। दोनों में से कोई एक बात ही सत्य है। दोनों बातें सत्य नहीं हो सकती। तुम्हें क्या लगता है, कौन सी बात सत्य है?”
“ऐसा कोई निष्कर्ष निकालना मेरा लक्ष्य नहीं है।”
“तो लक्ष्य क्या है तुम्हारा, उत्सव?”
“मेरी तीन दुविधाएँ है। उनका समाधान ही मेरा लक्ष्य है।
“और तुम्हारा मानना है कि उन तीनों दुविधा का समाधान मेरे पास है।”
“हो सकता है, नहीं भी हो सकता है। किन्तु आप प्रयास कर सकती हैं।”
“यदि मैं इन प्रयासों में विफल रहूँ तो?”
“तो भी कुछ नहीं।”
“ऐसा क्यूँ?”
“क्यूँ कि मेरी तीन दुविधाओं में से एक का समाधान तो केवल आप ही के पास है। बाकी बची दो। उसमें से एक का समाधान नहीं भी मिले तो मुझे निराशा नहीं होगी। रही तीसरी दुविधा, जिसका समाधान मुझे कहीं से भी नहीं मिला। और बाबा कहते हैं कि पंडित गुल ही मेरी इस दुविधा को दूर कर सकती है।”
“तो तुम उस बाबा के वचनों पर पूर्ण विश्वास रखते हो?”
“अवश्य।”
“तो कहो क्या है तुम्हारे मन में?”
“प्रथम तो आप ही मेरी दुविधा हो। पंडित गुल! यह नाम ही मुझे विचलित कर रहा है।”
“वह कैसे?”
“एक तो आप स्त्री हैं तो आपका नाम पंडिता गुल होना चाहिए।”
“दूसरा कुछ?”
“है ना। गुल नाम तो हिन्दू नाम नहीं है।”
“मैं जन्म से मुस्लिम हूं।मेरा नाम गुलरेज है।” गुल ने बड़ी सहजता से कहा किन्तु उत्सव अचंभित रह गया।
“मुस्लिम होना, स्त्री होना तथा पंडित भी होना। क्या यह बात सहज हो सकती है?”
“सहज अथवा आश्चर्य आदि सब हमारे मन की धारणा पर निर्भर करता है। कोई बात जब हम सर्व प्रथम देखते हैं, अनुभव करते हैं अथवा स्वयं करते हैं तो वह हमें आश्चर्य से भरी लगती है। किन्तु एक बार ऐसा हो जाने पर वह सहज हो जाती है।”
“मेरा मन पंडित गुल को स्वीकार करने को तैयार ही नहीं था। यही कारण था कि मैं आपसे भागता रहा।”
“अब तो मैं तुम्हारे सामने हूं, किसी सत्य की भांति। अब तो स्वीकार लो।”
“नहीं, ऐसे स्वीकार नहीं कर सकता।”
“तो कैसे करोगे?”
“गुलरेझ से पंडित गुल तक की यात्रा के विषय में मुझे जिज्ञासा है। यही मेरा प्रथम प्रश्न है। क्या आप मुझे उस पूरी यात्रा सुना सकते हो?”
“उत्सव, तुम मेरी कथा में रुचि ले रहे हो अथवा मुझ में?”
“क्या इन दोनों को भिन्न भिन्न रूप से देखा जा सकता है, पंडित गुल?”
“तुम्हारे पास अकाट्य प्रमाण रखने की भी क्षमता है, उत्सव।” गुल के अधरों पर मधुर स्मित आ गया।
“तो क्या मैं उस यात्रा को सुनने के लिए तैयार हो जाऊँ?” उत्सव उत्साह से भरा था।
“यह यात्रा को तो मैं भी भूल गयी थी, उत्सव।” समुद्र में उठती लहरों में दूर कहीं गुल खो गई। उत्सव ने उसे नहीं रोका। समय की प्रतीक्षा करने लगा। समय व्यतीत होता रहा।
समुद्र के ऊपर आकाश संध्या के रंगों में डूब गया।