Kanchan Mrug - 13-14 in Hindi Moral Stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | कंचन मृग - 13-14. मेरी यात्रा को गोपनीय रखें

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कंचन मृग - 13-14. मेरी यात्रा को गोपनीय रखें

13. मेरी यात्रा को गोपनीय रखें-

मध्याह्न भोजन के पश्चात महाराज जयचन्द अलिन्द से निकलकर उद्यान का निरीक्षण कर रहे थे। उद्यान की हरीतिमा नेत्रों को प्रीतिकर लग रही थी। इसी बीच प्रतिहारी ने आकर निवेदन किया-
‘महाराज, एक साधु आप से मिलना चाहते हैं। उन्होंने अपना अन्य कोई परिचय नहीं दिया। कहते हैं कि महाराज से ही निवेदन करूँगा।’
‘यहीं ले आओ।’
‘कुछ क्षण में साधु प्रतिहारी के साथ उपस्थित हुए। महाराज साधु को लेकर अलिन्द में आ गए। महाराज के संकेत पर सेविकाएँ हट गई। सेविकाओं के हटते ही साधु ने जटा हटा दी। माहिल ने महोत्सव की नवीनतम जानकारी दी और कहा कि ‘आल्हा और उदयसिंह कान्यकुब्ज की ओर ही आ रहे हैं। उन्हें यहाँ शरण देना उचित नहीं हेागा। महाराज परमर्दिदेव आपका सम्मान करते हैं, निरन्तर आपके प्रगति की कामना करते हैं। चन्देल और गहरवार का सम्बन्ध कोई कच्चे सूत का सम्बन्ध नहीं हैं। पीढ़ियों से दोनों एक दूसरे के सहयोगी रहे हैं। आल्हा और उदयसिंह महत्त्वाकांक्षी हो गए हैं। उनसे लाभ की अपेक्षा हानि की सम्भावना अधिक है।’ महाराज माहिल की बात सुनते रहे, माहिल बताते रहे। महाराज ने उनके सुझावों पर ध्यान देने की बात कही। माहिल ने अपनी जटा पुनः यथास्थान आरोपित कर दी। महाराज के संकेत करते ही उपाहार आ गया। माहिल ने उपाहार लिया और उठ पड़े। ‘मुझे आज्ञा दें’ उन्होंने कहा, ‘मेरी यात्रा को गोपनीय रखें।’
महाराज एक बार पुनः मुस्करा उठे जिसे माहिल ने स्वीकृति समझा और चल पड़े। नगर के बाहर एक मन्दिर परिसर में उन्होंने घोड़ी बाँध दी थी तथा अपने सहयोगी अश्वारोही को वहीं छोड़ दिया था। पहुँचते ही सहयोगी को संकेत किया तथा अपनी घोड़ी पर सवार होते ही कसकर एड़ लगाई। घोड़ी पवन से बातें करने लगी।





14. निकर चले दोउ भैया रे वन को-

माण्डलिक का दल कान्यकुब्ज से दो कोस पूर्व ही गंगा तट पर रुका । धूप तेज थी। दल के सभी लोग गर्मी एवम् थकान से लथपथ थे। शिविर लग गया। माण्डलिक ने देवा को बुलाकर आवश्यक परामर्श किया। तय हुआ कि आज विश्राम कर कल कान्यकुब्ज नरेश जयचन्द से मिलकर मन्तव्य निवेदित किया जाए। कान्यकुब्ज राज्य दूर-दूर तक फैला हुआ था। काशी तथा मगध के अधिकांश भूभाग महाराज जयचन्द के अधिकार में ही थे। गाँजर का पूरा क्षेत्र कान्यकुब्ज नरेश का करद था। कर उगाहना एक दुष्कर कार्य होता था। पर्याप्त दबाव बनाने पर उत्सव आदि पर ही सामन्त कर देते थे। कई वर्षों से गाँजर से कर नहीं उगाहा जा सका था। उत्सवों का निर्धारण कर उगाहने की दृष्टि से भी किया जाता था।
रात्रि विश्राम की व्यवस्था करने में सभी व्यस्त थे। उदय सिंह और देवा ने सभी से हाल-चाल पूछा । कुछ लोग ज्वर से पीड़ित हो गए थे। वैद्य ने उनके उपचार की व्यवस्था की। रात्रि सरकती रही। देवा तथा उदय सिंह शिविर का निरीक्षण कर आवश्यक निर्देश देते रहे। काथिक ने लोक नायकों की कथाओं से बरबस लोगों का ध्यान खींचा, गायक गा उठे-
निकर चले दोऊ भइया रे वन कौं
निकर चले रे दोऊ भइया।
आगे आगे राम चलत हैं
पीछे लछमन भइया।
तिनके बीच में चलत जानकी
शोभा बरन न जइया।
साउन भदवाँ की रैन अँधेरिया,
पवन चलत पुरवइया।
काउ बिरछ तरैं ठाढे़ हुइ हैं
राम लखन दोऊ भइया।
लोग घेरा बनाकर रसपान करते रहे। देवा और उदयसिंह अपने अपने शिविर में विश्राम हेतु चले गए। पुष्पिका यात्रा की थकान से शिथिल उदयसिंह की ही प्रतीक्षा कर रही थी। उनके पहुँचते ही प्रसन्नता की एक लहर दौड़ गई।
विश्राम करने के लिए दोनों लेटे। पुष्पिका पंखा झलने लगी, कुछ क्षण पश्चात उदय सिंह ने पंखा अपने हाथ में लिया । उनकी आँखों में नींद नहीं थी। पुष्पिका की आँखों में जिज्ञासा देख उन्होंने कहा, ‘तुम बहुत दुःखी हो न?
‘दुःख तो आप को भी है?’
‘हाँ है, मेरे ही कारण तुम भी कष्ट उठा रही हो।’
‘मैं आपकी अर्द्धांगिनी हूँ न, आपका कष्ट मेरा कष्ट नहीं है क्या? मन में यह बात उठती है कि अपनी धरती होती तो आज इस तरह भटकना न पड़ता।’
‘धरती केवल राजा की होती है। वह जब चाहे किसी को भी धरती से विमुक्त कर सकता है। राजा सबसे ऊपर है उसकी आज्ञा ही ।’
‘राजा यदि अत्याचार करे, निरंकुश हो जाए तब भी उसकी आज्ञा ।’
‘हाँ, हो यही रहा है राजा को परामर्श देने के लिए मंत्रिपरिषद अवश्य होती है किन्तु राजा जब चाहे मंत्रिपरिषद का अपने पक्ष में उपयोग कर लेता है। ‘जातक’ ‘अर्थशास्त्र’, ‘शुक्रनीति’, सभी में मंत्रिपरिषद का विधान तो है पर......। महोत्सव की धरती माँ है प्रिये। माँ से कोई कैसे अलग हो सकता है? जो भी शक्ति अर्जित कर लेता है, अपना अलग राज्य निर्मित करता है किन्तु हम लोगों ने महोत्सव को अपने से कभी अलग नहीं माना।
‘इसीलिए कष्ट भी अधिक है।’
‘धरती से कट जाने का कष्ट किसे नहीं होता प्रिये। हमने माँ की सेवा करना ही अपना धर्म समझा। अपने को भी उसी में विलीन कर दिया। माँ की प्रतिष्ठा पर कोई आँच न आए इसीलिए अपने लिए कुछ भी नहीं चाहा। जो भी कर्तव्य निर्धारित किया जाता उसे प्राणपण से सम्पन्न करने का प्रयास करता । निष्ठापूर्वक सेवा करना अपना धर्म समझा, कभी राजा बनने की लालसा नहीं पाली। अवसर भी आया तब भी नहीं।’
‘कब ऐसा अवसर आया था? कुछ मुझे भी बताओ।’
‘जानकर तुम्हें कष्ट होगा प्रिये।’
‘मुझे तनिक भी कष्ट नहीं होगा। आपकी वाणी से अमृत झरते हैं फिर कष्ट कैसा?’
‘तुम तो जानती ही हो, जन्मते ही माँ ने मुझे त्याग दिया था।’
‘मैं कुछ भी नहीं जानती, मेरा मन अधीर हो रहा है। मैं आपकी अर्द्धांगिनी हूँ पर मुझे कुछ भी ज्ञात नहीं।
‘जानने में दुःख है, न जानना ही सुखकर है प्रिये।’
‘नहीं आप मेरे दुःख की चिन्ता न करें। यदि आपको कष्ट न हो तो अवश्य बताएँ।’
‘मेरी तो जीवन यात्रा ही यही है, कष्ट कैसा? पर अपनी यात्रा कथा बता कर तुम्हें दुःखी नहीं करना चहता था। मेरा मन अशान्त है। थोड़ी पूर्व चर्चा से सम्भवतः मन के किसी कोने में शान्ति मिले।’
‘अवश्य, मैं स्वयं सुनने के लिए उत्कंठित हूँ।’
‘मेरा जन्म ही दुर्भाग्यपूर्ण था प्रिये। जिस रात मेरे पिता की कपटपूर्वक हत्या हुई, उसी रात मेरा जन्म हुआ। इससे अधिक दुर्भाग्य और क्या हो सकता है प्रिये ?’
‘मैंने कुछ समझा नहीं’, पुष्पिका की आँखों में जिज्ञासा उतर आई थी।
‘बिठूर का मेला देखा होगा ?’
‘हाँ, केवल एक बार माँ के साथ गई थी, तब मैं बहुत छोटी थी।’
‘माण्डव गढ़ का राजकुमार बिठूर के लिए तैयार हुआ तो उसकी बहन ने उपहार लाने की बात कह दी। उसे क्या पता था कि उसकी इस माँग से कितने लोग ध्वस्त हो जाएंगे? राजकुमार बिठूर में उपहार खोजता रहा। वणिक भी मेलों में अत्यन्त मूल्यवान वस्तुएं ले जाते हिचकते हैं। उसे कोई उत्तम उपहार नहीं मिल पाया। वह निराश घूम रहा था। इसी बीच मातुल माहिल से भेंट हो गई। मातुल तो सूचनाएं पेट से निकाल लेते हैं। राजकुमार ने बता दिया कि उपहार न मिलने से वह दुःखी है। अब माहिल कहाँ चुप बैठने वाले थे। उन्होंनें संकेत कर दिया कि महोत्सव में नौलखाहार है। राजकुमार को अपनी शक्ति पर कुछ अधिक गर्व था। अपने सैन्य बल के साथ उसने महोत्सव पर आक्रमण कर दिया। संयोग अच्छा था कि उस समय पिता जी, ताऊ जी और चाचा सैयद वहाँ थे, उनकी प्रहार शक्ति से माण्डव राजकुमार को भागना पड़ा। पर वह भी चिढ़ा हुआ था। अपनी हार का प्रतिशोध लेने के लिए उसने कुछ दिन बाद पूरी तैयारी के साथ रात्रि में आक्रमण कर दिया। सभी सो रहे थे। उसने रात्रि में ही भंयकर मार काट मचा दी। सैयद तालन कान्यकुब्ज गए थे। महोत्सव को लूट कर वह पंच शब्द, नौलखाहार, लाक्षणिका सहित पिता का शीश भी ले गया। रात्रि में नगर में हाहाकर मचा रहा और दुर्भाग्य यह कि उसी रात मैंने जन्म ले लिया। माँ ने पितृघाती समझ कर मेरा मुख देखना भी उचित नहीं समझा। था न यह, दुर्भाग्य पूर्ण जन्म?’
‘आपका जन्म कैसे दुर्भाग्यपूर्ण हुआ? पिता जी का अन्त अवश्य दुर्भाग्यपूर्ण था। इसमें आप कर ही क्या सकते थे?’
‘तुम मेरा पक्ष ले रही हो प्रिये।’
‘इसमें कैसा पक्ष? प्रकृति के विधान में कोई क्या पक्ष ले सकता है?’
‘महारानी मल्हना बहुत दुःखी थीं, पर जब उन्हें मेरे दुर्भाग्य का पता चला, उन्होंने सेविका भेजकर मुझे मँगवा लिया। जाने उन्होंने मुझमें क्या देखा, राजकुमार ब्रह्मजीत के साथ मुझे भी पाल लिया। मैंने उनका स्तनपान किया है, मेरा जीवन महारानी का दिया हुआ है प्रिये’, कहते हुए उदय सिंह की आँखें भर आईं। मैं ऐसा भाग्यहीन था, जिसके जन्म से कुछ समय पूर्व ही, पिता का वध कर दिया गया था। पर मुझे इसका कुछ भी ज्ञान नहीं था। महारानी मल्हना की उदारता से माँ का भी मन पसीज उठा। मेरा पालन दोनों ने किया, पर पिता के वध की बात छिपाती गईं। मैं जब भी पिता की बात करता, सभी उनके शौर्य की प्रशंसा करते, पर उनका शरीर त्याग कैसे हुआ इसे छिपा लेते। मैं भी इठलाती नदी की भाँति बढ़ता गया। बारहवें वर्ष में ही अश्व एवं शस्त्र संचालन में निपुण हो गया। देश , समाज, जन सभी के बारें में कुछ-कुछ जानने लगा। पण्डित धर्मधर की कृपा से श्लोक भी रचता। विद्यार्जन से जैसे ही छुट्टी मिलती , आखेट के लिए निकल जाता। अश्व दौड़ाने में मन रम जाता, यद्यपि नन्ना, महारानी और माँ सभी दूर जाने से रोकते। पर मन रोके न रुकता । कभी-कभी चालीस-पचास कोस तक चला जाता । लौटते दूसरा दिन आ जाता। घर के लोग चिन्तित हो उठते पर मन उड़ने में जो आनन्द पाता उसके आगे सब कुछ भूल जाता। ’
‘किशोरावस्था का प्रारम्भ था न, ऐसी उम्र में हम भी सपने देखते थे, आपकी ही तरह।’
‘क्या बताऊँ प्रिये? यही चैत का महीना था। मैं अश्व दौड़ाते वेत्रवती पार कर गया। मन हुआ उस पार कुछ देखा जाए। सूर्य में गर्मी बढ़ रही थी। दोपहर का समय था।
एक मृगशावक का पीछा करते तृषा से मैं और मेरा अश्व दोनों बेहाल हो रहे थे। एक स्थान पर कुछ पनिहारिनें पानी भर रही थीं। मैंने उनसे अश्व को पानी पिलाने के लिए कहा। वे राजमहल के लिए पानी भर रहीं थीं। उन्होंने पानी न पिलाकर मुझे साधारण अश्वारोही समझ, डाँट भी दिया। सत्ता का मद राजसेवकों में भी चढ़ जाता है। मुझे क्रोध नहीं करना चाहिए था पर किशोर स्वभाव, क्रोध आ ही गया। मैंने अश्व को जल पिलाया, स्वयं भी पिया और उनके घड़ों को फोड़ दिया। आगे एक सुन्दर उपवन था। मृगशावक की खोज में, इधर-उधर भटका। बेंदुल की टाप से उपवन के बहुत से पौधे नष्ट हो गए। तब तक पनिहारिनें राजपरिवार में पहुँच कर मेरी करतूतों का चित्र उपमा, रूपक, अत्युक्ति का सहारा ले खींच चुकी थीं। वह राजप्रासाद मातुल माहिल का था। उन्होंने अभयी को भेजा। अभयी ने यद्यपि मुझे पहचाना, पर वे आते ही क्रोध से तमतमा उठे। उन्होंने मेरे ऊपर तलवार खींच ली। मुझे अभयी से यह आशा न थी। मैंने झपट कर उनका हाथ पकड़ लिया। मुझे क्रोध ने विक्षिप्त बना दिया था। मैंने पूरी शक्ति से झटका दिया। अभयी की तलवार छूट गई। वे भूमि पर गिर पड़े। उनका हाथ टूट गया था। उन्होंने चिल्लाकर कहा, बड़े बहादुर हो तो बाप का दाँव क्यों नहीं लेते।’ मुझे झटका-सा लगा। मैंने बेंदुल को एड़ लगाई। वह पवन की गति से उड़ा। वेत्रवती तट पर ही आकर हमने साँस लिया। मैंने भी पानी पिया और बेंदुल को पिलाया। नदी पार करके महोत्सव की राह पकड़ी। बेंदुल ने जैसे मेरे मन की बात पकड़ ली। तेज किन्तु सधे पग रखता हुआ वह बढ़ता गया। मेरा मन उद्विग्न हो उठा। सहज किशोर मन का कहीं पता न था। एक नया उदय सिंह जन्म लेने लगा। अभयी द्वारा कहे हुए एक-एक शब्द मेरे कानों में मानों शीशा पिघला रहे थे। मुझे पिता का दाँव लेना है। अभी तक मुझे इसका कुछ पता नहीं। महोत्सव पहुँचते-पहुँचते रात्रि का दूसरा प्रहर प्रारम्भ हो गया था। पंछी सुगबुगाते, पर शावकों को थपकी दे, आँखें बन्द कर लेते। मैंने दशपुरवा से कुछ पहले ही बेंदुल को पेड़ से बाँध दिया। स्वयं पेड़ के नीचे बैठकर सोचने लगा। रात बीतती रही मैं उठा और चल पड़ा। दशपुरवा के निकट पहुँचते ही बेंदुल हिनहिना उठा। श्वान जैसे उसकी ध्वनि से परिचित हों, दौड़ पड़े। वे भी बेंदुल के साथ पाँव मिलाने लगे। द्वार पर प्रहरी ने बेंदुल की रास पकड़ ली और बताया कि सभी लोग उनके न आने से चिन्तित थे। आलस्य का कहीं पता नहीं था। मैं बिना किसी से कुछ कहे आवास की ओर चला गया। जानबूझकर मैंने कुछ समय और बिताया। प्रातः हुई, लोग उठने लगे। मुझे आया जानकर लोगों की चिन्ता समाप्त हुई, पर मेरी चिन्ता का अन्त नहीं था। किसी तरह कुछ क्षण बीते। माँ भी स्नान कर पूजा में लीन हो गईं। मैं देखता रहा पर जब मन की अन्तर्वेदना असह्य हो गई, मैं माँ के सामने भहरा गया। माँ का पाठ बन्द हो गया। वे दौड़ कर आई‘क्या हुआ बेटे?’ ‘माँ पिता जी का वध किसने किया है?
‘माँ को जैसे काठ मार गया हो, ‘बेटा मैं कुछ भी नहीं कह सकती। तुम महाराज के पास जाओ, वही बता सकते हैं।’
‘क्या इतनी सी बात तुम्हें पता नहीं? माँ रो पड़ी। उनकी घिघ्घी बँध गई। उनसे कुछ भी निकलवाना सहज नहीं था।
दिन निकल आया था। मैंने महाराज से पूछने का निश्चय किया। राजप्रासाद में पहुँचने पर ज्ञात हुआ कि महाराज खर्जूर वाहक गए हुए हैं। दोपहर तक आ सकते हैं। मैं महारानी के प्रासाद की और बढ़ गया, पर वे भी महाराज के साथ ही गई थीं। मन उद्विग्न था। नन्ना, पुरुषोत्तम भी नहीं थे। उधेड़बुन में ही समय बीतता गया। महाराज की प्रतीक्षा में दोपहर हो आया। दशपुरवा लौट आया। माँ ने भोजन के लिए बहुत आग्रह किया, पर मैंने अस्वीकार कर दिया। वे बहुत चिन्तित हो उठीं। मैं भी उद्विग्न था, किसी प्रकार अपने निर्णय से डिगा नहीं । रूपन ने आकर बताया कि महाराज आ गए हैं। महाराज और महारानी का मैं लाड़ला था। मेरे लिए कोई रोक-टोक नहीं थी। मैं राज प्रासाद की ओर बढ़ गया।
बैठक के अलिन्द में पहुँचा ही था कि महाराज और मातुल माहिल की बातचीत सुनाई पड़ी। महाराज कह रहे थे, ‘माहिल उदयसिंह को पता न चले।’ माहिल की कुटिल मुस्कराहट मुझे स्पष्ट दिखाई पड़ रही थी।
‘मैं अपना मुँह नहीं खोलूगाँ, तब भी उदय सिंह को पता चल जाएगा,’ माहिल बोल उठे।
‘नहीं चलेगा। यहाँ कोई दस्सराज के निधन की चर्चा नहीं करेगा। हमने बहुत पहले से आदेश कर रखा है। अभी वह दुधमुँहा बच्चा है। उसके कानों तक यदि बात पहुँच गई तो वह प्रतिशोध के लिए उतावला हो उठेगा माहिल। इसीलिए इस बात की चर्चा न करना।’
‘उसनें मेरे पुत्र की दुर्गति कर दी, उपवन उजाड़ दिया। उसे दण्ड देने के बदले आप मुझे ही मुँह बन्द करने का निर्देश दे रहे हैं। क्या वह उचित है महाराज?’
माहिल का स्वर तिक्त हो उठा था।
‘यही महोत्सव के हित में है माहिल। अभयी को भी मैं उतना ही स्नेह देता हूँ जितना उदय सिंह को। उसके लिए भी बहुत कुछ करूँगा, पर इस समय इस बात को न कहना ही उचित है।’
‘मैं यह सोचकर आया था कि महाराज उदय सिंह को दण्डित करेंगे, पर आप?’
‘महोत्सव का वह एक प्रज्वलित दीप है माहिल। राज्य की सम्पूर्ण आकांक्षाएँ उसी पर टिकी हैं। जिस दिन वह जवान हो जाएगा, मै निश्चिन्त हो जाऊँगा।’ ‘तुम क्यों रो रही हो प्रिये?’ उदय सिंह ने पुष्पिका के मुख-मण्डल पर दृष्टि टिकाते हुए कहा।
‘आप में महाराज की अडिग आस्था जान, आँसू अपने आप ढरक पड़े। आज महाराज द्वारा निष्कासन , कितना अन्तर्विरोध है दोनों स्थितियों में।’
‘यही नियति है प्रिये।’
‘आगे क्या हुआ?’
‘मातुल कुछ उत्तोजित हो उठे। उसी उत्तेजना में वे उठकर बाहर आ गए। मैं थोड़ी दूर हट गया था जिससे लगे कि मैंने कोई बात नहीं सुनी है। मैंने उन्हें प्रणाम किया पर वे उत्तेजित थे, प्रणाम का उत्तर क्या देते? ‘मेहरियों के बीच तलवार भाँजते हो और बाप......’कहकर आगे बढ़ गए।
इतना मेरी समझ में आ गया था कि पिता के साथ कोई घटना घटी है, पर उसका अता-पता नहीं मिल रहा था। अभी तक मुझसे यह बात छिपाई गई, पर इसका ज्ञान अब मुझे होना ही चाहिए। मैं महाराज के कक्ष में पहुँच गया। उनके चरणों में शीश रखकर बैठ गया। मेरे आरक्त मुखमण्डल पर उद्विग्नता की रेखाएँ स्पष्ट थीं।’
‘इस समय आखेट में अधिक रुचि ले रहे हो।’
‘हाँ महाराज, आखेट में ही अनजाने उरई तक पहुँच गया था। प्यास से मैं विक्षिप्त हो रहा था, कुछ ऐसा भी कर बैठा जो नहीं करना चाहिए। मैं उसके लिए लज्जित हूँ। पनिहारियों का घड़ा फोड़, अभयी को झटक कर, मैंने उचित नहीं किया महाराज। अभयी का तमतमाया तेवर मैं सहन नहीं कर सका। आप जो भी दण्ड दें ।’
‘अभी तुम बच्चे हो। अपने को सँभाल नहीं सके। भविष्य में अधिक सचेत रहो।’ ‘ऐसा ही करूँगा महाराज। पर मैं बहुत व्यथित हूँ। मुझे लग रहा है कि मुझसे कुछ छिपाया जा रहा है। मैं यह नहीं जान पाया कि मेरे पिता का अन्त कैसे हुआ? क्या किसी ने उनका वध किया था? राजकुमार अभयी ने कहा था-बडे बहादुर हो तो बाप का दाँव क्यों नहीं लेते?
उनका यह वाक्य मेरे हृदय को वेध रहा है महाराज, कोई मुझसे यह नहीं बताता कि मेरे पिता का वध किसने किया है?
मैं आप से यही जानना चाहता हूँ। मुझ पर कृपा कीजिए।’ कहते-कहते उनके पाँवों पर लोट गया।
महाराज ने मुझे उठाकर बिठाया, कहा, ‘अभी तुम्हारी खेलने-खाने की अवस्था है। स्वास्थ्य की ओर ध्यान दो। अभी राजनीतिक उठा-पटक से अलग रहना ही उचित है।’
‘पर महाराज, अभी मैंने जल नहीं ग्रहण किया है। जब तक पितृवध करने वाले का पता नहीं चल जाता, मैं अन्न-जल नहीं ग्रहण कर सकूँगा।’
‘तुमने यह अप्रीतिकर निर्णय कैसे ले किया? शिव....शिव.......बम भोले यह तुमने क्या कर दिया? इस दुधमुँहे बच्चे को बुद्धि दो भोले शंकर ।’
मेरी आँखें भर आई थीं। महाराज ने महारानी को बुलवा लिया। वे कह उठीं ‘क्या हुआ बेटे,’ ‘इसे ले जाओ, तुम्हारी ममता इसे सदबुद्धि दे सकेगी।’
‘पर महाराज,’ मेरे मुख से निकलते ही महाराज भी उठ पड़े। मुझे महारानी के साथ भेज दिया।
महारानी अपने कक्ष में ले गईं। अत्यन्त स्नेह से पूछा, ‘बात क्या है?’ मैं कुछ कहता इसके पूर्व ही उन्होंने सेविका को उपाहार लाने भेज दिया। मैं सम्पूर्ण घटना चक्र का विवरण दे अपने मूल प्रश्न पर आता, इसके पूर्व ही उपाहार-पूए और अँचार, आ गया। ‘जब तक मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं मिल जाता, मैं अन्न-जल नहीं ग्रहण करूँगा महारानी माँ।’ मेरे इतना कहते ही उन्होंने पूछ लिया’, ‘तेरा प्रश्न क्या है?’
’माँ, मेरे पिता का वध किसने किया है?’ मेरा प्रश्न सुनते ही उनका आरक्त मुखमण्डल सफेद हो गया। वाणी नहीं फूट सकी। लगा कि वे किसी दूसरे लोक में खो गईं। ‘माँ मेरे प्रश्न का उत्तर?’
वे दूसरे लोक से लौटीं अवश्य, पर एक भी शब्द बोल न सकीं।
‘माँ मेरा प्रश्न क्या इतना जटिल है?यदि मेरे पिता का वध हुआ तो उसका नाम बताने में कोई रहस्य है माँ?’
‘रहस्य ही समझ ले बेटा।’
‘पर मैं रहस्य जानना चाहता हूँ। सत्य को आवरण से ढकने की इतनी आवश्यकता क्यों है?’
‘अभी तू बच्चा है। पात्र होते ही तुझे रहस्य ज्ञात हो जाएगा।’
‘माँ, मैं बच्चा नहीं हूँ। मैं भला चंगा व्यक्ति हूँ। उचित अनुचित की पहचान कर सकता हूँ।’
‘नहीं रे, तू अभी बहुत छोटा है। तेरी आँखों से फूल झरते हैं। कुछ दिन बाद तुझे सब पता चल जाएगा। थोड़ा धैर्य रख।’
‘यही तो नहीं हो सकता माँ। मुझे बताओ। देवता, दानव, अवधूत किसने रोक दिया है आपको बताने से? रहस्य का पर्दा उठाने में इतना भय क्यों लगता है माँ?’
‘भीत नही हूँ बेटे।’
‘तो सच बताने में इतनी देर क्यों करती हैं माँ? यदि आप ने बताया नहीं तो मैं प्राण दे दूँगा।’
‘ऐं, तेरे प्राण क्या इसीलिए हैं?’
‘हाँ माँ, मेरी वेदना को क्यों नहीं समझतीं आप?’ ‘इतना कहते ही मेरी आँखों से अश्रुधारा बह चली। माँ भी विचलित हो उठीं। उन्होंने कहा ‘बैठ’ और महाराज से परामर्श करने चली गई। उन्होंने माँ को भी बुलवा लिया, नन्ना को भी। लौटकर आई तो नन्ना, माँ साथ थे। हिचकियाँ लेकर, बड़ी वेदना के साथ टुकड़ों टुकड़ों में उन्होंने सम्पूर्ण विवरण दिया। पूए अब भी रखे थे जैसे ही उनकी बात समाप्त हुई, उन्होंने कहा ‘पूए खा’। मैंने उनके आदेश का पालन किया।
‘नन्ना अब पितृ हन्ता से दाँव लेना है। आप तैयारी कराइए। माँ हमें आशीष दीजिए’। मैं महारानी के चरणों में बैठ गया। ‘यही संकट था बेटा, इसीलिए तुमसे बात अभी तक छिपाई गई।’
‘पर अब तो पता चल गया है। मैं जवान हो रहा हूँ। अब एक क्षण के लिए भी देर करना अपराध है माँ।’
‘अभी तुम बच्चे हो। कुछ दिन बाद इसे सम्पन्न करना अधिक संगत होगा बेटे। तब तक शक्ति अर्जित करो।’
‘माँ, अब नन्ना को आज्ञा दीजिए, सेना सन्नद्ध करें।’
‘मैं अभी कैसे अनुमति दे पाऊँगी?’ माँ की आँखों में अश्रु आ गए। नन्ना भी कसमसा उठे।
‘नहीं माँ, मैं महाराज से अनुमति लेकर ही रहूँगा।’ इतना कहकर मैं महाराज के मन्त्रणा कक्ष की ओर चल पड़ा। पुरुषोत्तम भी आखेट से लौट आए थे। उन्हें मैंने सारी बात बताई। वे भी उछल पड़े, कहा, ‘अब देर करने की आवश्यकता नहीं।’
दोनों महाराज के पास गए। महाराज से निवेदन किया गया। वे अनुमति देने के लिए प्रस्तुत नहीं हो रहे थे। पर हम लोगों के दृढ़ संकल्प से, वे भी किसी प्रकार पिघले। उन्होंने चाचा सैयद को बुलवाया। उनसे बात की। उन्हीं के नेतृत्व में अभियान का बिगुल बजा। नन्ना, पुरुषोत्तम , देवा, चाचा सैयद और मैं पाँचों ने मिलकर योजना बनाई। माँ ने कहा।, ‘मैं भी चलूँगी।’ वे भी तैयार हो गईं।
‘प्रिये, पिछली रात यात्रा में बीत गई। अब रात-रात अभियान की तैयारी में ही जुटा रहता। प्रिये, जिसका जीवन ही पितृवध से प्रारम्भ हो उसकी व्यथा समझ सकती हो।’
‘समझ रही हूँ। आपकी व्यथा आज भी मुझे भिगो रही है।’
‘प्रिये,योगी, संन्यासी हमारे समाज के आदरणीय जन हैं। योजना बनी कि हमलोग पहले संन्यासी वेष में माण्डव गढ़ के भीतर की जानकारी लें, फिर सम्मुख युद्ध का आह्वान करें। इसीलिए जोगियों की ऐसी गुदड़ियाँ बनीं जिनमें सुरक्षा हेतु अस्त्र भी रखे जा सकें। और जानती हो? परीक्षण के लिए हम लोगों ने महारानी के द्वार पर भिक्षा माँगी। वे भी हमें पहचान नहीं सकीं। हमने हँसकर बताया तो उनकी आँखें चमक उठीं। उन्होंने हमें आशीष दिया।
माण्डव गढ़ का कोट बबूल वन से आच्छादित था। वह कोट का कवच था किन्तु हमारे लिए शरणस्थली बन गया। सेना को बबूल वन में विश्राम करते छोड़ हम पाँच जन संन्यासियों के वेष में माँ से आशीष ले, प्रतोली द्वार पर पहुँचे। कोट पाल ने हमें प्रणाम किया और द्वार खोल दिया। कोट के अन्दर का दृश्य अत्यन्त सम्मोहक था। उसी में चाचा सैयद की सारंगी, नन्ना का डमरू, पुरुषोत्तम का एक तारा, देवा की खँझड़ी और मेरी बाँसुरी बज उठी। नवयुवक जोगियों को देख, सभी आश्चर्य करते। पर हमारा कार्य तो छानबीन करने का था, हम गीत गाते बजाते पर दृष्टि कोट के परिवेश पर ही रहती।
कोट की बाह्य दीवारों का निरीक्षण करते गाते-बजाते हम माण्डव में घूम रहे थे। इसी बीच एक सेविका ने संदेश दिया कि महारानी जोगियों का गायन सुनना चाहती हैं। हमें प्रसन्नता हुई। अब अन्तरंग महलों तक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। हम अन्तःपुर की ओर बढ़ गए। महारानी ने हमारा स्वागत किया। हमारे गायन और संगीत ने उन्हें मुग्ध कर दिया। उनकी बालिका विजयम्मा आ गई।
उसने भी संगीत सुना। पर उसकी दृष्टि मुझसे हट नहीं रही थी। मैं त्रिभंगी मुद्रा में खड़ा था। उसने कहा ‘माँ, छोटे जोगी की मुद्रा तो नृत्य की मुद्रा है, क्या नृत्य नहीं होगा?’ गायन के साथ ही मुझे नृत्य का भाव प्रदर्शन भी करना पड़ा। महारानी ने उपहार देना चाहा। मेरे मुख से निकल गया; अभिज्ञान हेतु कोई.......।’ मेरे इतना कहते ही विजयम्मा ने गले का हार निकाल कर माँ के हाथ में दे दिया। ‘यही दे दीजिए माँ’, उसने कहा! दूसरे ही क्षण नौलखाहार मेरे हाथ में था। विजयम्मा उठी और अपने प्रासाद की ओर चल पड़ी। हम पाँचो जोगी भी चल पड़े। कुछ डग ही बड़े होंगे कि विजयम्मा की सेविका आ पहुँची। उसने कहा ‘छोटे जोगी को रानी जू ने बुलाया है। हम सभी ने विचार किया। मुझे सेविका के साथ जाने की अनुमति मिली। चाचा तालन के नेतृत्व में गायन होता रहा।
विजयम्मा का प्रासाद अमूल्य वस्तुओं का संग्रहालय था। उसकी चित्रशाला के विविध चित्र मन को मुग्ध कर रहे थे। दीवार के निकट एक चित्र देखकर मैं चौंका। वह मेरा ही चित्र था। मैं उसे देखता रहा, पर मन के अन्दर आशंकाएँ उठने लगीं।
यदि मैं पहचान लिया जाऊँ तो? इसी बीच विजयम्मा आ गई। उसने मोंहक वस्त्र
धारण किया था। आते ही उसने दर्पण को इस तरह घुमाया कि मेरा मुखमण्डल प्रकाश से उद्दीप्त हो उठा। मेरी पलकें बन्द हो गई। एक पेटिका खोल उसने बीसों चित्र निकाल लिए। वे सब मेरे ही चित्र थे विभिन्न काल्पनिक मुद्राओं के चित्र दिखाते हुए उसने कहा, ‘मैं आपको पहचान गई हूँ। यह आप के ही चित्र हैं न?’ मैं क्या कहता? सभी चित्र मेरे ही थे। ‘मैंने आपको एक बार देखा था तभी से आप मेरी पलकों से अलग नहीं हो सके। यह छद्म वेष क्यों धारण कर लिया?’ उसने पूछ लिया।
मेरे चुप रहने पर पुनः वही प्रश्न। मेरी आशंका पढ़ते हुए उसने कहा, ‘यहाँ हम आप के अतिरिक्त कोई नहीं है, आप निस्संकोच बात कर सकते हैं।’ ‘पर हमारी आपकी बात राज परिवार तक न पहुँचे।’
‘नहीं पहुँचेगी। आप निश्चिन्त रहें।’
‘मैं अपने पिता का प्रतिशोध लेना चाहता हूँ।’
‘प्रतिशोध! उसने मुझे बैठ जाने के लिए कहा और स्वयं भी आसन्दी पर बैठ गई। अपना मुखमण्डल दाहिने हाथ की हथेली पर टिकाते हुए उसने मेरी ओर देखा। आँखों को मन की वेदना प्रतिबिम्बित करते हुए मेरा शरीर भी थरथरा उठा। विजयम्मा की आँखें बरसने लगीं। मैं चुपचाप बैठा रहा। कुछ क्षणों से सँभलती हुई बोल उठी,‘अब जब मैंने वचन दे दिया है किसी को कुछ मालूम नहीं होगा। पर माण्डवगढ़ पर विजय पाना सरल नहीं है।’
‘उसे सरल करने के लिए मैं राजकुमारी के सम्मुख इस वेश में उपस्थित हुआ हूँ।
‘पर राजकुमारी इसमें क्या कर सकेंगी?’
‘राजकुमारी की कृपा मेरे लिए बहुत बड़ा सम्बल है।’ उसकी भोली आँखों में द्वन्द्व के बादल तैरे अवश्य, पर कुछ ही क्षण में उसने कह दिया, ‘मैं सहायता करूँगी।’
‘यह आपका सम्मोहन था।’
‘दोनो किशोर थे कौन किससे सम्मोहित था कह नहीं सकता।’ पर वह उठी और प्रासाद के पीछे उपवन में आ गई। मैं भी पीछे-पीछे गया। उसने दुर