Kanchan Mrug - 9-10 in Hindi Moral Stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | कंचन मृग - 9-10. विश्वास नहीं होता मातुल

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कंचन मृग - 9-10. विश्वास नहीं होता मातुल

9. विश्वास नहीं होता मातुल

आल्हा प्रस्थान का निर्देश दे ही रहे थे कि माहिल आते दिखाई पड़ गए। आल्हा रुक गए, माहिल को प्रणाम कर पूछा, मातुल कोई नया संदेश ?’ कोई नवीन संदेश नहीं है। सत्ता केन्द्र षड्यन्त्र के केन्द्र बनते जा रहे हैं जिस पर विश्वास कीजिए, वही जड़ काटने का प्रयास करता है। आपके निष्कासन से मुझे भयंकर पीड़ा हो रही है’, कहते-कहते माहिल की आँखों में आँसू आ गए।
‘इतने दिन का ही अन्नजल विधि ने लिख रखा था मातुल । माँ शारदा की अनुकम्पा बनी रहे तो सभी कष्टों का निवारण होता रहेगा। महाराज सुखी रहें।
‘सुखी कैसे रहेंगे माण्डलिक ? आप दोनों भ्राताओं के कारण ही वे निश्चिन्त थे। अब कैसे महोत्सव सुरक्षित रहेगा ?’
‘माँ शारदा सबकी रक्षा करेंगी।’
कुँवर उदय सिहं भी इसी बीच आ गए। उन्होंने मातुल को प्रणाम किया। माहिल ने एकान्त में बात करने की इच्छा व्यक्त की। आल्हा के संकेत करते ही अन्य लोग हट गए। माहिल ने उदय सिंह को भी निकट बैठा लिया।
‘भगवान महावीर की अनुकम्पा से मैं किसी प्रकार जान सका’ बहुत धीमे स्वर में उन्होंने कहना प्रारंभ किया, ‘तीन दिन पहले शिशिरगढ़ से पुरुषोत्तम का एक दूत पत्र लेकर आया था। उसने पत्र सीधे महाराज को निवेदित किया। उस पत्र का अवलोकन मैं भी नहीं कर सका । जाने क्या था उसमें कि उसके बाद ही महाराज ने निष्कासन का आदेश प्रसारित करा दिया । मैं चकित हूँ। इस आदेश के बाद मैं सो नहीं सका हूँ।’
‘लेकिन पुरुषोतम तो सहोदर से भी अधिक प्रिय हैं मातुल’, आल्हा बोल उठे। कुँवर उदयसिंह भी जैसे आकाश से धरती पर आ गिरे हों।
‘विश्वास नहीं होता मातुल’, उदय सिंह ने कहा।
‘यही नियति का चक्र है। जहाँ आस्था है, वहीं आस्था का संकट है । जो अविश्वसनीय रहा, वही विश्वसनीय बन जाता है। मैं क्या कहूँ?’ एक बार माहिल की वाणी काँप उठी किन्तु वे सँभल गए। उनके अश्रु विगलित नेत्र देखकर कौन अविश्वास कर सकता था? आल्हा और उदय सिंह की भी आँखें भर आईं।
‘महाराज ने उचित नहीं किया। पर महाराज, महाराज हैं। उनका आदेश।’
उन्होंने उत्तरीय सँभालते हुए कहा। उनके शब्द मानो पीड़ा के अथाह समुद्र से निकल रहे हों।
‘पर मैं जब तक जीवित हूँ, आप लोगों को चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं। कहो तो मैं स्वयं आपके लिए व्यवस्था करूँ। इसी हेतु मैं भागकर आया हूँ।’
‘मातुल, महाराज ने जब निष्कासित कर दिया है, महोत्सव की सीमाओं में निवास उचित नहीं हैं,’ आल्हा की वाणी स्पष्ट थी।
‘मैंने विदेशी शक्तियों के विरुद्ध तब संघर्ष किया, जब अबोध था मातुल । मिथिलापति की सहायता की। यह शरीर अभी शिथिल नहीं हुआ है। माँ शारदा की कृपा से आश्रय का प्रबंध हो ही जाएगा।’
‘आप जैसे माण्डलिक से यही आशा की जा सकती है, ‘ माहिल ने उठते हुए कहा।





10. शिविकाएं निकल पड़ीं-

पानी का बरसना रुक गया था। पर महोत्सव की धरती पानी पाकर चिपकने लगती है। जगह-जगह पैर धँसने लगते हैं। जो भी बाहर जाता, उसके पैर कीचड़ से सन जाते। मार्ग की कठिनाई, जगह-जगह नदी नालों का उफान, पर माण्डलिक को घर से निकलना ही था। सधे हुए अश्वारोहियों एवं पैदल सैनिकों को साथ ले माण्डलिक घर से निकल ही रहे थें कि एक वृद्धा आकर रोने लगी। माण्डलिक ने रोने का कारण पूछा। उसका रोना बन्द न हुआ। पुनः पूछने पर उसने कहा, ‘मेरे एक ही बेटा है। वह आपके साथ जाना चाहता है। मैं उसे रोकती हूँ। वृद्धावस्था में वही एक सहारा है पर वह रुकने के लिए तैयार नहीं होता।’
माण्डलिक ने युवक को बुलवाया। उसे समझाते हुए कहा ‘माँ की सेवा परमधर्म है। तुम्हारे न रहने पर माँ को कष्ट होगा। इसीलिए यहीं रुक कर माँ की सेवा करो।’ बालक की आँखों में अश्रु तैरने लगे उसने कहा, ‘मैंने वीरवर उदय सिंह के साथ रहने का व्रत लिया है।’
‘पर माँ की सेवा उससे बड़ा व्रत है।’
‘मेर दृष्टि में आपका निष्कासन मेरा निष्कासन है। ऐसे में......
‘पर माँ ?’
‘माँ भी साथ चले, इसके लिए मैं कई बार आग्रह कर चुका हूँ।’
‘पर मैं इस नगर को छोड़कर नहीं जा सकती।’
‘माँ, अब तुम्हीं कोई निर्णय करो’, माण्डलिक ने कहा।
‘यदि यही विधि ने रच रखा है तो इसे कौन मेट सकता है? जाओ बेटे, मैं इस धरती से बँधी हूँ, पर माँ के दूध की लाज रखना।’
बेटे ने माँ के चरण छुए। माण्डलिक ने वृद्धा की आजीविका हेतु धन की व्यवस्था कर आशीष माँगा।
माण्डलिक के पंच शब्द पर सवार होते ही लोग डिंडकार छोड़कर रो पड़े। सबसे विदा लेते हुए वे आगे बढ़ने लगे। उनके साथ ही सुवर्णा, पुष्पिका , माँ देवल तथा अन्य महिलाओं की शिविकाएँ निकल पड़ीं। जन समूह पीछे-पीछे चलने लगा। अश्वारोहियों का एक सधा हुआ शस्त्रों से सज्जित दल उदय सिंह के साथ चला। महोत्सव छोड़ने का सभी को कष्ट था। सभी ने हाथ जोड़कर माँ चन्द्रिका को प्रणाम किया। अश्वों ने धरती को एक बार सूँघा, आर्त्तस्वर में निनाद किया और चल पड़े। बालक ईंदल श्यामकर्ण पर सवार हो रूपन के साथ चल रहा था। कुछ दूर चलने पर आल्हा ने जनसमूह से हाथ जोड़कर लौटने की प्रार्थना की। समूह में पुनः आर्त्तनाद उभरा। माण्डलिक ने पुनःहाथ जोड़ा ‘आपका स्नेह आजीवन स्मरण रहेगा पर आप लोग अब यहीं से.....’ कहते-कहते माण्डलिक का स्वर भी भर्रा गया। जनसमूह वहीं रुक गया। माण्डलिक का दल धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा। जनसमूह वहीं तब तक रुका रहा, जब तक दल आँखों से ओझल नहीं हो गया।
बादलों की गड़गड़ाहट के साथ ही बारिश पुनः तेज हो गई। पुरा दल भीग गया लेकिन यात्रा रोकी नहीं गई। इसी बीच कुछ अश्वारोही भी दल के साथ चलने के लिए आ गए। उनकी श्रद्धा देखकर माण्डलिक ने साथ चलने की आज्ञा दे दी। महोत्सव से ज्यों-ज्यों दल दूर होता गया, उसकी गति बढ़ती गई। दल को वेत्रवती एवं कल्माषी पार कर के ही विश्राम करना था। भूख प्यास भुलाए सैनिक भाग रहे थे। बरसात की मिट्टी चिपकती, उसे छुड़ाते फिर भागते। तीसरा प्रहर होते होते सम्पूर्ण दल वेत्रवती के तीर इकट्ठा हो चुका था। वर्षा ऋतु में वेत्रवती पूरे उफान पर थी। घाट के नाविकों ने दल को पार करने की व्यवस्था की। हाथी और अश्व तैराकर पार किए गए। दल को पार उतरने में समय लगा किन्तु दल को आज ही कल्माषी भी पार कर लेनी थी। इसीलिए पूरे दल के लोग तीव्रगति से आगे बढ़े। शिविकाओं के कहार भागते रहे। सूर्यास्त होते-होते दल कालिन्दी के निकट आ गया। घाट पर नाविक कम थे। उदयसिंह के साथ चल रहे केवटों ने डाँड़ सँभाल लिया। कालिन्दी के विस्तृत फाँट को देखकर सामान्य नाविकों के छक्के छूट जाते पर जो जीवन हथेली पर रखकर चलते थे, उन्हें अगाध जलराशि भी कैसे डरा सकती थी? नदी को पार करने में पूरा एक प्रहर लग गया। नदी तट पर ही शिविर लग गए। नटों ने शीघ्रता से सम्पूर्ण व्यवस्था सँभाल ली। बलाध्यक्ष भोजन विश्राम की व्यवस्था का निरीक्षण कर रहे थे कि माण्डलिक ने उन्हें बुला भेजा। माण्डलिक, उदय सिंह, देवा बैठे थे। बलाध्यक्ष को लेकर रूपन भी वहाँ पहुँच गया। माण्डलिक ने देवा की ओर देखा । देवा ने गणना करके बताया कि कान्यकुब्ज नरेश के यहाँ चलने का प्रस्ताव ज्योतिष की दृष्टि से भी संगत है। चाचा सैयद वहाँ हैं, उनसे हमें सहायता मिलेगी। प्रस्ताव का अनुमोदन होते ही माण्डलिक माँ शारदा की आराधना हेतु उठ पड़े। उदय सिंह, देवा, बलाध्यक्ष, रूपन सभी अपने दायित्वों को निभाने हेतु चल पड़े।
नगर के लोगों को जब आल्हा के आगमन की जानकारी हुई, वे उनसे मिलने के लिए दौड़ पड़े। कालप्रिय उस समय विकसित नगर था। लेखन सामग्री एवं कागज बनाने का काम कुशलता से किया जाता था। कालप्रिय के पत्रों की बड़ी माँग थी। दूर-दूर से व्यवसायी आकर इन पत्रों को ले जाते। उसके साथ ही पीतल एवं ताम्र पत्रों पर लिखने का काम भी बड़ी कुशलता से किया जाता था।