Kanchan Mrug - 5 in Hindi Moral Stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | कंचन मृग - 5. सत्ता को कभी-कभी निर्मम होना पड़ता है

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

Categories
Share

कंचन मृग - 5. सत्ता को कभी-कभी निर्मम होना पड़ता है

5. सत्ता को कभी-कभी निर्मम होना पड़ता है-

महारानी मल्हना मूर्च्छित हैं। सेविकाएं उन्हें सँभालने का प्रयास कर रही हैं, उनकी आँखों से निरन्तर अश्रु बह रहे हैं। चित्रा भी पहुँच कर पंखा झलने लगती है। कुछ क्षण में महारानी की आँख खुलती है। उसी समय मन्त्रिवर माहिल प्रवेश करते हैं। महारानी की प्रश्नवाचक मुद्रा माहिल को अन्दर तक बेध देती है पर वे उत्तरीय सँभालते हुए बोल पड़ते हैं-
‘महाराज ने उचित ही किया महारानी। एक राज्य में दो सत्ता केन्द्र नहीं हो सकते जैसे एक म्यान में दो तलवार नहीं रह सकती।’
महारानी ने माहिल पर एक बेधक दृष्टि डाली, फिर आँखें मुँद गईं।
‘महाराज की आज्ञा का उल्लंघन नहीं हो सकता महारानी। सत्ताधारी को अपनी शक्तियों का अनुभव कराना ही होता है। राजशक्ति को कभी-कभी निर्मम होना पड़ता है। यह उसकी विवशता है और उसकी शक्ति भी। राजदण्ड का प्रयोग न करने वाला शासक नहीं रह जाता’। माहिल बताते रहे।
महारानी की आँखें पुनः खुल गईं। वे कुछ कहना चाहती थीं किन्तु कहते-कहते रह गईं। माहिल कहते रहे, ‘ब्रह्मजीत और समरजीत को कितने लोग जानते हैं। वे राजकुमार हैं किन्तु वनस्पर बन्धु आल्हा एवं उदय सिंह जनमानस में घर कर रहे हैं। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि दोनों के मन में राजसत्ता की महत्त्वाकांक्षा उग आए? आज वे आज्ञापालन में असमर्थता व्यक्त करते हैं कल महाराज बनने की इच्छा पाल सकते हैं। वट वृक्ष की विशालता तभी तक है जब तक उसके नीचे कोई दूसरा वृक्ष न उगे। सत्ता के लिए यह अस्मिता का प्रश्न है। चन्देल वंश की प्रतिष्ठा का प्रश्न है।’
महारानी ने केवल ‘हूँ’ कहा। आँखें खुलीं किन्तु कुछ खोजती सी। माहिल आसन्दी पर बैठते हुए कहने लगे, ‘इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है। महोत्सव की मर्यादा के अनुरूप ही यह कार्य किया गया है। गढ़ा, मालवा अन्तर्वेद तक विस्तृत भूखण्ड का नरेश सामन्तों की कृपा पर कैसे निर्भर करेगा? उसकी कशा में तेज होना आवश्यक है महारानी।’ महारानी उठकर बैठ गईं। उन्होंने कुछ इस तरह माहिल पर दृष्टि पात किया जैसे वे अब उनकी वाणी सुनना नहीं चाहतीं। माहिल उठे, सधे कदम रखते हुए चले गए। चित्रा चन्द्रा के आवास की ओर दौड़ गई। सत्ता केन्द्रों पर होने वाले घात-प्रतिघात महारानी के मस्तिष्क में उभरने लगे। इसी बीच चन्द्रा चित्रा के साथ आ गई।
‘क्या हुआ माँ ?’ चन्द्रा ने प्रश्न किया।
महारानी के संकेत पर सेविकाएँ अलिन्द में चली गई।
‘कुछ नहीं, केवल सत्ता का भार ढोना है।’
‘मैंने कुछ समझा नही माँ!’
‘माण्डलिक और लहुरे वीर को निष्कासित कर दिया गया है।’
‘यह आपने किया है माँ?’
‘सत्ता से सदा जुड़ी रही हूँ। न कैसे कर सकूँगी?’
‘यह आपने क्यों किया माँ? क्यों किया ?’ चन्द्रा की आँखों से आँसू ढरक पड़े।
‘सत्ता केन्द्रों के समीप जो कुचक्र चला करता है, उन्हें मैं सदैव काटने का प्रयास करती रही। पर महाराज का आदेश ब्रह्मरेख हो रहा है।’
‘तूने दोनों भाइयों को भीतर से जाना है न?’
‘भय है लोगों को कि वे महत्त्वाकांक्षी हो सकते हैं।’
‘माँ, व्यक्ति की पहचान क्या इसी प्रकार करोगी? जो सदा अपना सब कुछ बलिदान करता रहा, जिसने महोत्सव की प्रतिष्ठा को अपनी प्रतिष्ठा समझा, जो आपको माँ और मुझे सहोदरा समझता रहा, तुम्हारे चरणों पर जिसने अपना सब कुछ अर्पण कर दिया, उसके महत्वाकांक्षी होने का प्रश्न ही नही पैदा होता माँ। उन्होंने विभिन्न वर्गो एवं जातियों में समरसता उगाने का प्रयास किया । पर वे लोग जिन्हें जनमानस के बीच वैषम्य अधिक रुचिकर प्रतीत होता है, अधिक सक्रिय हो उठे। अकेले कोई ऐसा नहीं कर सकता था। एक पूरा वर्ग इसमें जुड़ गया है माँ, महाराज को अस्त्र बना लिया गया है। माँ तुमने मातुल की सीमाओं का ध्यान नहीं रखा। इससे कुछ लोगों की इच्छापूर्ति तो होगी,पर महोत्सव की सीमाएँ अरक्षित हो जाएँगी। जो आज आँख उठाकर देख नहीं सकते, पूरे साम्राज्य को हड़प जाना चाहेंगे। कोई क्यों नहीं सोचता माँ ? महामन्त्री देवधर क्या कर रहे हैं? पुरुषोत्तम और सलक्षण को विश्वास में नहीं लिया गया। महाराज को उन्होंने परामर्श क्यों नहीं दिया?’
चित्रा दौड़ती हुई महारानी के सम्मुख आ खड़ी होती है। ‘महादेवी, महाराज ने दोनों भाइयों से मिलना भी स्वीकार नहीं किया। वे महाराज और महादेवी के चरणों में कुछ निवेदन करना चाहते थे पर महाराज ने अस्वीकार कर दिया। ’
‘महारानी शीघ्रता से अलिन्द की ओर चल पड़ीं पीछे-पीछे चन्द्रा भी।