Prem Gali ati Sankari - 143 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 143

Featured Books
Categories
Share

प्रेम गली अति साँकरी - 143

143====

===============

मंगला को देखते ही जाने क्यों महसूस हुआ था कि आज कारूँ का खज़ाना हाथ लग गया था और मैं उसका कोई लाभ उठा सकूँगी लेकिन कैसे संभव था? मंगला को अपनी मालकिन के साथ जाना था, वह गई | उसे रोकने की कोशिश भी करने का कोई बहाना मेरे पास नहीं था और वह भी उस स्थिति में !

सब लोग अपना ‘होम वर्क’करके ला चुके थे, उनके अपने कागज़ उनके सामने थे जिससे हर प्वाइंट पर चर्चा की जा सके, सब अपने विचारों को एक दूसरे के साथ साझा कर सकें, कहीं कोई बात छूट न जाए | 

“पता नहीं क्यों लग रहा है कि मंगला फँसी हुई है? शायद इससे कुछ बातें पता चल सकें और अगर इस रहस्यमई औरत के पास यह फँसी है तो इसको भी निकाला जाए | प्रश्नों की कतारें और उत्तर एक भी नहीं!

ऐसा मुझे ही नहीं, सबको महसूस हो रहा था | 

भाई से रोज़ बात होती, वहाँ पर पापा का इलाज डॉक्टर्स की काबिल टीम कर रही थी जो भारत के डॉक्टर्स के भी संपर्क में थी लेकिन पापा के स्वास्थ्य में कोई सुधार दिखाई नहीं दे रहा था | सब परेशान !

आज के जमाने में विज्ञान की इतनी तरक्की के बाद मंत्र, तंत्र पर लोगों का विश्वास कम होता जा रहा है लेकिन आज भी दूर बैठे हुए अपने स्वार्थ के लिए ‘काले-जादू’ का प्रयोग किया जाता है और अपने लाभ के लिए दूसरों का नुकसान करने में लोग पीछे नहीं हटते | न चाहते हुए भी हम सब इन सब बातों पर सोचने के लिए मज़बूर हो रहे थे | किसी से कुछ जिक्र करना यानि आज विज्ञान के इस दौर में, शिक्षित वर्ग में मूर्ख कहलाना | जब अपने साथ कुछ ऐसी वैसी घटनाएं घटित होती हैं तब अनचाहे, अनायास ही हम अपने साथ कुछ घटनाओं को जोड़ लेते हैं या वे स्वयं ही जुड़ जाती हैं | 

कई दिनों से मन बहुत अजीब सा था, वैसे ही नींद का ठिकाना तो कभी नहीं था मेरा लेकिन आजकल तो कितनी भी शरीर व मस्तिष्क से थकान हो जाए, नींद के स्थान पर झटोके आते रहते और मैं कभी बैठकर, कभी लेटकर झटोकों में ही पूरी रात निकाल देती | मन में अच्छे ख्याल आने जैसे बंद ही होने लगे थे और मन भागने को करने लगा था लेकिन कहाँ जा सकती थी? यदि मैं इस प्रकार की किसी भी बात का ज़िक्र अपनी टीम से करती तब तो वे मेरे लिए भी चिंतित हो उठते यानि मैं और उलझाव का कारण बन जाती | 

रात के लगभग दो बजे होंगे, हाँ, संस्थान के कुछ दूरी पर एक चार रास्ता था जिस पर हर घंटे बाद समय पुकारता और उतने ही घंटे बजते जो समय होता | इस चार रास्ते को घंटे वाला चार रास्ता कहकर पुकारा जाता था यद्धपि मैं बचपन से उन घंटों की आवाज़ों को सुनती आ रही थी लेकिन आदत पड़ने के कारण वे अब ध्यान में भी न आते | हाँ, जब मैं अपने कमरे की प्यारी खिड़की पर किसी खास मूड में बैठती तब रात के समय वे सुनाई देते और उस समय उन घंटों की आवाज़ के सहारे मैं उत्पल के पास पहुँच जाती | सोचती, इतना भी क्या नखरे दिखाना, बहुत हो गया उत्पल !

सोचती, मैंने तुम्हारे साथ कुछ गलत नहीं किया था, प्रेम क्यों व कैसे हुआ, नहीं जानती थी लेकिन तुम्हारा प्रेम अच्छी तरह जानती, समझती थी और इस अव्यवहारिक प्रेम से मुक्त करने के लिए न जाने कैसे-कैसे तुम्हें समझाया व अपनी बात कहने की कोशिश की थी लेकिन---बाज़ी तो पलट ही गई थी ;

‘न खुदा ही मिला, न विसाले-सनम !’

इधर भाई अमोल के व्यवहार से मुझे महसूस होने लगा था कि उसको मेरे और उत्पल के बीच के रिश्ते का पहले संभवत:भ्रम था लेकिन अब वह जिस प्रकार से मुझसे बात करता, मुझे लगता कि मेरे और उसके बीच के मोह के धागे की रील उसके सामने खुल रही है | वह मुझसे बार-बार कहता कि मैं उसका पता लगाऊँ क्योंकि जब पहली बार यह सब कुछ हुआ था सबसे पहले उसने ही इस पर एतराज़ किया था | 

भाई को यह भी ध्यान था कि उत्पल ने कहा था कि वह जो सब कुछ हुआ है यानि शर्बत पीने से सबका इतना प्रभावित हो जाना, यह केवल प्रमेश से अमी की शादी करवाने की बात नहीं है वरन धन-संपत्ति का लालच है | उत्पल ने कब कहा और कब भाई ने सुन लिया मुझे तो बिलकुल भी पता नहीं चला था क्योंकि मैं उस समय पलायन कर रही थी, हाँ, पलायन ही तो था वह !मैं खुद से भी लज्जित थी और भाई मुझसे सब बातें जन लेना चाहता था | कैसे क्या बताती उसे? पशोपेश में थी | 

अचानक दो घंटे बजने की आवाज़ आई और फुल ए.सी के चलने के बावज़ूद भी मैं भयंकर पसीने से भीगने लगी तो अपनी खिड़की के पास आकर खड़ी हो गई | नज़र अचानक बाहर पड़ी, क्या था? कुछ तेज़ हवाओं की आवाज़ सी, कुछ परछाइयाँ जो इधर-से उधर चल रही थीं या फिर मुझे महसूस हो रही थीं | शायद नींद के झौंके में मैंने अपनी आँखों को अपनी खिड़की के काँच पर जैसे चिपका दिया था या पता नहीं क्या था ऐसा महसूस हो रहा था पापा बिलकुल ठीक हैं बस केवल एक भ्रम-जाल है | देखा जाए तो यह सब कुछ, जीवन भी तो एक भ्रमजाल था | जीवन, मृत्यु, हम इंसानों का इस धरती पर जाने कब से पदार्पण !सब ही तो भ्रम है | कौन कह सकता है कि हम इस दुनिया के वासी हैं या फिर किसी और दुनिया के? और वह दूसरी दुनिया कौनसी है? 

क्या कोई साधु-संत, कोई तथाकथित अपने को महान बताने वाला सच में जीवन को समझने का दावा करने वाला समझाने की बात छोड़िए, खुद भी समझ सका है कि यह जीवन आखिर है क्या? क्यों हम इस सांसारिक चक्कर में घिरते रहे रहे हैं ? 

देह से जुड़े कितने प्रश्न सामने आकर प्रश्न पूछते हैं तो देह का मोह छोड़कर जंगलों में, गुफाओं में जाकर बसने वाले भी उतने ही अनभिज्ञ हैं जितना कोई नौसिखिया बालक जिसे माचिस जलाने से डर लग लगता है, जो अँधेरे में माँ के बिना डर जाता है और माँ के पल्लू को पकड़ना चाहता है | ये जो सब कुछ है इसीलिए तो है न कि पाँच तत्वों से बुना गया हमारा अस्तित्व सामने है लेकिन हम कोई भी उसे पहचानते हैं क्या? क्या यह भी जानते हैं कि हमें आखिर यहाँ, इस संसार में भेजा क्यों गया है? 

“क्या ? अनुभव करने ? ” किस चीज़ का और क्यों? क्या यह अनुभव इतना जरूरी था ? नहीं, शायद इसको ही ऋणानुबंध कहा जाता है | यह कितने जन्मों तक चलेगा आखिर? यानि मनुष्य इसी संसार-चक्र में घूमता रह जाएगा? फिर? 

संवेदनाओं की कड़ी पर कड़ी जुड़ रही थीं, फिर टूट रही थीं और जीवन नाटक का भ्रमजाल अँधेरे से प्रकाश की लकीर की ओर तो कभी प्रकाश की लकीर अंधकार की ओर एक प्राकृतिक बहाव में बहता दिखाई देता लेकिन सच में, समझ में कुछ नहीं आता | 

यही तो है जीवन !!