Hatkadi - 1 in Hindi Short Stories by Ashish Bagerwal books and stories PDF | हथकड़ी - 1

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हथकड़ी - 1

जिंदगी किस मोड़ पर कैसे और कब बदल जाए ये कह नही सकते, ऐसा ही कुछ राजपुरोहित जी के साथ हुआ। हीरालाल जी बहुत ही संपन्न और प्रतिष्ठित कारोबारी थे। हर ओर उनकी प्रतिष्ठा, वैभवता की ख्याति थी।
जन्म से ब्राह्मण पर विचारो और गुणों से महाजन प्रतीत होते थे, समय के साथ परिवर्तन होते रहना चाहिए किंतु कभी कभी परिवर्तन की अनदेखी भी करनी चाहिए ये उनका मूल मंत्र था।
हीरालाल जी के दो पुत्र थे, परंतु उनके कोई पुत्री नही थी इस बात का सदैव वह अफसोस जताया करते थे।
एक माह पूर्व की बात है हीरालाल जी किसी कार्य वश शहर से बाहर अपने नजदीकी रिश्तेदारों से मिलने जा रहे थे, तभी विनायक जी उनसे मिलने पहुंचे , विनायक जी भी कारोबारी ही थे परंतु वह कर्म और धर्म दोनो से ही महाजन थे।
विनायक जी - और महाराज कैसे हो आप?
हीरालाल जी - हम तो कुशल मंगल है बस आप अपना सुनाइए ( हीरालाल जी को देर हो रही थी परंतु वो इस तरह अथिति निंदा भी नही कर सकते थे), पधारिए विनायक जी।
विनायक जी - क्या पधारे महाराज, सुना है कारोबारी मंडल आपसे रूठे हुए हैं, समिति ने आपको दंड स्वरूप कुछ धन दान करने को कहा है (मुंह बनाते हुए)
हीरालाल जी - हां ये बात सच है परंतु हमने क्या गलत कहा था, ये बात सच ही तो हैं यदि व्यापार मंडल के अध्यक्ष किसी युवा व्यक्ती को बनाया जाए तो वो अपनी बात सहजता से औरों तक पहुंचा पाएगा।
बात काटते हुए विनायक जी, किन्तु उन्हें लगता है कि आप अपने बच्चों में से किसी एक को अध्यक्ष बनाना चाहते हैं।
क्या ये बात सही हैं?
विनायक जी ये जानते हुए कि हीरालाल जी कदापि इस पक्ष मैं नहीं है फिर भी उनसे पूछ रहे है क्योंकी वह धूप में खड़े उस व्यक्ती के भाती हैं जो पांवों की जलन शांत करने के लिए वृक्ष की छांव ढूंढ रहा है।
हीरालाल जी - नही, नहीं मैं कदापि इस पक्ष में नहीं हूं, और मुझे तो इस पक्ष में रहना भी नहीं है, ऐसा नही है कि मेरे पुत्र योग्य नहीं है परंतु योग्यता केवल आपके और मेरे समक्ष प्रस्तुत नहीं करनी है (हंसते हुए कहते हैं)।
अरे बेटी वीणा चाय लेके आना, विनायक जी तेज स्वर में कहते हैं
वीणा हीरालाल जी के छोटे बेटे संदीप की पत्नी है बड़ी ही सुशील और समझदार कन्या।
वीणा - जी पिताजी अभी आई।
विनायक जी - और बेटा कैसी हो तुम, हंसते हुए
वीणा - मैं अच्छी हूं, महाजन चाचाजी
विनायक जी - अरे बेटी तुमने तो हमे पहचान लिया, हंसते हुए कहते हैं
मुस्कुराहट के साथ वीणा, पहचानेंगे क्यों नहीं आप तो हमारे पिताजी के घनिष्ठ मित्र हैं और हमारा और आपका परिवार कोई अलग थोड़ी ना है, बस आप अपनो को याद नहीं करते हैं ये अलग बात है।
विनायक जी - अरे बेटा!
हीरालाल जी - बेटा ,संदीप और राजेश कहा है ? वीणा की ओर देखते हुए।
वीणा - पिताजी वो तो सवेरे सवेरे कारोबार के सिलसिले से बाहर चले गए और राजेश भईया कविता को लेने उनके मायेके गए हैं।
विनायक जी बड़े सहज भाव से वीणा को देख रहे थे मानो मन ही मन हीरालाल जी को ये कह रहे हो की ये भी आपकी बेटी ही तो हैं, परंतु उनका कहना उन्हे पसन्द नहीं आए इस लिए खामोश रहना उन्होने उचित समझा।
विनायक जी - अच्छा महाराज अब आज्ञा दीजिए।
हीरालाल जी - हम तो कहते है आप भी हमारे साथ शहर चलिए, कुछ खरीददारी ही हो जायेगी।
नही नही, विनायक जी।
दोनो अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान करते हैं, वीणा भी कमरे मे चली आती हैं....