सामूहिक सेवा से व्यक्तिगत लाभप्रदता तकः आज के आर्य समाज की लुप्त होती गौरवशाली कहानी
डॉ. गुणवती बेन्दुकुर्थी
प्रसिद्ध समाज सुधारक और क्रांतिकारी महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा वर्ष 1875 को आर्य समाज की नीव रखी गयी। आर्य समाज का आदर्श वाक्य, “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्“ विश्व को आर्य बनाते चलो - "हमें भारत के महान ग्रन्थ वेदों से प्राप्त तार्किक ज्ञान का अर्जन कर निःस्वार्थ भाव युक्त मार्ग की ओर निरंतर बढ़ने के लिए प्रेरित करता है।" हैदराबाद शहर में आर्य समाज केंद्र की स्थापना साल 1892 में की गई थी। हैदराबाद पर निजाम के सत्तावादी शासन व्यवस्था के दौरान हो रहे रज़ाकरों के अत्याचारों पर आर्यसमाजियों ने अंकुश लगाते हए जाति व्यवस्था के विरुद्ध युद्ध करने हेतु “ शिक्षा” को अपना हथियार बनाया। इसी क्रम में हम आर्य समाजी शिष्यों द्वारा क्रियान्वित अनूठे तरीके से परिचय प्राप्त करेंगे।
कहानी की शुरुआत हैदराबाद के समीप स्थित एक गाँव में रहने वाले निम्नवर्गीय शूद्र कुल में जन्मे शिवैय्या से होती है। उनकी जीवन कहानी एक व्यक्ति-केंद्रित समाज से समष्टि -केंद्रित समाज में पनपती है । जिस प्रकार एक नदी धारा सागर में प्रवेश कर अपना स्वरूप बदलती है ठीक उसी तरह एक साधारण व्यक्ति भी समाज की लीक पर चल सार्थक अस्तित्व को पा सकता है। आर्य समाज के विशाल, गहरे और व्यापक (बौद्धिक और आध्यात्मिक धारणाओं से समृद्ध) समुद्र के साथ जुड़ने पर शिवैय्या की जीवन रूपी नदी धारा को एक नया दृष्टिकोण मिला। हैदराबाद शहर के निकट के गॉँव में अपने माता-पिता के साथ रहने वाले शिवैय्या की 15 साल की उम्र में 12 साल की रामुलम्मा के साथ विवाह कर दिया गया । कुछ समय बाद वह पत्नी के साथ भाग्यनगर/हैदराबाद बसने आ गए। अपने शहरी जीवन की शुरुआत में उनका दृढ़निश्चयी वरिष्ठ आर्यसामाजी से परिचय होता है। यह परिचय उनके जीवन को विस्तृत दृष्टिकोण देता है । अशिक्षित शिवैय्या के सम्पूर्ण व्यक्तित्व में आमूल परिवर्तन हुआ जिससे उनके परिवार में भी बदलाव दिखने लगा। कुछ समय बाद आर्यसमाजियों द्वारा उनका शिवाजीराव नामकरण कर दिया गया। भारत में प्रचलित प्रथा अनुसार व्यक्ति के नाम के पीछे जुड़ा उपनाम उसके परिवार के इतिहास की जड़ों से हमें जोड़ उनकी “जाति” से भी हमारा परिचय कराता है। यहां “राव” उपनाम उच्चवर्ग कुल से संबंधित है और उस समय शायद ही कोई निम्नवर्ग व्यक्ति उसे अपने नाम के साथ लगाने का धैर्य कर सकता था। यह आर्यसमाजियों की समाज मे व्याप्त जातिपथा के विरुद्ध जंग लड़ने का अनूठा तरीका रहा है जिसने उन्हें लोकप्रिय बनाया । आर्यसमाजियों के इस अनोखे तरीके ने आर्यसमाजी शिवाजीराव के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन किये उनके भीतर की सुप्त चेतना को जाग्रत कर जातिगत भेदभाव और अस्पृश्यता से नायक की भांति सामाना करने की क्षमता का विकास किया। आगे चलकर उन्होंने रज़ाकार विरोधी अभियान में एक आंदोलनकारी बन रज़ाकरों का सामना किया। यह आर्यसमाज के शिष्यों द्वारा सिखाई गयी शिक्षा का ही प्रभाव रहा जिसने एक अहिन्दी भाषी होने जैसे विषय को हिंदी भाषा के सीखने की राह कभी रोड़ा नही बनने दिया। भविष्य में उनके द्वारा हिंदी आर्य समाजी भजनो को स्वयं अपनी कलम से लिख उनका संग्रहण किया ताकि उनकी भावी पीढ़ी लाभान्वित होती रहे । इस तरह समाज मे व्याप्त जातिपथा के विरुद्ध जंग लड़ने के आर्यसमाजियों के कुछ अनूठे तरीके रहे जिन्होंने उन्हें समाज के मध्य लोकप्रिय बनाया।
अपने इसी लोकप्रिय छवि के साथ आर्य समाज ने शूद्र मुक्ति और महिला सशक्तिकरण के लिए अभिनव, मूल्य-संचालित, सहयोगी और व्यवस्थित दृष्टिकोण को अपनाया। आर्यसमाज के इन व्यापक हितकारी दृष्टिकोण को मद्देनज़र रखते हुए साल 1937 में ब्रिटिश शासन व्यवस्था ने आर्य विवाह विधिमान्याधिनियम को पारित किया था। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के समय पारित इस अधिनियम ने सामाजिक कल्याण युक्त परिवर्तन को बढ़ावा दिया। साल 1955 के हिंदू विवाह अधिनियम से इस कार्य को अधिक समर्थन प्राप्त हुआ। विचारणीय है कि अब आर्य समाज का कल्याणकारी दृष्टिकोण हैदराबाद के आर्यसमाजी स्थानीय संस्थाओ द्वारा व्यक्तिगत लाभयुक्त दृष्टिकोण का रूप ले रहा है जिसे इसे लेख के माध्यम से स्पष्ट करने का मेरा प्रयास रहा है।
आर्यसमाज के वेबसाइट पर रुक जब आपके द्वारा "आर्य समाज इन हैदराबाद" विषय टाइप किया जाय तब यहां आपको शादी के विज्ञापनों के माध्यम से नवविवाहित जोड़े को लक्षित करती वेबसाइटे दिखाई पड़ेगी। खोज में पाई गई कई वेबसाइटों में से केवल एक ने महर्षि स्वामी दयानंद की तस्वीर को थंबनेल के रूप में इस्तेमाल किया, जबकि अन्य ने अपने स्वयं के अनुकूलित (लोगो) का इस्तेमाल किया। वेबसाइट के थंबनेल में से एक में तिरछे छेद वाले तीर के साथ एक प्रेम संकेत दिखाई दिया। इसे सरल शब्दों में कहें, तो यह दिल के माध्यम से एक तीर से घायल हो चुके भावनात्मक घाव का प्रतिनिधित्व करता है, जो अक्सर रोमांटिक प्रेम का सूचक होता है। पारंपरिक यूनानी पौराणिक कथाओं में, कामदेव भावुक प्रेम के देवता हैं, और तीर उनका प्रतिनिधित्व करता है। इसे अवलोकन यहां हिंदू संस्कृति और आर्य समाज विवाह की नैतिकता और मूल्य के पतन के रूप में किया जाना चाहिए। वर-वधू के मेहंदी रचे हाथों के साथ इन विज्ञापन वेबसाइटों पर हमारा ध्यान आकर्षित करवाया जाता है। यहाँ विशाल केसरिया कपड़े पर सुसज्जित “ॐ" शब्द का लोगो और गायत्री मंत्र दोनों ही वेबसाइट के बैनरों पर आध्यात्मिक अर्थों को उजागर करने के बजाय केवल विज्ञापन के उपकरण बनते दिखाई पड़ते हैं। इन वेबसाइटों का निर्माण एथोस, लोगोस और पाथोस के अरिस्टोटलियन रेटोरिक सिद्धांतों का उपयोग करके किया गया है। इन सिद्धांतों का उपयोग कर ग्राहकों का विश्वास प्राप्त करना, उनके भीतर स्वयं के विवाह आयोजनों के प्रति भावनाओं को उजागर करना और संभावित "ग्राहकों" को तदनुसार सोचने के लिए प्रभावित करना उनका मुख्य ध्येय रहा है। हिंदी भाषा में इन तत्वों की अनुवाद सहित व्याख्या इनकी कार्यप्रणाली को स्पष्ट करती है –
1. लोगोज़ तत्व - दर्शकों के तर्क से जुड़ा है जो उन्हे वेबसाइट की ओर आकर्षित कर उनके भीतर अपनी ओर आकृष्ट होने के तार्किक तर्कों का निर्माण करता है।
2. ऐथोस तत्व - वेबसाइट की तकनीकि और गतिशीलता को बताते हुए दर्शकों को लुभाता है, जिससे दर्शकों को उन पर भरोसा करने की प्रबल सम्भवना की आधारभूमि तैयार हो जाती है ।
3. पैथोस तत्व- दर्शकों के भीतर सहानुभूतिपूर्ण तथ्य को उजागर कर अनुकरण जैसी भावना को उकसाने के तथ्य से जुड़ा है जो उनकेआँखे बंद कर अनुकरण कर अनुभव हासिल करने के विचार में वृद्धि करने हेतु कृतसंकल्प दिखाई पड़ता है।
कुछ अस्पष्ट मुस्कुराहट और पेशेवर रूप से डिज़ाइन की गई दृश्य सामग्री के साथ शानदार वेशभूषा में नवविवाहित जोड़े की एनिमेटेड तस्वीरें वाणिज्यिक विज्ञापनों से मेल खाने वाली वेबसाइटों पर दिखाई देती हैं। ये वेबसाइटें इस बात का प्रमाण हैं कि कैसे विवाह प्रमाण पत्र जारी करने की प्रक्रिया कम समय में वैवाहिक संबंधों को आसान और वैध बनाती है। आर्य समाज के वर्तमान शिष्य विवाह के लिए "आवश्यक दस्तावेज" इकट्ठा करने और अपनी वेबसाइटों पर विवाह मंडप की संपर्क जानकारी को दिखाने में अधिक व्यस्त प्रतीत होते हैं। इस तरह से यह दृश्य कल्पना आर्य समाज के सेवा भाव की तुलना में एवं अर्थशास्त्रीय रूप से विवाह (सेवा भाव) के बिल्कुल विपरीत विवाह समारोहों की फिजूलखर्ची को दर्शाती है।
भगौड़े प्रेमी जोड़े शादी करने के लिए यहां आते हैं, लेकिन विपरीत परिस्तिथि के कारण उनके लिए विवाह गौण विषय और विवाह उपरांत मिलने वाला विवाह प्रमाण पत्र और उनकी सुरक्षा मुख्य विषय बन जाते है। इन आधारों पर कई अदालतों और सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों के कारण, वर्तमान में आर्य समाज विवाह केवल हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5,6,7,8 की मान्यता अनुसार विवाह करने की वैधता रखता है। परिणामतः यह बात सामने आती है कि आर्य समाज संस्था के "मालिकों" ने केवल हिंदू विवाह अधिनियम के अनुसार विवाह संबंधी अनुष्ठान करने पर ध्यान केंद्रित किया है और यहां पंडितों की योग्यता प्रश्नचिन्ह मात्र बन रह गया है। इन विवाह भवनो में विवाह के संचालक/पंडितजी का चयन एक विवाद का मुद्दा बन जाता है। कालांतर में अपने दादा से विरासत में मिली शादी करवाने वाली आर्यसमाज की दुकान चलाने वाले ढोंगी पंडितों की गणना में अधिकता की संभावना हो सकती है जिससे आर्यसमाज को मुक्ति दिलाना अनिवार्य हो जाता है।
कला और साहित्य समाज का दर्पण होते हैं । हाल की तेलुगु फिल्मों ने आर्य समाज की शादी का समर्थन किया है और यह संकेत दिया है कि आर्य समाज भागे हुए जोड़े के लिए सुरक्षित स्वर्ग है। यह समाज में एक गलत उदाहरण स्थापित करता है। प्रणय और अमृता प्रकरण जैसी घटनाएँ यह बता सकती है कि कैसे आर्य समाज की शादी ने समाज में हलचल पैदा कर दिया है। ऐसे कई अन्य मार्मिक और त्रासदी युक्त परिणाम ने इस तथ्य को उजागर किया कि आर्य समाज की शादी कैसे तूफान का केंद्र बन रही है।
हम सभी इस बात के लिए सहमति रखते है कि बड़े से बड़े तूफान को एक दिन थमना ही पड़ता है।आर्यसमाज की धूमिल छवि को दूर करने के सदुद्देश्य से हमें किसी भी हठधर्मिता या आत्म-केंद्रित उद्देश्यों को बढ़ावा नहीं देना चाहिए। यह दृष्टिगत है कि अक्सर नव-पूंजीवादी विचार की महामारी क्षणिक होती है जो अंततः अपने ही चतुर तर्क के आगे झुक जाती है।अब समय आ गया है कि एक सच्चे आर्यसमाजी बन निरर्थक प्रबंधन के गहरे व्यापारिक उद्देश्यों से इसे बचाने के तरीकों की सूची तैयार कर आर्यसमाज के कर्तव्यनिष्ठ अनुयायियों की तरह उनका आचरण करें। आर्य समाजी शिष्यों की सेवायुक्त गतिविधियां अमर आर्य समाज के वैदिक ध्वज को अनिश्चित काल तक सर्वोच्च शिखर तक अनंत काल तक लहराने के लिए निःसन्देह आवश्यक रूप पर्याप्त सिद्ध होगी। जीवंत आर्य समाज।