Beti ki Adalat - Part 2 in Hindi Motivational Stories by Ratna Pandey books and stories PDF | बेटी की अदालत - भाग 2

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बेटी की अदालत - भाग 2

स्वीटी को उसकी मम्मी का इस तरह का व्यवहार बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था। उसे तो अपने दादा-दादी से बहुत प्यार था। स्वीटी अब कोई छोटी बच्ची नहीं थी। उसे सब समझता था कि उसकी मम्मी को उसके दादा-दादी बिल्कुल पसंद नहीं हैं। जब तक उसके दादा-दादी रहते, तब तक हर रात अलका और गौरव में झगड़ा होता ही रहता। उसकी दादी स्वभाव से बहुत अच्छी थीं। वह तो अलका को पसंद भी करती थीं लेकिन ताली कभी भी एक हाथ से कहाँ बजती है? उसके लिए दोनों हाथों को जोड़ना ज़रूरी होता है। उन्हें भी यह एहसास तो था ही कि उनका आना अलका को पसंद नहीं है। लेकिन अलका की सास होने के साथ ही वह गौरव की माँ और स्वीटी की दादी भी तो हैं। उन्हें भी तो उनसे मिलने का मन होता है। इसीलिए हर दो-तीन महीने में वे लोग कुछ दिनों या कुछ हफ्तों के लिए आ ही जाते हैं।

इसी तरह कभी-कभी स्वीटी के नाना नानी भी उनके घर आ जाते। जब नाना नानी आते तब मामला एकदम उल्टा हो जाता। ऐसे समय में अलका की ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं रहता। दिन भर अलका उनके पास बैठती, खाने में उनकी पसंद की चीजें भी बनाती। पूरा दिन ख़ुशी के साथ बीत जाता। स्वीटी भी उनके आने से आनंदित रहती लेकिन इस समय भी रात के अंधेरे में स्वीटी के मम्मी पापा का झगड़ा होता रहता।

इस समय गौरव कहते, “अब कितनी खुश लग रही हो? कितना कुछ बना रही हो? बैठती भी हो अपने माँ-बाप के पास। कभी मेरे पापा मम्मी को भी ऐसी ही ख़ुशी दे दो। उन्हें भी मेरी शादी से कुछ सुख की प्राप्ति तो हो। तुम कितनी घटिया इंसान हो अलका।”

“हाँ-हाँ मैं तो हूँ ही घटिया, तुम्हारा परिवार बड़ा महान है। अखर गया ना तुम्हें मेरे बाप माँ-बाप का आना। मैं जानती थी तुम्हें बुरा लगेगा।”

“ग़लत दिशा में बात को मत ले जाओ अलका। मुझे उनके आने से कोई समस्या नहीं है। मुझे तुम्हारे व्यवहार से समस्या है, समझीं।”

“तो तुम कौन-सा मेरे पापा-मम्मी के पैर छूते हो? तुम कहाँ उनसे बात करने उनके पास दो पल भी बैठते हो?”

“मुझे समझ नहीं आता कि उनसे क्या बात करूं। हाय हैलो तो करता हूँ ना ...”

अलका ने झुंझलाते हुए कहा, “मुझे भी नहीं समझ आता कि तुम्हारे माँ बाप के साथ क्या बात करूं। तुम्हारे साथ यह सोचकर शादी की थी कि हम प्यार से रहेंगे। मुझे क्या मालूम था कि वे लोग हर दो-तीन महीने में हमारे घर पधार कर सब ...”

“चुप हो जाओ अलका, सिर्फ़ मेरे ही नहीं तुम्हारे माँ-बाप भी तो जब देखो तब चले आते हैं।”

इस तरह के झगड़ों से स्वीटी परेशान हो चुकी थी और अब वह बड़ी भी तो हो गई थी। बारहवीं के बाद आगे की पढ़ाई के लिए अलका और गौरव ने मिलकर उसे अमेरिका भेजने का निर्णय लिया था।

जब एक दिन अलका ने स्वीटी से कहा, “स्वीटी बेटा आगे की पढ़ाई के लिए हम तुम्हें अमेरिका भेज रहे हैं। तुम्हारे एडमिशन की भी सारी तैयारी कर रहे हैं। ठीक है ना बेटा?”

“नहीं मम्मा मुझे नहीं जाना अमेरिका। मुझे यहाँ अपने देश में रहकर ही पढ़ाई करनी है। क्या हमारे देश में अच्छे स्कूल नहीं हैं जो मैं बाहर जाऊँ?”

स्वीटी का इनकार सुनकर अलका तनाव ग्रस्त हो गई। उसने कहा, “देखो यहाँ तुम्हारी पढ़ाई ढंग से नहीं हो पाती। कोई ना कोई आता ही रहता है।”

स्वीटी ने बीच में ही अलका की बात काटते हुए कहा, “कोई ना कोई नहीं मम्मा मेरे दादा-दादी ही तो आते हैं। वह तो अलग रहते हैं। यदि वह हमारे ही साथ रहते तब भी क्या आप ऐसा ही बोलतीं? वह तो हमारे ही परिवार के सदस्य हैं। उनके आने से मुझे कभी कोई मुश्किल का सामना नहीं करना पड़ता। बल्कि दादा जी तो कितनी बार मुझे पढ़ाते भी हैं।”

अलका ने स्वीटी को समझाते हुए कहा, “स्वीटी बहस मत करो। हमने बहुत सोच समझ कर यह निर्णय लिया है।”

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः