18 साल की स्वीटी के सामने एक बहुत ही विकट समस्या थी। वह समस्या थी मम्मी या पापा किसके साथ उसे अपना आगे का जीवन बिताना है। उसकी मम्मी अलका और पापा गौरव के बीच रोज़ होते झगड़ों के कारण उनका घर शांति का मंदिर नहीं अशांति का अड्डा बन गया था। जहाँ वे दोनों दुश्मनों की तरह झगड़ा करते थे। स्वीटी दोनों के साथ रहना तो चाहती थी लेकिन शांति के माहौल में, जहाँ प्यार हो, अपनापन हो, यदि तकरार हो भी तो पति-पत्नी की तरह दुश्मनों की तरह नहीं। आज उसके मन में तूफान उठा हुआ था क्योंकि अब अलका और गौरव, एक दूसरे के साथ रहना ही नहीं चाहते थे। इसीलिए उन्होंने अब तलाक लेने का अंतिम निर्णय ले लिया था।
स्वीटी की मन की अदालत में कई तरह के वाद विवाद चल रहे थे। वह अपने प्रश्न का उत्तर तलाश रही थी किंतु उसे ढूँढ पाने में वह असमर्थ हो रही थी। उसे लगता मम्मी और पापा की तो लव मैरिज थी और अपने-अपने माता-पिता को मनाने में उन्हें वक़्त भी काफ़ी लगा था। लेकिन जब वे मिल गए तो उनके बीच खड़ी हो गई एक दीवार। आख़िर क्यों ...? यही वह प्रश्न था जिसका समाधान स्वीटी ढूँढ नहीं पा रही थी। वह जानती थी कि यह दीवार थी विचारों की, भावनाओं की और ख़ास तौर पर अपनों के लिए होने वाले वाद विवादों की। भगवान ने स्वीटी के रूप में उन्हें बिटिया का सुंदर-सा उपहार भी दे दिया था। जिसके कारण न चाहते हुए भी वह एक ही छत के नीचे रह रहे थे। दोनों ख़ूब कमा रहे थे। सुख सुविधाओं की भी कोई कमी नहीं थी परंतु जो होना चाहिए था वह प्यार मानो किसी अंधेरे कमरे में खो गया था या केवल वहाँ तक ही सीमित रह गया था जहाँ पति-पत्नी एक हो जाते हैं।
स्वीटी धीरे-धीरे बड़ी हो रही थी। वह इस तनाव के माहौल से बहुत डरती थी हालांकि अलका और गौरव दोनों उस पर अपना भरपूर प्यार लुटाते थे। लेकिन एक अजीब-सा डर स्वीटी के मन को घेरे हुए था। कई बार वह उनके झगड़े के कारण उनसे नाराज हो जाती। कई बार डर कर रोने लगती। तब अलका और गौरव को उसके सामने शांत हो जाना पड़ता था। जब भी उसके दादा-दादी या नाना-नानी उनके घर रहने आते, स्वीटी को तो मानो खुशियों की चाबी मिल जाती। स्वीटी उनके साथ ख़ूब खुश रहती, पूरा दिन कैसे बीत जाता उसे पता ही नहीं चलता। लेकिन रात ...? रात बहुत सारे वाद विवाद लेकर आ जाती जो अलका और गौरव के बीच चलते। स्वीटी आँखें बंद करके जागती रहती और उनकी सारी बातें सुन लेती।
इस बार स्वीटी के दादा जी और दादी आए थे। उनका घर आना अलका को कभी भी पसंद नहीं आता था।
रात को बिस्तर पर जाने के बाद अलका शुरू हो गई। उसने कहा, “लो आ गए बिन बुलाए मेहमान। अब करो दो-तीन महीने तक उनकी सेवा।”
इतना सुनते ही गुस्से में तमतमाते चेहरे के साथ गौरव ने कहा, “अलका मेहमान किसको बोल रही हो। यह उनका भी घर है, माँ-बाप हैं वह मेरे। तुम्हें ऐसा बोलने का कोई हक़ नहीं है। यह घर पहले उनका है फिर तुम्हारा।”
यह वाक्य तो अलका के सुलगते तन बदन में मानो घासलेट ही डाल गया।
गुस्से में चिढ़ कर अलका ने कहा, “तो फिर क्यों लाए थे मुझे ब्याह कर? अपनी माँ के ही आँचल में ही बंधे रहते।”
“तुम चुप हो जाओ अलका माँ सुन लेंगी।”
“तो सुन लें, अच्छा ही होगा। अरे वह तो सुनकर भी वापस नहीं जाने वाली।”
गौरव ने कहा, “उनके वापस जाने का तो सवाल ही नहीं उठता। यदि तुम्हें इतना ही बुरा लगता है तो तुम्हीं चली जाओ। अरे मैं यह कहाँ फंस गया हूँ घर में शांति ही नहीं है,” इतना कहते हुए गौरव कमरे से बाहर चला गया।
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः