Prem Gali ati Sankari - 138 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 138

Featured Books
  • My Wife is Student ? - 25

    वो दोनो जैसे ही अंडर जाते हैं.. वैसे ही हैरान हो जाते है ......

  • एग्जाम ड्यूटी - 3

    दूसरे दिन की परीक्षा: जिम्मेदारी और लापरवाही का द्वंद्वपरीक्...

  • आई कैन सी यू - 52

    अब तक कहानी में हम ने देखा के लूसी को बड़ी मुश्किल से बचाया...

  • All We Imagine As Light - Film Review

                           फिल्म रिव्यु  All We Imagine As Light...

  • दर्द दिलों के - 12

    तो हमने अभी तक देखा धनंजय और शेर सिंह अपने रुतबे को बचाने के...

Categories
Share

प्रेम गली अति साँकरी - 138

138====

================

“ओहो ! अमी आ गया तुम ? कैसी हो ? तुमको मिलने को आया, अम्मा-पापा सब बढ़िया हैं न वहाँ ? हमेरा फ़ोन नहीं लगता हाई, मैंने और प्रमेश ने काल केतना ट्राई किया | ”कितनी बड़ी नाटककार है यह स्त्री ! मैं जानती थी कि वे कुछ न कुछ ऐसा बोलती ही रहेंगी जिससे मुझमें उनके प्रति और खीज, गुस्सा और अनादर भर जाएगा | वैसे भी उन दोनों बहन-भाई के लिए आदर शब्द का अर्थ भी मेरे लिए अर्थहीन हो चुका था | 

वास्तविकता तो उनके मुँह से पहले भी एक बार सुन ली थी हमने | हाँ, उस दिन शीला दीदी नहीं थीं वहाँ पर और हमने उनसे बेबात कोई ज़िक्र नहीं किया था | आज जब शीला दीदी से उन्होंने अचानक ही पूछा, उनका मुँह शर्म से नीचा हो गया | उन्होंने पापा से कितना मना किया था। उन्हें कहाँ किसी चीज़ का लालच था? उन्होंने संस्थान की सार-संभाल ही की थी हमेशा और उनका व उनके परिवार का उद्देश्य भी यही था | इस प्रकार से प्रमेश की बहन के द्वारा पूछा जाना उन्हें परेशान कर गया और उनसे भी अधिक मुझे | 

“यह बहुत पहले की है, शीला दीदी के साथ की। पापा ने अपने अनुसार कई ‘पॉवर ऑफ़ एटॉर्नी’ और सब कानूनी दस्तावेज़ बनवाए हुए हैं जिनके बारे में हम किसी को भी कुछ ज्यादा नहीं मालूम तब आपको ? ”मैंने कुछ खीजते हुए कहा | 

वे खिसिया तो गईं लेकिन उन्होंने अपनी बेशर्माई नहीं छोड़ी;

“तुम सीधा लोक है, क्या-क्या चलता है दुनिया में---अब पापा लोक भी लंबे टाइम के लिए आउट ऑफ़ इंडिया हैं तो थोड़ा प्रिकॉशन लेना में समझदारी है | हमको पता चला तो हमने सोचा यह कैंसिल करना जरूरी है | आबी प्रमेश फैमिली मेम्बर है तब तुम्हारे साथ उसका नाम जुड़ना ठीक होगा न? ”

यानि कुल मिलाकर चार दिन में इसने परिवार की और संस्थान की जन्मपत्री निकालकर अपनी जेब में भर ली थी ? क्या औरत थी? क्या हिम्मत थी? क्या बेशर्मी थी? और क्या था इसका रबर का भाई जो दो दिन की डेटिंग में न जाने कितनी बार मुझे सुना चुका था कि वह मानता है कि जहाँ शादी करना हो वहाँ पहले कोई रिलेशन नहीं करना चाहिए, अच्छी बात नहीं है यानि ‘केरेक्टर-सर्टिफिकेट’ !कमाल ही था सब-कुछ !

“देखिए, इन सब बातों में हम लोग कुछ नहीं कर सकते। पापा-अम्मा के डिसिजन ही होते हैं | शीला दीदी से आपका यह पूछना ही बिलकुल गलत था, आप शीला दीदी को जानती ही कितना हैं? ”अपने को किसी तरह से रोकते हुए भी मेरे मुँह से निकल ही तो गया | 

महाराज पंच के ठंडे ग्लास और कुछ फ्रूट्स स्लाइसेज़ ट्रॉली में सजवाकर ले आए थे | उन्हें आदत थी वे अपने हैल्पर के साथ आते तो थे लेकिन अधिकतर सर्व खुद ही करते थे | आज भी उन्होंने ऐसा ही किया | सबसे पहले मेहमान के आगे शर्बत का ठंडा-ठंडा ग्लास करीने से रखा, साथ ही कुछ ताज़े फलों के स्लाइस फिर और फिर हमें भी सर्व करने लगे | 

“नहीं, नहीं ये सब हमको नहीं माँगता। गला खराब होने से तो शर्बत बिलकुल भी नहीं, क्योँ फॉर्मेलिटीज़ करने की ज़रूरत है अमी? ”उनका स्वर जैसे शर्बत के जैसा ठंडा पड़ता जा रहा था और चेहरे पर जैसे किसी ने तमाचे लगा दिए हों | 

“अरे ! दीदी साहब, ऐसा नहीं कहिए न, अभी कितना ताज़ा बनवाकर रखा था शादी में, सबको बहुत पसंद आया, आप ट्राई तो करिए | ”

महाराज तो उनके पीछे ही चिपट गए जैसे लेकिन वो बंदी भी कमाल की ही, शर्बत नहीं लिया तो नहीं ही लिया | एक काँटे से उठाकर शायद झिझकते हुए अन्नानास का एक छोटा सा टुकड़ा अपने मुँह में दबा लिया | मैंने और शीला दीदी ने उन्हें कुछ नहीं कहा और अपने ठंडे शर्बत की चुसकियाँ लेने लगे | 

“उधर कब आओगी? ” अचानक अपना बैग संभालते हुए उन्होंने पूछा | 

“अभी इधर का काम देखना ज़्यादा जरूरी है तो अभी नहीं---”मैं रूड थी और जरूरी भी था | 

“आपको और कुछ भी काम था ? ” यूँ ही, कुछ भी---क्या ज़रूरत थी पूछने की ? फँसते जा रहे हैं हम लोग? 

“देखो, शीला प्रमेश खाली हो गया क्या? बुला दो तो साथ में घर चले जाएंगे | हम कैब करके आया है न!” उन्होंने शीला दीदी को ऑर्डर दिया और वह ‘जी’कहकर वहाँ से प्रमेश को देखने के लिए चल दीं | 

ऐसी आफ़त थी कि कैब करके आना जरूरी था ? मैं मन ही मन फिर से भुनभुनाने लगी | इस भुनभुनाने में मेरा मन निचुड़ा जा रहा था कई बार लगता जंजाल खत्म भी होगा या नहीं या और भी उलझता जाएगा? 

मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था, वो होती कौन थीं शीला दीदी को ऑर्डर देने वाली ? उनके जाते ही जैसे उन्हें मुझसे कहने का एक और अवसर मिल गया और उन्होंने वही बात दुहराई जिसके लिए मैंने उन्हें इस बार तो आँखें दिखा ही दीं, वे चुप्पी लगा गईं | 

क्या था आखिर इस औरत के मन में? शर्बत का नाम सुनकर इसकी नानी मर गई थी और यह बात बिलकुल पक्की थी कि कुछ बड़ा गड़बड़ घोटाला था | 

“तुम अम्मा-पापा को बोलना, हमसे बात तो कर लें, हमको बी उनका चिंता होता है | देबी माँ सबका रक्षा करेंगी | ”

उन्होंने बड़े नाटकीय ढंग से हाथ जोड़कर जैसे देवी माँ से प्रार्थना की और भाव-विभोर होकर अ[णी आँखें मूँद लीं | उनका प्रिय भाई शीला दीदी के साथ आ पहुंचा था | 

एक क्षण के लिए मेरी और प्रमेश की दृष्टि मिली जिसमें कोई ऐसा भाव नहीं था जिसमें कोई संवेदना का पुट हो | 

“बाय“ एक फॉर्मल सा शब्द प्रमेश के मुँह में भरा था | 

इन लोगों के चले जाने के बाद दिमाग का भन्नाना कुछ ज़्यादा ही शुरू हो गया | मैं और शीला दीदी धीमे-धीमे कदम उठाते हुए मेरे चैंबर की ओर आ गए जहाँ सब लोग बैठे थे और फ़ोन से बात करते हुए कागज़ पर कुछ प्वाइट्स नोट किए जा रहे थे | जय और प्रमोद दोनों गम्भीरतापूर्वक अपने काम में मग्न थे | 

“ मैं आपसे बाद में डिस्कस करता हूँ | ”जय ने किसी से कहा और फ़ोन बंद कर दिया | 

“ क्या हुआ ? कुछ खास बात समझ में आई ? ”प्रमोद ने मुझसे पूछा | मैंने उनके सामने सब बातें जैसे की तैसे परोस दीं | 

“ये सब पेपर्स इनके पास कैसे आए और इनका तो कोई अधिकार ही नहीं बनता था यह सब पूछने का? ”जय ने कहा फिर चुप हो गए | 

शीला दीदी बड़ा अजीब सा महसूस कर रही थीं, रतनी अपने फैक्ट्री के काम पर जा चुकी थी | अब एक और नई लाइन खींचनी थी जिसकी लंबाई, चौड़ाई, गहराई या फिर सीधाई के बारे में कुछ अनुमान नहीं था लेकिन जरूरी थी | 

कहाँ पता था कि अचानक एक और अजीब सा मोड़ आकर खड़ा होने वाला था !!