Prem Gali ati Sankari - 137 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 137

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प्रेम गली अति साँकरी - 137

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जहाँ नमी आने लगती है, वहीं कुछ हरियाली के तिनके दिखाई देने लगते हैं वरना तो दिलोदिमाग की जमीन सूखी हुई, पपड़ी जमी हुई ही दिखाई देती है | भीनास से रहित उखड़ी, फटी हुई जमीन पर भला क्या दिखाई देगा? मिट्टी के ढेले जिनमें दूर-दूर तक जीवन का कोई सुराग चिन्हित नहीं होता | मेरे भीतर एक आक्रमण शुरू हो चुका था और यही महसूस हो रहा था कि हमारी यह सुदृढ़ टीम किसी ऐसे निर्णय पर पहुंचेगी जो समाज में एक नयी दृष्टि लेकर आएगी और ऐसे न जाने कितने पर्देफ़ाश होंगे | मुझे लगा कि मैं अविवेकी हो रही हूँ और मुझे गंभीरता से चलना चाहिए | 

गंभीरता ओढ़ते-बिछाते हुए खुद को सूखी बंजर ज़मीन बना ही चुकी थी मैं, अब इससे ज़्यादा भी कुछ हो सकता था? सच कहूँ तो मैं अब कभी भी अपने आप पर हँसने लगती थी | 

“जो इंसान खुद पर हँस सकता है, वह बहुत बड़े दिल का होता है | ”दादी अक्सर कहतीं और फिर यह भी जोड़ देतीं;

“ये हमारी काली देखो न !पहले दिन ही जब मैंने इसे काली कहा था यह कैसे खिलखिलाकर मुझसे चिपट गई थी | यह होना चाहिए जीने का अंदाज़ !”अम्मा सच में ऐसी ही थीं। वो या पापा और दादी तक | सबको जैसे किसी एक मिट्टी से ही बनाया गया हो | 

ऐसा था कहाँ ? हमारे परिवार की मिट्टी तो न जाने कहाँ कहाँ से आकर एक में जैसे गडमड हुई थी जैसे किसी चाक में उसे अच्छे से घोटा गया हो और फिर जैसे खाद, हवा, पानी, रंग न जाने किन दिशाओं से आकर सम्मिलित हो गए थे और ऐसे सुगंधित रंग-बिरंगे फूल खिले थे जिनकी सुगंध चारों दिशाओं में महक रही थी | इस दुनिया में किसी-किसी पर ही ऐसा आशीष बरसता है | हम सब तो उसमें नहाए थे | मैं न जाने कहाँ पहुँच रही थी और उत्पल फिर से मेरी आँखों के आँसुओं में झिलमिलाने चला आया था | 

जो बातें पीछे छूट जाती हैं कैसे लौट-लौटकर याद आती रहती हैं !यह मनुष्य का मूल स्वभाव है, उसमें अक्सर होता यह है कि हम अच्छी, सुखदायक, सकारात्मक बातें छोड़कर उन बातों को अधिक याद करने लगते हैं जो नकारात्मक होती हैं, हमें दुख देती हैं | इसीलिए जीवन दुखी होने की कगार पर आकर खड़ा हो जाता है | 

खैर, अभी तो मैं उस कहानी को लेकर भी उलझी हुई थी कि हमारी इसी दुनिया में जाने क्या-क्या चल रहा होता है, उससे वाकिफ़ ही नहीं होते हम ! हमें लगता है कि दुनिया केवल वही है जो हमारे चारों ओर है | अरे ! बाबा, दुनिया के कितने रूप हैं, कैसे-कैसे प्रकार और कैसे-कैसे लोग! हमने देखी कहाँ है दुनिया? 

हमारी टीम अब एक पक्की टीम बन गई थी जिसके सभी सदस्य एक-दूसरे के मन की बातों को समझ सकते थे | कितना अच्छा हुआ न हम सबने एक-दूसरे के सामने राज खोल दिए थे एकजुट हो गए थे और आने वाली विपत्ति क्या हो सकती थी, उसकी कल्पना करके कुछ चर्चा कर सकते थे!

”अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता !” दादी यह भी तो कहती थीं | अब कई चने हो गए थे और भाड़ खोदे जाने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी | देखना यह था कि भाड़ में से निकलने वाला क्या था? 

अभी यह भयंकर कहानी मनोमस्तिष्क पर खुदी हुई थी कि उसे और खोदने आज दीदी जी फिर पहुँच गईं | मालूम नहीं क्या हो गया था मुझे कि उनकी शक्ल देखते ही बल्कि उनके बारे में सोचते ही मुझे अजीब सी खीज आती थी | पहले तो मैं उन्हें नमस्कार कर भी लेती थीं लेकिन अब तो मन होता है कि जब तक मन में किसी के प्रति आदर न हो, उसे नमस्कार करना भी एक दिखावा ही होता है, खैर हम अक्सर यह नाटक भी करते ही हैं | 

कक्षाएँ सब अपने क्रमानुसार चल ही रही थीं, संस्थान के काम में भी कोई व्यवधान नहीं था, व्यवधान था तो मनों में ! जब कोई परिवार वालों से मिलने आता, संस्थान के गेट से फ़ोन आ जाता और हमारे बीच किससे, कहाँ मिलना है, कहाँ चर्चा होनी है, मिनटों में तय हो जाता | आज जब हम सब अभी मेरे चैंबर में कुछ काम के प्वाइंट्स पर चर्चा करने इक्कठे हुए ही थे कि गेट से फ़ोन आ गया कि दामाद जी की दीदी अपनी अमी दीदी से मिलने आई हैं | हम सबका मूड खराब हो गया | आखिर किसलिए आई होंगी? वैसे वह अक्सर तो आती ही रहती थीं, अपना लाड़ दिखाने | 

“शीला दीदी! उन्हें अम्मा-पापा के सिटिंग में बैठवा दीजिए, मैं वहीं बात कर लूँगी उनसे---आप लोग अपना प्लान ज़ारी रखिए—सब प्वाइंट्स नोट हो जाएंगे तो समझने में आसानी रहेगी | ”मैं वहाँ जाने में कुछ देर लगाना चाहती थी | 

हमारी शीला दीदी तो एक्सपर्ट ठहरीं, उन्हें कहाँ कुछ कहने–समझाने की ज़रूरत होती थी? आखिर संस्थान के दामाद की बहना थीं, उनके स्वागत में क्या और कैसे कमी रह जाए भला? जल्दी-जल्दी अम्मा के कमरे की ओर चल दीं, साथ ही महाराज से फ़ोन पर कह भी गईं कि थोड़ी देर में वो वहाँ चक्कर मार लें | 

वे जल्दी ही वहाँ पहुँच गईं जहाँ अभी दीदी महारानी ठसक से बरामदे में प्रवेश कर रही थीं | 

“सादर प्रणाम दीदी !”शीला दीदी ने उन्हें बड़ी विनम्रता से प्रणाम किया और उन्हें लेकर अम्मा के सिटिंग की ओर बढ़ने लगीं | 

“हम अमी के पास आया है, उसके कमरे में जाकर बैठना है, हमारा घर का पर्सनल मैटर---” उनके मुँह पर तीखी अभिमान की लकीरें चुगली खा रही थीं | 

“जी दीदी, वे अपने ऑफ़िस में एक मीटिंग में हैं, अभी आती हैं बस दो मिनट में ---”शीला दीदी ने बड़ी सरलता से कहा | 

“तो तुम्हारे साथ क्या बात करेगा ? ”उनका मुँह फूला हुआ था | 

“अरे !आइए तो सही, एक कॉफ़ी लेंगी या और कुछ तब तक वे आ भी जाएंगी | कुछ समझा रही हैं स्टाफ़ के कुछ लोग हैं | ”उनका फूल हुआ मुँह देखकर शीला दीदी के लिए उन्हें संभालना ज़रा मुश्किल ही महसूस हो रहा था | कैसी अजीब जिद्दी औरत !

“लीजिए, महाराज भी आ गए---”शीला दीदी ने महाराज को देखते ही कहा और अम्मा के सिटिंग की ओर मुड़ गईं | 

महाराज ने उन्हें झुककर बड़े अदब से नमस्कार किया जिसका उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया | कोई बड़ी बात नहीं थी | सब जानते थे कि इनकी प्रतिक्रिया संस्थान के कर्मचारियों के साथ कुछ ऐसी ही होती है | महाराज को क्या लगना था? फिर भी शिष्टाचारवश पूछ ही ही तो बैठे;

“कैसे हैं दीदी ? ” दीदी बिना उत्तर दिए शीला दीदी के पीछे-पीछे अम्मा के कमरे में चल दीं, उन्हें जाना पड़ा जो स्पष्ट था कि उन्हें बिलकुल पसंद नहीं था | 

“महाराज !कुछ शीतल, अच्छा शर्बत भिजवा दीजिए | गर्मी में राहत देगा | ”शीला दीदी ने कहा | 

“अरे ! दीदी, जो कहें, कई पंच तैयार हैं, क्रेनबरी, ब्लूबेरी, रेनबो शर्बत जो दीदी को पसंद हो साथ में--- महाराज ने अपनी पूरी विशेषज्ञता प्रस्तुत कर दी | 

“हमको अमी से मिलना हाय, आप लोगों का सेवा नहीं चाहिए | ”दीदी खीजते हुए सोफ़े पर विराजमान हो गईं थीं और शर्बत का नाम सुनकर उनका चेहरा अजीब सा होने लगा था | 

भाई, चोर की दाढ़ी में तिनका!

“शीला ! अमी को बुलाओ, नहीं तो हम अंदर जाएगा | ”वह सोफ़े पर बैठी मचलने लगीं | अपने हाथ का बड़ा सा बैग उन्होंने अपने पास सोफ़े पर सटाकर रखा था जैसे उसमें---वैसे वह बैग अमोल के गिफ़्ट्स में से ही एक ही था | 

“जी, मैं अभी लाया---“ महाराज भी मन ही मन दीदी की बेचैनी का आनंद लेते हुए पंच वगैरह का इंतज़ाम करने चले गए | 

मैंने शीला दीदी से बोल ही दिया था कि कुछ देर लगाऊँगी, वैसे भी मैं उनकी छटपटाहट देखना चाहती थी | 

“एक बात बोलो शीला ? जे तुम्हारा नाम अमी के साथ ‘पॉवर ऑफ़ एटॉर्नी’ में क्यूँ हाय ? तुम क्या इस फैमिली का हो ? ”

मैंने कमरे में प्रवेश करते हुए उनकी बात सुनी और अब मैं उनके सामने थी |