Circus - 4 in Hindi Moral Stories by Madhavi Marathe books and stories PDF | सर्कस - 4

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सर्कस - 4

                                                                                            सर्कस : ४

 

             सप्ताह का समापन धमाकेदार रहा। दिल्ली दर्शन, खरिदारी, हॉटेलिंग ऐसी मौज-मस्ती हम भाई-बहन मिलकर एन्जॉय कर रहे थे। फिर अल्मोडा जाने से पहले मैं ओैर चाचाजी अरुण चाचाजी से मिलकर आ गए। इस बार दादाजी भी हमारे साथ थे। उन्होंने अरुणचाचाजी से अपने अनुभवों के आधार पर काफी चर्चा की। बहुत सारे प्रश्न पूछे गए। फिर उन्होंने संतुष्टी से सर हिलाया।

            बॅग भरना, एक-दुसरे को उपहार देना ओैर बाते करते-करते बाकी दिन कहाँ बीत गए, पता ही नही चला। मैंने राधा को उसकी पसंदीदा बालियाँ दी थीं ओैर उसने मुझे खुबसूरत मयुरपंख, कविता की एक किताब के साथ भेंट किया था। हम दोनों को कविता पढना बहुत पसंद था। एक-दुसरे को खत लिखने के वादे के साथ अलविदा कहा। ट्रेन में चाचाजी, दादा-दादी, सहयात्रियों के साथ बहोत सारी बातें हो गई।

            अल्मोडा पहुंचने के बाद, हमारे साथ विश्वास चाचाजी को आते हुए देखकर सब थोडे अचरज में पड गए, लेकिन खुश भी हो गए। चार भाईयों में से एक विश्वासचाचाजी ही दिल्ली में उच्च पद पर कार्यरत थे। वन संबंधी विषयों में रुचि होने के कारण, उन्होंने वन अधिकारी विभाग की परीक्षाएं दी थी। डेहराडून में वन अधिकारी के रुप में काम करने के बाद, वह अपने बच्चों की शिक्षा के लिए दिल्ली में बस गए। वे पारंपरिक व्यवसाय की ओर नही लोंटे। लेकिन फिर भी उनका घर से अटुट रिश्ता था। व्यवसाय या पारिवारिक कार्य के किसी भी संकट में वह बहुत मदद करते थे। घर आने पर मेरी आंतरिक खुशी अलग थी, लेकिन मन में थोडा डर भी था। हम तीन भाईयों में, मैं सबसे छोटा। इसी कारण सबका लाडला भी। दिल्ली से आते वक्त मैं जो सपना साथ में ले आया, उस बारे में कोई अनुमान नही लगा सकता था कि मेरे माता-पिता ओैर पुरा परिवार कैसी प्रतिक्रिया देंगे। जो होगा वह देखा जाएगा इसी विचार से सबके साथ घुलमिल कर परिवार का आनंद उठाने लगा। समय का चक्र चलता रहा ओैर अचानक घर के वातावरण में कुछ बदलाव सा महसुस होने लगा। बडे लोगों में गंभीरता से चर्चा शुरू हो गई थी। उनके चेहरे देखकर मेरा तनाव बढने लगा। दिन तो रोज की तरह निकल गया।

        रात को सभी लोग बगीचे में एकत्रित हुए। सभी के चेहरों पर अलग-अलग भाव थे। आखिरकार वह चाचाजी ही थे जिन्होंने यह भावनात्मक बांध को तोड दिया। “हम सभी को अभी ओैर आजही फैसला करना होगा। अगर हम उसे सर्कस में जाने देना चाहते है, तो उसी अनुसार तैयारी करनी होगी, ओैर अगर हम उसे नही जाने देते है, तो आगे क्या करना है यह बात उसे सोचनी होगी।” मेरा चेहरा सख्त हो गया। रोजमर्रा की जिंदगी मुझे जादा लुभाती नही थी। नई दुनिया, चुनौतियाँ इस बात का मन में आकर्षण था। परिवार के प्यार के पंख लगाकर, नई दुनिया देखने का सपना देख रहा था। तभी माँ ने कहाँ “ इतने छोटे बच्चे को दुनिया की भीड में अकेला नही भेजूंगी। गांव-गांव घुमते रहना, ना कही एक ठिकाना ऐसे हालात में मेरा बच्चा जिंदगी जिए यह बात मैं सहेन नही कर पाउंगी।”

    “ अगर कुछ ओैर काम होता तो मैं कुछ न बोलता। हम सभी ने दुनिया की हर पारी खेली है। लेकिन यह सर्कस मतलब खतरों, मुसीबतों से भरा जीवन लगता है। बाहर से भुलभूल्लैया ओैर अंदर से दारुण अवस्था।”

     “ ऐसा नही है पिताजी, मैंने भी वहाँ के लोगों से बातचीत की, सब लोग गरीब वर्ग के नही है। अमीर, मध्यमवर्ग के लोग भी है। जिनकी कला को कही और सन्मान नही मिला वह सर्कस के ऑर्केस्टा में आते है। उनको अपनी कला दिखाने का मौका भी मिलता है ओैर रोजिरोटी भी चल जाती है। जीवन में अपनी कलाही सबकुछ है, ऐसे मानने वाले वहाँ खुशी से काम करते है। उनकी तनख्वा अच्छी होती है। छुट्टीयों में घर जा सकते है। अथलिस्ट है। सर्कस के साथ डॉक्टर भी रहता है। छोटे बच्चे, युवावर्ग स्कूली शिक्षा तथा कॉलेज की शिक्षा भी प्राप्त कर लेते है। कमाओ ओैर सीखो यह अरुण चाचाजी का मूलमंत्र है। वहाँ काम करके पढाई करने वाले कितने युवक आज उच्च पद पर कार्यरत है। आज भी कुछ दिन सर्कस में रुकने ओैर वही दुनिया का दुबारा अनुभव लेने कभी कभी आ जाते है। कुछ भी आसान तो है नही, सीखना तो पडता है, कडी मेहनत ओैर कठिणाई से सामना करना पडता है, तो अपने पसंदीदा क्षेत्र में यह सब करेंगे तो मजा भी आएगा।” मुझे  समझाना पडा।

      “ श्रवण की बात सच है। मेरा क्षेत्र परेशानियों से भरा था। तब फोन भी नए थे। केवल कुछ जगहों पर ही फोन थे। एक-दुसरे से बात करने में कितना समय लगता था। अब तो आसान हो गया है। अरुण वर्मा मालिक के रुप में उसकी देखभाल करने जा रहे है। उसे अभी तो सिर्फ सीखना है, ओैर समय आने पर ठीक जगह, उस सीख का इस्तमाल करना है।” चाचाजी समझा रहे थे।

     “ यह सब ठीक है, लेकिन सर्कस खरीदना ओैर उसका रखरखाव करना आसान बात है क्या ? इसमें लाखों का खर्चा आएगा। हम वह पैसा कहाँ से लाएंगे?” पिताजी मन असंतुलित हो गया। भविष्य का इतना बडा बोज वह संभल नही पा रहे थे। दादाजी ने उनकी पीठ थपथपाकर शांत किया।

    विश्वासचाचाजी ने कहा “ भैय्या, आपने भी कारोबार आजमाया है। सर्कस का मालिकाना हक सिर्फ एक का नही होता है। शेअर होल्डर्स,  निर्देशक मंडल होता है। किसी एक व्यक्ति का नफा-नुकसान नही होता। बेशक मालिक का पद जिम्मेदारी का है। लेकिन अपने हाथ में आठ-दस साल भी तो है, देखते है वह कितना सीख सकता है। कितनी वह दुनिया उसे राज आती है। सर्कस में जम बैठने के बाद जो पैसा आता जाएगा उसमें से ही रक्कम लगाते जाएंगे, ओैर कुछ पुंजी तो हम अपने बेटे के लिए लगाही सकते है। श्रवण की विचारधारा ओैर सबको अपना बनाने की वृती देख ऐसा लगता है कि कोई भी क्षेत्र इसके लिए मुश्किल नही है। अब बात है आगे बढने की, बढावा देने की।”  

      चर्चा के उपरांत सभी ने इस योजना को हामी भर दी। पैसों की चिंता, समस्या ऐसी तो थी नही। लेकिन फिर भी किसी कारण वश वह धन भी डुबा, तो वह बहोत बडा झटका परिवारवालों के लिए हो सकता था। मैंने मन में बिठा लिया जितना हो सके उतना पैसा खुद जमा करूंगा। फिलहाल सारा सवाल अलाहिदा का था, लेकिन इसके लिए पुरे जी जान से प्रयास करने का मन में ठान लिया। धीरे-धीरे सब सोने के लिए चल दिए। आखरी में माँ, पिताजी ओैर मैं ही रह गए, तब पिताजी ने पुछा “ श्रवण, तुम्हे क्या करना है इस बारे में सचमुच पता है ?”

      “ जी हा पिताजी, मैंने अपनी पूरी क्षमता से सोच-विचार कर यह निर्णय लिया है।” दोनों ने मेरी दृढता की सराहना की। माँ ने मेरा हाथ पकडा ओैर कहा “ ठीक है श्रवण, हम सब तुम्हारे साथ है। किसी भी बात की चिंता मत करना। धन का भुगतान करने भी समर्थ है।” मेरी माँ एक अमीर उद्योगपती की बेटी थी। अपने पश्चात नानाजी ने संपत्ति का आधा हिस्सा माँ के नाम किया था, जो बहोत बडा था। लेकिन माँ के शांत स्वभाव ने कभी धन ओैर वैभव का प्रदर्शन नही दिखाया। इसके विपरीत, वह हर किसी की मदद करने के लिए हमेशा तैयार रहती थी। पिताजी के व्यवसाय में भी, प्रबंधन पहलू को वह उचित तरीके से प्रबंधित करती थी। उनके पास कई कलाएं थी। पिताजी का व्यवहार चातुर्य, ओैर अनुशासनता सरहनीय थी। किसी ने उनके साथ गलत तरीके से व्यवहार, या गैर जिम्मेदार वर्तन किया, तो उसे सीधा करने करने किसी भी साधन का उपयोग करते थे। संक्षेप में जो व्यक्ति उनके साथ जैसा व्यवहार करता था पिताजी वैसा ही जबाब उसे देते थे। इस कारण सब के मन में उनके प्रति एक तरह का रोब था। माँ-पिताजी के इन सब गुणों के संकर के साथ मैं पैदा हुआ था। कुछ देर बाद हम भी सोने चले गए।

        दुसरे दिन अब सबके मन ने यह स्वीकार किया कि श्रवण को उसके मार्ग पर चलने की अनुमती देनी है। वातावरण हलका हो गया। नई उम्मीद, आनंद के साथ अगली योजनाएँ शुरू हुईं। अरुणचाचाजी के साथ सोच-विचारकर कॉन्ट्रॅक्ट साईन करने का तय हुआ। पिताजी अपने वकील मित्र से इस विषय में बात करेंगे ओैर सही मार्ग चुनेंगे, ओैर आठ दिनों में मेरा रिझल्ट आने वाला था, तो यहाँ के कॉलेज में एक्सटर्नल के तौर पर अडमिशन मिल सकती है क्या यह बात भी वह पुछकर आने वाले थे। मेरी तो सारी शंकाए दूर हो गई। रास्ता साफ हो गया। सब परिवार को छोडकर जाने का गम था, लेकिन परिवार अपने मार्ग की बाधा ना बनाते हुए ताकत बनाने की चाहत मैं रखता था। तैयारी में दिन आगे बढने लगे। चाचाजी हम सब की बातें तय होने के बाद दुसरे ही दिन दिल्ली चले गए। मुझे दिल्ली छोडने माँ-पिताजी, दादाजी आने वाले थे। माँ, चाची, दादी का मेरे साथ देने के लिए टिकाऊ भोजन बनाने का प्रबंध शुरू हुआ। देखते-देखते दिन बीत गए ओैर दसवी का नतीजा मिल गया। मैं अस्सी प्रतिशत से उत्तीर्ण हुआ था। सभी बहुत खुश हुए। फिर एक बार सबने समझाना शुरू किया। कितने अच्छे गुण पाकर पास हुए हो, अपनी बुद्धिमत्ता सर्कस में बरबाद करोगे क्या ? आखिर मैने कह ही दिया कि आपके लाख कोशिशों के बावजूद अपनी राय से  नही हटूंगा, तभी सबने मुझे समझाने का कार्य छोड दिया ओैर हकीकत को स्वीकार कर लिया।

        पिताजी ओैर मैं यहा के कॉलेज में प्रिन्सिपल से मिले ओैर सारी हकीकत बया कर दी। अडमिशन के बारे में पुछताछ की। प्रिन्सिपल सर पिताजी के दोस्त ही थे इस कारण बिना संकोच हम बाते करने लगे।

सर ने कहा “ श्रवण, मै तुम्हारी बहुत सराहना करता हूँ। निश्चित रुप से तुम्हारे लिए जरूर कुछ करूंगा। लेकिन क्या तुम बिना कॉलेज के पढाई कर सकोगे ? अकाउंट्स कोई ऐसा विषय नही है, जो सिर्फ किताब पढकर सीख जाओगे, इसी तरह अर्थशास्त्र यह विषय भी किसी के समझाने पर ही समझ में आता है। तो फिर तुम कैसे पढाई करोगे ?”

      “ सर, अभी तो मेरे पास इसका जबाब नही है। वहाँ किसी के पास सीख लुंगा यह भी बता नही सकता क्युंकि हमारा एक ठिकाना तो रहेगा नही। लेकिन इतनी हमी दे सकता हूँ सर, की मैं पढूंगा जरूर।”   

     “ ठीक है, कॉलेज में छात्रों का एक कोटा है। जो बच्चे कमाकर सीखते है उनके लिए कुछ अलग नियम लगाते हुए अडमिशन दी जाती है। बीच-बीच में आकर तुम्हे हजेरी देनी होगी, छह महिने बाद जो परीक्षा रहती है वह देनी होगी। हमारे शिक्षक आपकी सहायता करेंगे, उनसे बात कर लेते है। कल सुबह दस बजे कॉलेज आ जाना कुछ शिक्षकों से मिला देता हूं, फिर फैसला करंगे।”  मै ओैर पिताजी बहुत खुश हुए। यहाँ से पिताजी मुझे नोट्स, किताबे पोस्ट डिलेवरी से भेज सकते थे। इन विषयों की तैयारी कैसे करें, इस बारे में बाद में सोचेंगे ऐसा फैसला किया। यहाँ कॉलेज में दाखिला पाकर परिवार वाले, खासकर माँ बहुत खुश हुई। क्युंकि कॉलेज में हजेरी लगवाने के बहाने चार-छह महिनों में मुझे आना ही पडेगा यह बात सबको जच गई।

     दुसरे दिन प्रिन्सिपल सर ने सक्सेना सर से मिला दिया। दिल्ली जाने से पहले कुछ विषयों के नोट्स देने का ओैर बाकी पोस्ट से कुछ भेजेंगे यह वादा उन्होंने किया। कभी फोन पर बात करते हुए समस्या के समाधान करने की सलाह दी। पिताजीने कॉलेज अडमिशन की प्रवेश प्रक्रिया पुरी की। आज एक बडा काम पुरा हुआ था। इसी खुशी में हम दोनों घर आ गए। देखते-देखते दिन बीतने लगे। दिल्ली जाने का दिन समीप आने लगा। घर में अब चिंता, तनाव का माहोल बनने लगा। दादाजी, पिताजी जब वकील मित्र से बात करने जा रहे थे तब उन्होंने मुझे भी साथ लिया। कुछ बाते उसे भी समझनी चाहिये ऐसा मशवरा वकिलचाचाजी ने दिया था।

  वकील चाचाजी ने कहा “ जब कॉन्ट्रॅक्ट पर दस्तखत करोगे उसके पहले अच्छे से पढ लेना। कायदे कानून, नियम के बारे में कुछ बाते समझ नही आई तो वह अवश्य पुछ लेना। दुर्घटना मुआफजा, बिमा इन सब बातों की पूर्तता बारे में जान लेना। सर्कस के ट्रस्टी के बारें में पता करें। अरुण वर्माजीं के कितने शेअर हैं, मालिक होने के रुप में उनकी जिम्मेदारीयों का पता लगाए। समय के साथ क्या प्रावधान बदल सकते है ओैर उस समय होने वाले लाभ हानी की चर्चा करें। श्रवण को अगर वह काम नही राज आया, या नही कर पाया तो कुछ महिनों का नोटीस पिरीएड देते हुए वह कॉंट्रॅक्ट से मुक्त हो सकता है ऐसा प्रस्ताव अपने तरफ से रख दो। पैसों के बारे में अभी तो कुछ बात नही कर सकते, क्युंकि मालिक बनने का कॉंट्रॅक्ट अलग होगा। अभी उस बारे में नही सोच सकते।”  दो घंटे तक उन तीनों ने ऐसे कई विषयों पर चर्चा की। अनजाने में लिए गए फैसले का इतना बडा दायरा होगा, यह ख्याल भी मेरे दिमाग में नही आया। इसको कहते है अनुभवहीनता।

     जाने का दिन कल पर आ गया। घर का छोटा बच्चा इतनी जलदी दुनिया के कांटेदार ओैर मखमली भी रास्तों पर चलने के लिए परिवार से दूर जा रहा है, इस बात का सबके उपर तनाव छा गया। मुझे भी तो डर लग ही रहा था। प्यार की सुरक्षित दुनिया से बाहर रहने में, मेरा मन पूरी तरह से तैयार नही था। लेकिन इरादें पक्के थे। उसी के ताकत पर मन भारी नही हुआ। मैं उत्साह से भर गया। नई दुनिया, नये लोग, नया अनुभव इस की ओर खिंचता चला जा रहा था। सामान बॅग में भर दिया। सक्सेना सर ने मुझे सभी विषयों के कुछ नोट्स दिए थे, कुछ महिनों के लिए वह काफी थे। माँ ओैर चाची ने टिकाऊ खाद्य पदार्थों को ठीक से पॅक करके एक थैले में रख दिया। उस रात कोई ठीक से सो न सका। हर कोई आगे क्या होगा, कैसे होगा ? इसी खयाल से परेशान था। विचारों की शृंखला में कब आँख लग गई पता नही चला।

     सुबह हो गई वह काम-काज के व्यस्तता में दौडती हुई जा रही थी। नाना तरह की सुचनाएँ, तैयार होने  की जल्दी, दादी का बीच में आँखे पोछना, माँ का उपर-उपर से हँसता हुआ लेकिन अंदर से तणावपूर्ण मन से भरा चेहरा, पिताजी, दादाजी का बार-बार वकीलचाचाजी से फोन करके कुछ पुछना, भाई-बहनों ने अपनी तरह से जो बन सके वह की हुई सहायता, सब घटनाएँ मेरे मन में एक कॅलिडीओस्कोप की तरह संग्रहित कर रहा था। यही जीवन शक्ति मुझे बाहरी दुनिया में जीने की प्रेरणा देने वाली थी। चाचा-चाची की भरी आँखे बहुत कुछ बता रही थी। मैंने संतुष्ट मन से घर का स्वादपूर्ण भोजन किया ओैर तृप्त हो गया। सभी प्यार से आग्रहतापुर्वक परोस रहे थे। यह देखते-देखते मेरा मन अचानक संवेदनशील बन गया ओैर मै भी रोने लगा। कल्पना ओैर वास्तविकता में जमीन-आसमान का अंतर होता है। उसके बीच की यात्रा ही जीवन है। वह जीना, अनुभव करना पडता है। इसका सामना करना पडता है। मेरा युवा मन उलट-पुलट हो गया। सभी की भावनाओं की तीव्रता एक दुसरे को टकराई। माँ ने मुझे कलेजे से लगाया, कुछ देर तक सब की आँखे बहती रही, फिर कुछ देर बाद वह भावनाओं का सैलाब शांत हो गया। मेरा जाना सबको मंजूर था ओैर सबसे जादा मुझे मंजुर था। मैं उन बच्चों जैसा नही था जो माँ-बाप द्वारा हॉस्टेल भेजे जाते है तो भारी मन से उन्हे ना चाहते हुए भी घर से दूर रहना पडता है। वह बोझ बच्चे संभाल भी नही पाते। सर्कस जाने का निर्णय मेरा था, इसलीए नाराज मन से घर के बाहर जाने की नौबत मुझपर नही थी। किसी से मुझे शिकायत नही थी। सबको मन में समाकर अलविदा कहते हुए हम वहाँ से चल दिए। कुछ लोग स्टेशन तक छोडने आने वाले थे। कार से शहर का नजारा आँखो में बस गया। जैसे ही ट्रेन स्टेशन पहुंची वैसे जगह ढुंढकर सामान अपनी जगह लगा दिया फिर बाकियों को अलविदा कहते-कहते गाडी चल पडी एक विशाल दुनिया का अनुभव करने के लिए।  

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