Prem Gali ati Sankari - 132 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 132

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प्रेम गली अति साँकरी - 132

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अगला दिन एक नई सुबह जैसा ही था | सूर्य देव अपनी छटा से संस्थान के प्रांगण से लेकर वहाँ के सभी लोगों के मन में ऊर्जा का स्रोत लेकर पधार चुके थे | हम बेशक उदास हों, छुट्टी कर लें, अपने बिस्तर में मुँह छिपाएँ, बहाने बनाकर पड़े रहें लेकिन संस्थान की दिनचर्या बरसों से जैसी थी, वैसा ही था दिन बस, चुप था, उदास था, उसके चेहरे पर कुछ जमने के निशान थे, कुछ आँसुओं के, कुछ बेचारगी के, कुछ नाराज़गी के!

मुझे लगा मैं दीवारों में, अस्थिर चीज़ों में भी मानवीकरण कर रही हूँ | वैसे ठीक था न हर चीज़ में संवेदनाओं का कुछ न कुछ भाग नज़र आ जाता है | फिर हम तो कलाकार थे जिन्हें हर चीज़ में संवेदना का आभास होता ही है | कभी-कभी मुझे अपना ही व्यक्तित्व समझ में नहीं आता था और मैं मन ही मन खुद पर हँस पड़ती थी | एक ओर जहाँ इस दुनिया में सपाट लोग हैं, दूसरी ओर इतने संवेदनशील! एक-दूसरे को समझ पाने में असमर्थ !

एक बात और समझ में नहीं आ रही थी कि मुझे मंगला की याद जाने क्यों बहुत आ रही थी | मंगला का ऐसे लोगों के बीच में रहना मुझे तक्लीफ़ दे रहा था | वह कौन है?कहाँ से आई है?इतनी प्यारी, विनम्र, सुगढ़ मंगला कहीं किसी परेशानी में तो नहीं है?वैसे तो भला मैं क्या कर सकती थी लेकिन कहते हैं न दिमाग शैतान का घर होता है, शांत तो रह ही नहीं सकता है! उसे कैसे मिला जाए?बुलाकर अपने पास रखने का मन होता | 

अभी बहुत कुछ चल रहा था मस्तिष्क में जिसको मैं सबसे पहले शीला दीदी और रतनी के साथ साझा करना चाहती थी | अभी तो एक दिन भी नहीं हुआ था और मेरा अविवेकी मन मुझसे चुगली खाए जा रहा था | कुछ भी हो, वह शर्बत की बॉटल क्यों दी गई थी और चुपके से, वह भी सबको जाने से पहले डिनर से पहले पिलाने के लिए कहकर?महाराज का हैल्पर बेचारा कुछ भी कैसे समझ पाता, उसने चुपचाप महाराज को बता दिया और उनसे बात मुझ तक पहुंची थी | 

संस्थान सुस्त था लेकिन अपनी दिनचर्या में व्यस्त था जो ज़रूरी था | अभी हमें भी जल्दी नहीं करनी चाहिए थी, मैंने सोचा | सारा स्टाफ़ अपने काम, कक्षाएं आदि में व्यस्त था बल्कि शाम की कक्षाएं भी प्रतिदिन की तरह चलनी थीं तब ?

मैं तैयार होकर अपने चैंबर की ओर चल दी थी | अब नाश्ता करने अकेले डाइनिंग तक जाने की न तो ज़रूरत होगी न ही मन ! अब मेरा कमरा भला और उसकी खिड़की वाली कुर्सी भली | नाश्ता बहुत तो करती नहीं थी इसलिए यहीं मँगवा लिया था | मन में सोच रखा था कि लंच करना होगा तो शीला दीदी और रतनी के साथ करूँगी | उत्पल लंच में अधिकतर हमारा साथी होता था अब स्थिति भिन्न बन गई थी और बनती जा रही थी | उसका अता-पता तो था नहीं कहीं साक्षात में सिवाय मेरे दिल और धड़कनों के !!

अम्मा-पापा जानते थे कि यदि मैं संस्थान में ही रहूँगी तब मेरे खाने की बड़ी परेशानी हो जाएगी और अकेले मेरा खाना-पीना बस ऐसे ही जाएगा | शीला दीदी और रतनी से वे दोनों स्पष्ट कहकर गए थे कि कुछ भी करें उनकी बेटी के खाने का ध्यान उन्हें ही रखना होगा। बेशक अब लोग वहीं संस्थान में साथ में भोजन करें या फिर कभी कोई तो कभी कोई मुझे साथ दे | वैसे दिव्य और डॉली तो साथ में मैनेज कर ही सकते थे | खाना तो वहाँ जैसे सबका बनना था वैसे ही बनना था | 

“खाने के लिए क्या अम्मा इतनी चिंता करती हो अम्मा?” उनकी बेटी खाना नहीं खाएगी क्या इतने दिन?पेट की भूख तो अच्छों अच्छों को सुधार देती है | अम्मा को अपने बच्चों की हरकतें नहीं पता होंगी तो भला किसको?यहाँ तो अम्मा-पापा के साथ आधे संस्थान को मेरी बिगड़ी हुई आदतों के बारे में मालूम था ही | 

शीला दीदी के आश्वासन पर तो हर किसी की दुनिया टिक जाती है, उनका कहना केवल कहना ही नहीं होता बल्कि सामने वाली दीवार पर खींची हुई वह लकीर होता है जो किसी को दिखाई दे या न दे उनकी दृष्टि भेदी नज़र में वह लकीर समाई रहती है | 

आज शाम की कॉफ़ी मैंने स्टाफ़ के साथ ही ली | सभी फैकल्टीज़ शाम को स्टाफ़-रूम में जमा हो गए थे | जी, प्रमेश और उनका पूरा स्टाफ़ भी | आज काफ़ी लंबे समय बाद पूरा स्टाफ़ एक साथ था, शाम की नृत्य की कक्षाओं से पहले नृत्य के सभी गुरु भी | नृत्य की कक्षाएं लगभग आठ बजे पूरी होतीं और उस समय सबको अपने-अपने परिवारों में वापसी की स्वाभाविक जल्दबाज़ी होती | 

अधिकांश ऐसी मीटिंग्स में चाय/कॉफ़ी के साथ कोई कुकीज़ ही सर्व की जाती थीं लेकिन आज महाराज ने कुकीज़ के अलावा दो खास चीज़ें विशेष रूप से सबके लिए बनवाई थीं जिनमें बंगाल की झाल मुरी स्ट्रीट स्नैक और संदेश ! यह सब देखकर स्टाफ़ में सब खुश हो उठे | 

“वाह ! महाराज, आपने तो दावत करवा दी!”

“आज यह दावत अमी दीदी और आचार्य जी के स्वागत में लगती है | ”कहीं से आवाज़ आई | 

“बहुत सुंदर ! दीदी ! आपके आदेश का पालन हुआ लगता है?” सब मज़े ले रहे थे और स्वाभाविक रूप से कुछ ऐसे रिमार्क भी हो रहे थे जिनको सुनकर शायद कोई और होता तो उसके चेहरे पर कम से कम ललाई तो खिल  ही उठती!

“आप लोग इतने वर्षों से संस्थान में हैं, जानते समझते नहीं हैं कि हमारे महाराज अपने मन के राजा हैँ, छोटी पार्टी हो या बड़ी किसी स्टार होटल की, जो भी करना हो उनके बिना कहाँ कोई कर पाता है? उनके अलावा अब तो पूरा परिवार यहाँ है तो मेरी या किसी और की कुछ ज़रूरत ही कहाँ है? अम्मा-पापा भी तो निश्चिंत रहते हैँ | आप लोग इन्जॉय करें और महाराज को धन्यवाद दें | ”मैंने बड़ी सफ़ाई से सारी बात अपनी मुट्ठी में समेट ली | सबने खूब इन्जॉय किया बल्कि उस दिन नृत्य की कक्षाएं भी उधम मचाती रहीं और हम सब आने वाले दिनों में कार्यक्रम की रूपरेखा बनाकर डिस्पर्स होने लगे | 

प्रमेश को और मुझे सब बधाइयाँ देते हुए निकले और मेरे मन में वह कागज़ का टुकड़ा फड़फड़ाया जो दो दिन पहले ही तो मैरेज रजिस्ट्रार के सामने हम दोनों के हस्ताक्षर करवाकर दोनों को संभालकर रखने के लिए दिया गया था | क्या हम दोनों के हस्ताक्षरों की कोई कीमत थी?प्रश्न मन के हस्ताक्षर का था, कागज़ के हस्ताक्षर न जाने यहाँ-वहाँ कितने बिखरे पड़े थे | 

“चलो, बाय---” जाते-जाते प्रमेश ने मरी हुई आवाज़ में कहा और मैंने भी अपनी गर्दन को रबर का बना लिया | 

अब सब धीरे-धीरे शांत होने लगा था | मैं अपने जल्दी अपने कमरे में चली आई और शावर के नीचे खड़ी न जाने कितनी देर तक आँसुओं के साथ पानी में कपड़ों सहित भीगी खड़ी रही | मेरे मन में अजीब ज्वाला सी सुलग रही थी और शरीर के स्नायुओं से जैसे अग्निशिखा की लकीरें बाहर आने को व्याकुल थीं | 

अच्छा हुआ शीला दीदी आ गईं और मैं हमेशा की अपने लॉंग बाथ-टॉवल में लिपटकर बाहर !