Prem Gali ati Sankari - 131 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 131

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प्रेम गली अति साँकरी - 131

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यू. के की उड़ान के दिन दोनों भाई-बहन पधार गए | अम्मा-पापा, भाई-भाभी के लिए यह उनका आना एक नॉर्मल सी बात थी लेकिन मेरे मन में तो शंका के बीज उग चुके थे | किसी मनुष्य में इतनी दुष्टता हो सकती है और वह चीज़ों को किस प्रकार ऊपर-नीचे करने में अपने मस्तिष्क का दुरुपयोग कर सकता है, यह एक चिंता का विषय तो था ही | इसके पीछे वास्तव में था क्या? मुझे इसका खुलासा तो करना ही था | मैं प्रमेश की बहन को इस मामले में छोड़ने के किसी प्रकार भी मूड में नहीं थी | 

अम्मा-पापा ने उनका बड़ी तहज़ीब से स्वागत ही किया और उन्हें आने के लिए धन्यवाद भी दिया | सब कुछ होते हुए यह भी सच था कि अम्मा-पापा, भाई-भाभी इन लोगों से असहज तो हो ही चुके थे और कहीं न कहीं कुछ अटपटा सा उनके मन में बैठ चुका था और मेरे मन में वो शर्बत की बोतल एक तस्वीर बनाकर खड़ी हो चुकी थी | 

“आप अमी का बिलकुल भी चिंता मत कीजिए, हम सब इदर हैं न ! दूसरा तो दूसरा ही होता है | अब ये लोग तो आपका एम्पलोई हाय न, तो---? वैसे बी परिवार का बात अलग---”उनकी ज़बान का कोई ठिकाना नहीं था | मुझे लगता था, वे कितना भी कोशिश कर लें अपनी ज़बान बंद करने में उन्हें शायद अपनी साँस बंद करनी पड़ जाए!

वे ही तो थीं चिंता का आगार! और कौन भला? उनको देखकर मैं पहले भी असहज होती थी और अब शादी के बाद तो और उनकी नेकनीयती देख चुकी थी | रहस्यमयी स्त्री!रहस्य भरा घर और वातावरण और रहस्य भरा व्यवहार!मुझे मंगला की याद अचानक आ गई, वह कैसे फँस गई होगी इस औरत के चंगुल में?

जाने का समय हो गया था अत: निकलना ही था, एयरपोर्ट पर जाकर भी क्या करना था उन्हें लेकिन अपना फ़र्ज़ निबाहना उन्होंने शायद अधिक ठीक समझा और भाई के साथ गाड़ी में वहाँ भी पहुँच गईं | 

“अमी! ठीक है न बिटिया?” पापा मेरे अंदर की हलचल को छू रहे थे | 

“माँ-बाप किसी से नहीं हारते, अपने बच्चों से हार जाते हैं---”दादी कहा करती थीं और हँसकर यह भी कह देतीं; “देखो न, मैं अपने बच्चों से नहीं हार गई? क्यों काली ?”अम्मा उनकी गोद में दुलरा जातीं | 

“आप हमसे हार जाएंगी? इतनी औकात है हमारी ?” दादी उन्हें अपने सीने में समेट लेतीं | 

“मैं तो हारना ही चाहती हूँ अपने बच्चों से, तभी तो तुम पर गर्व करूंगी | ”

हमारे परिवार में ऐसी बातें होती ही रहती थीं लेकिन यहाँ सबकी जीत थी और सबकी हार ! कोई अकेला नहीं था और इसीलिए आज सब इसके अपने थे और यह सबका अपना!न कोई अलग-थलग न किसी अकेले का सपना! संस्थान के बनने के बाद जब शीला दीदी का परिवार दादी के माध्यम से जुड़ा था तब दादी को बार-बार लगता कि कैसा अच्छा हो अगर परिवार टूटने की जगह जुडने लगें | 

पापा ने जब मुझसे पूछा कि मैं ठीक हूँ न? तब ही मेरे मन में कुछ चटका जैसे कोई काँच की कड़क सी आवाज़ भीतर से आई, मेरे मन में कोई बहुत बारीक किरच चुभी थी और मन ने कहा था ‘पापा! मैं ठीक हूँ, जानती हूँ आप ठीक नहीं हैं’लेकिन कह कुछ नहीं पाई थी और मुस्कराकर उनके सीने से लग गई थी | 

“अरे! पापा, मैं आपकी बेटी हूँ, आप अब ज़रा मेरे भाई को भी सेवा का मौका दीजिए, बड़ा सुंदर और पुख्ता इंतज़ाम किया हुआ है इसने वहाँ, उसे हमेशा शिकायत रही है कि आप अपनी बेटी को ज़्यादा प्यार करते हैं और इसीलिए उससे दूर रहे हैं | अब आप दोनों उस पर अपना लाड़ बरसाइए और उन केंद्रों पर ही पूरा समय और ऊर्जा खर्च मत कर दीजिएगा | पूरा आनंद लीजिएगा | ”

चैक-इन के लिए जाने से पहले प्रमेश की दीदी आँखों में आँसू भरे अम्मा के लिपट गईं---

“हैव ए सेफ़ जर्नी, इन्जॉय योर स्टे एण्ड कम बैक सून---”वे कुछ ऐसे बोलीं जैसे कोई तोता अचानक ‘राम-राम’ रटते हुए किसी अलग ट्रैक पर चढ़ आया हो और जैसे कुछ और रटे हुए कुछ शब्द उसे याद दिलवा दिए गए हों | 

उनकी बात सुनकर सब मुँह घुमाकर मुस्काने लगे थे, साफ़ पता चल रहा था | भाई-भाभी और वाणी मुझसे लिपट गए और वाणी ने मुझे प्यार करते हुए कहा, ”बूआ, नाऊ योर टर्न तो कम एंड स्टे विद अस—” मैंने उसे प्यार किया और वे सब पीछे देखते हुए आगे बढ़ गए | 

न जाने क्यों अम्मा मुझे जाते समय गले न लगा सकीं, उन्हें दीदी महारानी का उस समय उनसे चिपटना कुछ अजीब सा ही लग रहा था | सच तो यह था कि एक अजीब से वातावरण में ये सब अपनी इस यात्रा के लिए निकले थे | 

एयरपोर्ट से बाहर आकर मुझसे पूछा गया;

“तुम हमारे साथ चलोगी अमी?”यह भी दीदी ने, पति नाम का नमूना गाड़ी में बैठा मुझे घूर रहा था | वैसे मुझे घूरने का अधिकार था क्या उसका? मेरा मन भीतर से उबलने लगा | 

“नहीं, मुझे संस्थान जाना है—”

मेरी गाड़ी खड़ी ही थी | मैं बिना इधर-उधर देखे, बिना कुछ कहे मेरी गाड़ी शोफ़र ने आगे बढ़ा दी थी | प्रमेश अपनी प्यारी बहना को लेकर अपने घर की ओर चला गया | 

संस्थान में सब लोग हमारे लौटने की प्रतीक्षा कर रहे थे | शीला दीदी, रतनी और सभी वहीं बने हुए थे | उस दिन पहली बार संस्थान ‘बेचारा’ सा लगा | महसूस हुआ कि दीवारें भी चुप हो जाती हैँ, उनकी भी संवेदनाएं होती हैं, उनके भी संवाद होते हैं, वे एक-दूसरे से बतियाती हैं इसीलिए चुप्पी भी ओढ़ती बिछाती हैं | अब थोड़ा आराम करने, सोचने के बाद एक लंबी चुनौती मेरे सामने थी |