पेड़ों पर फलने वाले फलों से लेकर
उन पर बसने वाले पंछियों तक को हर कोई चाहता है
तो उन्हीं पेड़ों से टूट कर मुरझाते हुए
झड़ने वाली पत्तियों से इतना बैर क्यूं?
हाय कितना कूड़ा फैल गया!
पत्तियां झड़ गईं!
अब झाड़ू लगाना पड़ेगा!
एक काम और बढ़ गया!
ऐसी तोहमतें उन शाख से बिछड़ी
पत्तियों के हिस्से ही क्यों आती हैं?
क्या उनसे हमें संवेदना नहीं रखनी चाहिए?
जन्मदाता से बिछोह की इस प्रक्रिया पर
हमारी इतनी निर्मम प्रतिक्रिया क्या उचित है?
हां ,हमने सराहा था उनको जब
वो कोपल बन शांखों पर पनपी थीं,
बस एक वही क्षण तो था
जब हमने उन्हें जीभर निहारा था
उसके बाद हर मौसम की कितनी मार झेली उन्होंने,
कितने सबक सीखने पड़े उन्हें अपने जीवन चक्र में
क्या इसकी चिंता हुई हमें?
उनका आना तो बस जैसे हमारे लिए
प्रतीक्षा के लंबे सफर की शुरुवात जैसा रहा हमेशा।
ये तो आ गईं, अब फूल कब खिलेंगे?
फूल भी हमारी आतुरता से अछूते कहां ही रह सके,
खिलते हुए बिखेरते रहे अपनी मुस्कुराहट
और अपनी पलकों के झपकने जितनी आयु में
दे गए मीठे सपनों की सौगात।
अब कुछ दिन और शेष हैं
पेड़ के अपनी ज़िम्मेदारी निभाने में।
लो! देखते ही देखते
सब्र का मीठा फल भी मिल ही गया सबको!
इन सबके बीच किसी का ध्यान
उन कोमल कोपलों पर गया?
जो समय के थपेड़ों की मार खाते हुए भी ,
जो इतने सारे पड़ावों को पार करते हुए भी
सदैव डटी रहीं अपने फर्ज़ के पथ पर!
फूलों के संरक्षण से लेकर उनमें फल के पनपनें तक।
नहीं कमज़ोर पड़ने दिया फूलों को,
जिम्मेदारियों के भार के संग
फलों का भार भी खुशी खुशी ढोती रहीं।
अभी जीवन चक्र समाप्त होने में अवधि है
किंतु फलों के संरक्षण में बलिदान देने से पीछे न रहीं।
हर पत्थर की मार ख़ुद खा कर
कच्चे फलों को पकने का
मौका देती रहीं।
अब जब सभी उत्तरदायित्वों का निर्वहन
उचित प्रकार से करने के बाद
विश्राम करने का सोचा ही था
कि
अंत समीप आ गया।
जवानी की हरियाली
अब बुढ़ापे के पीलेपन में ढलने लगी।
वो चमक अब कुछ फीकी सी पड़ने लगी।
पेड़ ने अब तक जिस स्नेह उनको सींचा था
अब वो भी ज़रा उनसे जी चुराने लगा।
बुढ़ापे का रंग अब उसे भी कम भाने लगा।
मोड़ लिया मुंह उसने भी
अपने प्रेम के जल से भी वंचित कर दिया।
देखते ही देखते उस पत्ते का
जीवन ही अंत कर दिया।
जीवन के जिस मोड़ पर
उन पत्तों को अपनों के साथ की ज़रूरत थी
एक सुखद अंत की उम्मीद में
उसी मोड़ पर उसके अपनों ने
उसे अपने असली रंग दिखा दिए।
काश! वो अपने लिए जी जाता!
नहीं सहता मार मौसम की
और पत्थरों से खुद को बचा पाता।
उसकी हरियाली जीवनपर्यंत यूंही बनी रहती
और यूंही वो डाली से चिपक इठला पाता!
अगर यह सब हो जाता तो फिर नवजीवन कैसे
पलकें खोल पाता?
इस धरती पर सब अपने प्रारब्ध को साथ लेकर आते हैं
जिस प्रयोजन से आए हैं, हस्ते रोते निभा कर ही जाते हैं
हां दुख के मौसम यदा कदा रुलाते हैं
लेकिन
मत भूलो कि दुःख के बाद वो सुख की बरसात वाले बादल भी ज़रूर छाते हैं
और खुशियों की ठंडी फुहारों से शुष्क पड़े बंजर मन को उम्मीदों की उपजाऊ सौगात दे जाते हैं।