Prem Gali ati Sankari - 128 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 128

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प्रेम गली अति साँकरी - 128

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न जाने कब तक अपने बिस्तर की गर्माहट को समेटते हुए मैं पड़ी रही थी | पड़ी भी क्या रही थी जिस असहजता, बनावटीपन और मानसिक त्रास से जूझ रही थी, वह जैसे कहीं दूर बहता जा रहा था लेकिन बिलकुल नहीं था, ऐसा भी नहीं था | क्या कई दिनों से मेरे भीतर कोई ऐसा सपना चल रहा था जो शायद कुछेक समय से शुरू हुआ था लेकिन मन व मस्तिष्क के बीहड़ में मुझे घसीट ले जाने वाला अंतहीन सपना था | यूँ तो सपने मुझे कभी आते नहीं थे लेकिन अब ?

प्रश्न बहुत थे और अब उनके उत्तर तलाशना मेरी ज़िम्मेदारी थी और झूठ से पर्दा उठे उसकी तैयारी मुझे करनी ही थी | बस, परिवार को कोई मानसिक व शारीरिक क्लेश न हो, इसका ध्यान रखना मेरे लिए उतना ही महत्वपूर्ण था जितना अब मेरा व संस्थान के अस्तित्व का ध्यान व उसकी सुरक्षा !इस भाई-बहन के जोड़े में सामने कुछ न होते हुए भी बहुत कुछ ऐसा छिपा था जिसको निकालना सागर से मोती निकालना था | मुझे मन ही मन अपने बिम्ब पर हँसी आ गई, क्या सागर से मोती निकालना या कीचड़ से ऐसा कुछ असंभव सा निकाल लाना जहाँ दुनिया के किसी ऐसे कोण के बारे में ज्ञात हो सके जिससे आँखें खुल सकें, एक सी ही बात थी क्या?दोनों बातों को कैसे एक ही पलड़े में झुला दिया मैंने ?

वैसे मैं भीतर से दृढ़ होती जा रही थी कि मेरा श्रम रंग लाएगा और मैं इस रूप के लोगों को समाज के सामने निर्वस्त्र कर सकूँगी जो निहायत ज़रूरी है | मैं अच्छी तरह जानती, समझती थी कि उत्पल तुम मेरे साथ यहाँ शरीर से उपस्थित नहीं हो लेकिन मेरे मन-आँगन, मेरी सोच, मेरे भीतर-बाहर जाने -अनजाने तुम और केवल तुम ही हो और मुझे मार्ग-दर्शन तुम्हारा ही रहेगा| 

जैसा हमेशा होता था, मुझे किसी ने परेशान नहीं किया था| मैं पहले तो न जाने कव कितनी गहरी नींद सो गई थी, बाद में खुमारी में सोती-जागती, करवटें बदलती हुई विचारों की तेज़, सुस्त रफ़्तार के घोड़ों पर सवार रही थी लेकिन एक आश्वस्ति सी भीतर समाने लगी थी जिससे मैं जागने के बाद स्वयं को कुछ सहज महसूस कर रही थी| 

आखिर उठना तो था ही, करवट बदलकर मैं उठ खड़ी हुई, कलाई पर नज़र गई, आदत के अनुसार घड़ी सारे समय मेरे हाथ में रहती थी, रात में भी !यह आदत बचपन से थी और सब लोग इसका मज़ाक बनाने से बाज़ नहीं आते थे| एक दिन उत्पल ने भी तो पूछा था;

“आप चौबीस घंटे हाथ में घड़ी पहनकर परेशान नहीं हो जातीं?”

“नहीं, बल्कि मेरे हाथ में घड़ी न हो तो मैं परेशान हो जाती हूँ | ”मैंने हँसकर उसे बताया था | 

“इसका मतलब, आप समय को बहुत महत्वपूर्ण और कीमती समझती हैं!”

उसके इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया था मैंने, मैं और समय की कीमत ! मन में ही मेरी हँसी छूट गई और बात आई-गई हो गई थी, अगर समय की कीमत समझी होती तो--क्या यह स्थिति होती जिसमें आज तक थी? बार-बार यह समझने पर भी क्यों स्थिर नहीं हो पाता मनुष्य का मन कि जो होना होगा, वही तो होगा| 

हाँ, तो कलाई की घड़ी पर दृष्टि गई और देखा कि साढ़े-चार बज चुके थे| हद हो गई, संस्थान की सुबह की कक्षाएं बंद होने का समय था यानि वाद्य व शास्त्रीय संगीत की कक्षाएं जो दिन में चलती रहती थीं और संध्या की नृत्य की कक्षाओं के शुरू होने का समय शुरू होने वाला था | उठकर एक भरपूर अंगड़ाई ली, उलझ गई साड़ी में जैसे आई थी, वैसे ही तो पसर गई थी पलंग पर!चलो भई, अपने असली स्वरूप में आया जाए | चल दी मैं अपने को चुस्त-दुरुस्त करने!

‘आहा!’ अपने बाथरूम में जाते ही कैसी आत्मीयता की सुगंध भीतर तैरती सी लगी और सामने आईने में देखकर एक बड़ी सी मुस्कान चेहरे पर सरक आई थी और मैं, जो न जाने कहाँ स्वयं को अनजानी महसूस करने लगी थी, अचानक ही पहचानने लगी जैसे---भीतर एक भीना अहसास उतरने लगा| 

‘इतनी भी बूढ़ी नहीं लगती---‘मुँह पर छींटे मारते हुए मैं खुद को कुछ अधिक ही युवा सी और फ़्रेश महसूस कर रही थी| नहाने का मन हो आया और शावर के नीचे जा खड़ी हुई| 

जल्दी ही अपने रोज़ाना के कपड़े मेरे शरीर पर थे और थोड़ी तैयार होकर मैं कमरे से बाहर निकल आई थी| शायद कॉफ़ी-चाय का दौर चल रहा हो, जरूर ही सब वहाँ होंगे, सोचते हुए मेरे कदम पहुँच ही गए डाइनिंग की तरफ़ जहाँ स्टाफ़ के भी कुछ लोग बैठे हुए शाम की चाय-कॉफ़ी का लुत्फ़ ले रहे थे| 

मुझे देखकर सबके चेहरे खिल उठे| वैसे स्टाफ़ का कमरा अलग था और सब लोग अपने खाली समय में  वहीं चाय-कॉफ़ी का आनंद लेते थे किन्तु आज कुछ लोग पर्सनल डाइनिंग में थे| शायद मुझसे ही मिलने आ गए होंगे| रोज़ाना अपने स्टाफ़ के साथ गप्पें मारते हुए फ़ैकल्टी अपनी कक्षाओं के बारे में चर्चा करती, लगभग सभी लोग अपने छात्रों के बारे में, उनकी कुशलताओं के बारे में चर्चा करते जिनका ज़िक्र बाकायदा अम्मा के पास तक पहुँचता| ऐसी सब मीटिंग्स ‘कॉन्फ्रेंस रूम’में होतीं थीं| सबके साथ अम्मा भी वहीं उपस्थित होतीं और चर्चा के बाद महत्वपूर्ण निर्णय लिए जाते| 

इन मीटिंग्स में सभी कलाओं के बारे में बात होती थीं | वाद्य-यंत्रों की शृंखला में सभी के ऊपर आचार्य प्रमेश बर्मन थे जो इस शृंखला के सर्वेसर्वा थे जिन्हें वर्षों से ‘कला-संरक्षक’की उपाधि से सम्मानित किया गया था | उनके साथ असिस्टेंट्स के रूप में कई प्रवीण शिक्षक थे जिनका काम अम्मा के सामने रिपोर्ट रखना रहता था| सभी अपने विभागों में पहले छात्रों के बारे में, अपनी कार्य-प्रणाली के, भविष्य की संभावनाओं के बारे में चर्चा आदि करते, अंत में अम्मा के सामने प्रस्तुति होती और वे ही उन सभी कमियों को हाइलाइट करके आदेश देतीं कि कार्य की प्रगति के लिए अब कौनसे और कैसे ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है !!

अम्मा शुरू से ही कहती थीं कि प्रमेश बर्मन इतना उच्च कोटि का सितारिस्ट होते हुए भी एकदम चुप रहने वाली प्रकृति का मनुष्य है| ऐसी मीटिंग्स में भी वह स्वयं कम से कम बोलता लेकिन उसका काम उसके स्टाफ़ द्वारा कितना परफेक्ट कराया जाता है, उसकी प्रेजेंटेशन सबसे बढ़िया होती है और वह बिना कुछ अधिक बोले ही गुरुओं की पंक्ति में शांत, सरल, सहज बल्कि एक मुग्धावस्था में सबसे ऊपर के पायदान पर खड़ा दिखाई देता है| 

इतने सारे गुणों को ओढ़ने-बिछाने वाले बंदे की असलियत मुझे अब स्पष्ट हो जाने की चेतावनी दे रही थी| 

मुखौटों में घिरा एक ऐसा चेहरा जिसके असली चेहरे के बारे में कोई समझता, जानता ही नहीं था और उसे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता था| पड़ता और किसी को भी क्यों होगा? अब मुझे और मुझसे जुड़े हुओं के रक्त-संबंधों पर पड़ रहा था जो स्वाभाविक था और जरूरी भी | 

अम्मा के डाइनिंग में पहुँचकर जितने लोग उपस्थित थे, उनके साथ बैठकर कॉफ़ी की चुसकियों में मैं उन कंटीले झाड़ों को एक तरह से मन की गलियों से खदेड़ने का प्रयास कर रही थी या सहज ही हो रहा था जिनके दंश अभी मेरे भीतर चस-चस कर रहे थे| पता चल गया था, प्रमेश आए थे और कक्षाएं लेकर वापिस भी चले गए? प्रमेश ? मेरा पति था क्या? मेरे मुख पर एक व्यंग्य भरी मुस्कान पसर गई और कल रात की बातें अचानक मेरे भीतर गुड़गुड़ करने लगीं |