अध्याय सोलह
दो गज़ ज़मीं न मिल सकी !
बेगम हज़रत महल, नाना साहब, मम्मू खाँ, बालाराव, राणा वेणीमाधव सिंह, राजा देवीबख़्श सिंह बैठे नेपाल के राजा जंग बहादुर द्वारा पेश की जा रही दिक्क़तों पर चर्चा कर रहे थे। राण की फ़ौजें अँग्रेजों के साथ थीं। पर यहाँ शिवालिक में विद्रोहियों को भी राणा तंग करेंगे, ऐसी उम्मीद नहीं थी।
नाना ने बात शुरू की ‘राणा की सेनाएँ हमारे विपक्ष में थीं। उन्होंने अवध की सभी लड़ाइयों में अँग्रेजों का साथ दिया। राणा हम लोगों को हिमालय से भी निकालना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि हम अँग्रेजों के सामने आत्म समर्पण कर दें। वे हमारी सेनाओं का राशन-पानी भी रोक रहे हैं।’
‘हम राणा का भी मुकाबला करेंगे। हिमालय केवल उन्हीं का नहीं है।’ वेणीमाधव कुछ उग्र हो उठे।
‘अँग्रेजों से हमारी लड़ाई ख़त्म नहीं हुई है। हमें फिर तैयारी करनी होगी।’ बालाराव भी बोल पड़े। ‘आत्म समर्पण का तो प्रश्न ही नहीं पैदा होता। अभाव की ज़िन्दगी से हम हताश नहीं है। मौत भी हमें डरा नहीं सकती। युद्ध में मौत का वरण शान की बात है पर अँग्रेजों के क़ैदखाने में रहना मौत से भी कष्टकर है।’ देवीबख़्श का चेहरा सुर्ख़ हो गया था।
‘हम लोगों के पास साधनों की कमी थी। कम्पनी सेना के पास तोपें और अच्छी बन्दूकें अधिक थीं। गोला-बारूद भी अधिक था। उन्होंने दुनिया भर से अपने सभी सेनापतियों को बुला लिया था। बेहतर रणनीति बनाई। हम टुकड़ों में लड़ते रहे। संगठित नहीं हो पाए अन्यथा हम जीत सकते थे। दिल्ली, लखनऊ, बैसवाड़ा, कानपुर, गोण्डा, बहराइच, रुहेलखण्ड सभी जगह अच्छी टक्कर देकर भी हमें हटना पड़ा।’ नाना साहब ने विमर्श को आगे बढ़ाया। ‘हम अपने ही विश्वासघातियों के कारण पराजित हुए। हमारे अपने भाई-बन्द ही अँग्रेजों का साथ दे रहे थे।’ राजा देवीबख़्श अपनों के विश्वास घात को स्मरण कर दुखी थे।
‘राजा साहब सच कह रहे हैं।’ मम्मू खाँ ने भी समर्थन किया। ‘अगर अपने ही लोगों ने धोखा न दिया होता तो नतीजा कुछ और होता।’ ‘जो हो चुका उस पर पछताने का वक़्त नहीं है। हमें आज के हालात को देखना है।’ बेगम ने अपनी बात रखी। सभी ने बेगम के बात की ताईद की। ‘पहले तो विक्टोरिया राज से निपटना होगा। हमें इस देश से अँग्रेजी राज को ख़त्म करना होगा, चाहे इसमें पीढ़िया खप जाएँ। देश को ऐसी कम्पनियों से भी बचाना होगा जो व्यापार के बहाने राज करने आ जाती हैं। जिनका ख़ून चूसती हैं, उन्हीं को बेवकूफ़, जंगली कहती हैं।’ देवीबख्श सिंह कहते गए।
‘ठीक कहते हैं आप। एक कम्पनी जो यहाँ व्यापार करने आई थी, राज करने लगी। राज को उसने व्यापार का साधन बनाया। कल को और कम्पनियाँ भी यहाँ आकर व्यापार के बहाने राज करने की सोच सकती हैं। कम्पनी ने कैसे इस देश को अपने कब्ज़े में किया, इस पर विचार करने की ज़रूरत है। हम बिखरे और बँटे हुए रहे। अँग्रेजों ने हमारे ही भाइयों का उपयोग अपने फ़ायदे के लिए हमारे खि़लाफ़ किया। हर समाज में कुछ जोड़ने और कुछ तोड़ने वाली ताकतें हमेशा रहती है। अँग्रेजों ने तोड़ने वाली ताकतों को अपने पक्ष में किया। हमें और हमारी अगली पीढ़ियों को सावधान रहने की ज़रूरत है। बड़ी व्यापारी कम्पनियाँ हुकूमत से गँठजोड़ कर लाभ कमाती हैं। जब लाभ कमाने में कोई दिक्क़त आती है तो वे ख़ुद हुकूमत करने की सोचने लगती हैं। देश को एक जुट और समृद्ध रखना है तो हमारी अगली पीढ़ियों को भी अधिक सचेत रहना होगा। वे बड़ी कम्पनियों के चंगुल में ऐसे न फँस जाएँ कि निकल ही न सकें। अँग्रेजों की गुलामी में तो देश की तरक्क़ी मुमकिन नहीं है भले ही कम्पनी की जगह ‘ताज’ ने राज सँभाल लिया है। आमजन अँग्रेजी राज में अधिक गरीब और अनपढ़ होता जाएगा। जहाँ अँग्रेज राज कर रहे हैं, वहाँ हमारे उद्योग धंधे चौपट हो रहे हैं। इससे खेती पर निर्भरता बढ़ेगी। अँग्रेजी राज ने पंचायतों को ख़त्म कर दिया। इससे गाँव गाँव फैली पाठशालाएँ और मक़्तब ख़त्म हो गए। थोड़ी बहुत अँग्रेजी पढ़े लोगों में से अधिकांश अँग्रेजों के साथ होंगे।’ नाना साहब गम्भीर स्वर में अपनी बात रखते रहे।
‘अभी हम कोशिश करेंगे। अगर अँग्रेजी शासन को शिकस्त दे सके तो बड़ी बात होगी। अब भी साठ हजार लोग शिवालिक में इकट्ठा हैं। पूरे देश में अँग्रेजों के खि़लाफ़ एक माहौल बना है। बादशाह बहादुर शाह ‘ज़फ़र’ तक ने आज़ादी का परचम लहराने की बात की। आज़ादी की यह लौ बुझाई नहीं जा सकेगी। रैयत भी खड़ी होने लगी है। हमारे साथ अवाम की भागीदारी एक बड़ी बात है। इस लड़ाई में जगह जगह अवाम ने कमान सँभाली। कानपुर की सेना को लखनऊ पहुँचने से आमजन ने ही रोका। उन्हें बेबस कर दिया। हमारे बैसवाड़े में ही नहीं, अन्य जगहों पर भी अवाम ने कड़ी टक्कर दी। हम लड़े पर जीत नहीं सके, यह सच है। जो लड़े पर जीत नहीं सके दुनिया उन्हें भी अपना मार्ग दर्शक मानती है। कर्बला का इतिहास यही बताता है। हम आज़ादी के लिए लड़े। आज़ादी सबसे बड़ी नेमत है। हमारी लड़ाई ख़त्म नहीं हुई है। यदि हम काम पूरा नहीं कर सके तो अगली पीढ़ियाँ पूरा करेंगी। वे और ताकत से लड़ेंगी। गुलाम रहना कौन चाहता है? अँग्रेजी राज का अन्त होगा ही। अलग अलग राज होते हुए भी इस देश की एक समावेशी संस्कृति है। वह सभी को समेट कर चलेगी। आज़ादी की यह लौ बुझेगी नहीं। देर सबेर अँग्रेजों को हिन्दोस्तान से बाहर करके ही छोड़ेगी। हमें आखि़री सांस तक इस लौ को जलाए रखना चाहिए। रैयत का हमारे साथ मिलकर संघर्ष करना एक नई समाज व्यवस्था का संकेत है। जब रैयत और हम एक मक़्सद के लिए साथ साथ लडेंगे तो राजा-प्रजा का भेद भी कम होगा। आपसी सौहार्द से कोई ढाँचा खड़ा करना होगा। वह ढाँचा आज के ढाँचे से अलग होगा। रैयत को साथ लेकर चलने वाला होगा।’ राणा वेणीमाधव अपनी बात रखते हुए तेज से प्रदीप्त हो उठे, आँखें लाल हो गईं।
‘आज़ादी की लौ जलेगी....और जलती रहेगी। यही नहीं, इसकी आँच अँग्रेजी राज को त्रस्त भी करती रहेगी।’ बालाराव ने भी आश्वस्त किया। ‘चुनौती बड़ी है पर हम पीछे नहीं हटेंगे।’ बालाराव बोलते रहे।
‘राणाजंग बहादुर से भी हम बात करेंगे। वे भी इंसान हैं।’ बेगम ने कहा। वेणीमाधव कुछ कहना चाहते थे कि चोबदार ने आकर आदाब किया।
‘क्या है?’ बालारावने पूछा।
‘हुजूर, एक फ़ौजी अलवर से और एक अयोध्या से आया है। दोनां कहते हैं कि उनके पास ज़रूरी ख़बरें हैं जिन्हें मालिक तक पहुँचाना है।’ ‘दोनों को हाज़िर करो।’ मम्मूँ खाँ ने आदेश दिया। चोबदार के साथ दोनों उपस्थित हुए।
‘इसमें अयोध्या से कौन आया है?’ देवीबख़्श ने पूछा।
‘मैं आया हूँ सरकार।’ एक ने कहा।
‘क्या ख़बर लाए हो?’ देवीबख़्श कुछ अधिक उत्सुक थे।
‘हुजूर, पुजारी रामचरण दास और हसन कटरा वाले अमीर अली साहब को कम्पनी सरकार ने रामजन्म भूमि के पास कुबेर टीले पर एक इमली के पेड़ पर लटकाकर फाँसी दे दी।’
‘ओह ! हिन्दु-मुस्लिम सद्भाव के दो प्रतीकों को..।’ देवीबख़्श के मुख से निकला। सभी दुखी थे। ‘और कोई ख़बर?’
‘महाराज, अशरफ बख़्श साहब होला तालिब में एक मकान में थे। किसी ने अँग्रेजों को सूचित कर दिया। सेना ने मकान घेर कर आग लगा दी।’ सुनकर सभी आह कर उठे। देवीबख़्श की आँखों में आँसू आ गए। ‘और कुछ?’
‘हाँ सरकार, शम्भू प्रसाद शुक्ल और अच्छन खाँ पर आरा चलवाया गया। अँग्रेजों ने बग़ावती लोगों तथा ख़ज़ाने के बारे में बहुत पूछा पर दोनों बहादुरों ने जब़ान नहीं खोली। उन्हें रेत रेत कर मार दिया गया। इतना ही नहीं सरकार, अयोध्या से बस्ती वाले रास्ते पर छावनी के पास एक ही पेड़ पर डेढ़ सौ लोगों को फाँसी पर लटका दिया गया। दिन में आदमीजन टिकरी जंगल में भागे रहते हैं। रात में छिप करके घर आते हैं। बहुत मुश्किल समय है। कैसे दिन कटी?’ कहते हुए सैनिक की आँखें बरसने लगीं। राणा वेणीमाधव, देवीबख़्श, बालाराव सभी की आँखें लाल हो गईं। नाना साहब ने सभी को शान्त करते हुए कहा, ‘यहाँ से जनता के बारे में कुछ कर पाना मुश्किल है। हम लोग देखेंगे कि क्या कर सकते हैं?’
‘तुम कौन सी ख़बर लाए हो?’ नाना ने दूसरे सैनिक से पूछा।
‘महाराज, कहते हुए ज़बान लड़खड़ा जाती है। तात्या साहब नहीं रहे।’
‘कैसे? क्या हुआ?’ नाना साहब ने पूछा। सभी उत्सुक थे तात्या टोपे के बारे में जानने के लिए। ‘महाराज, तात्या साहब ग्वालियर से दक्षिण की ओर निकल गए थे। कम्पनी सेना उनके पीछे परेशान थी। पच्चीस दिसम्बर को तात्या साहब बांसवाड़ा के जंगल से निकले। उनकी मदद के लिए दिल्ली के शहज़ादा फीरोज़ शाह भी आ गए। तेरह जनवरी (1859) को तात्या साहब, राव साहब और मिर्ज़ा फीरोज़शाह के बीच बैठक हुई। इन्हीं के साथ सिन्धिया के एक सरदार मान सिंह भी आ गए। उन्होंने आश्वस्त किया कि वे अँग्रेजों के खि़लाफ़ रहेंगे और तात्या साहब की मदद करेंगे। तात्या साहब ने विश्वास कर लिया। अँग्रेज तात्या साहब को घेरते आ रहे थे। सात पलटनें अलग अलग कमान्डरों के साथ उन्हें घेरने के लिए चारो दिशाओं से आगे बढ़ीं। पर उन्हें चकमा देकर तात्या साहब देवास (म.प्र.) पहुँच गए। तेरह जनवरी को तात्या साहब, राव साहब और मिर्ज़ा फीरोज़शाह अपने खे़में में बैठे बातचीत कर रहे थे। अँग्रेजी सेना को पता लग गया, वे खे़मे पर टूट पडे़। मानसिंह अँग्रेजों की तरफ से मुख़बिरी कर रहे थे। उन्हें जाग़ीर की लालच दी गई थी। पर तात्या साहब फिर निकल गए। अँग्रेजी सेनाएँ उन्हें खोजती रह गईं।
पाँच दिन बाद तात्या साहब, रावसाहब और मिर्ज़ा फ़ीरोज़शाह अलवर में मिले। अँग्रेजी सेना के साथ मानसिंह भी उनके पीछे महीनों लगे रहे। अँग्रेजी सेना को सूचना देते। तात्या साहब स्थान बदल देते। कुछ दिनों के बाद एक योजना के तहत मानसिंह ने तात्या साहब को जंगल में बुलाया। मिर्ज़ा साहब ने मना किया पर उन्होंने मानसिंह पर विश्वास कर लिया। यहीं धोखा हो गया मालिक।’ सैनिक की आँखों से आँसू झरने लगे। सभी दुखी थे। नाना साहब ने एक बार आकाश की ओर देखा। सैनिक ने फिर कहना शुरू किया। ‘तात्या साहब मानसिंह के पास गए। वे लौटना चाहते थे पर मानसिंह ने अनुनय करके उन्हें रोक लिया। सात अप्रैल को आधी रात सोते समय मानसिंह ने तात्या साहब को पकड़वा दिया। वे पकड़ लिए गए पर जो भी सुनता, उसे विश्वास नहीं होता। हम लोगों को भी विश्वास नहीं हुआ। जब अठारह अप्रैल को फाँसी देने का ऐलान हुआ तब सभी सोचने लगे कि तात्या साहब पकड़ लिए गए हैं। सेना के घेरे में खुले में फाँसी का फन्दा बनाया गया। बेड़ियाँ पहने वे फाँसी के तख़्ते तक आए। बेड़ियाँ काटी गईं। तात्या साहब ने एक नज़र चारों ओर देखा। हम लोगों ने हाथ उठाया। टीले पर आमजन भी इकट्ठा थे। सभी की आँखों में आँसू। वे सभी को एक बार देखकर हँसे और फन्दे को गले में डाल लिया।’ सैनिक की आवाज़ भर्रा गई। सभी मौन, दुखी।
कुछ क्षण बाद सैनिक ने फिर कहा, ‘महाराज जाने क्या था तात्या साहब में? शाम को अँग्रेज अधिकारी और उनकी मेमें तात्या साहब के बालों को उखाड़ कर अपने पर्स में रखती देखी गईं। उनके बालों का क्या करेंगे वे? इसका पता नहीं चल सका।’ कह कर सैनिक चुप हो गया। एक गहरी टीस सभी के मन में उठी। ‘मुख़बिरों से निज़ात कब मिलेगी?’ राजा देवी बख़्श सिंह के मुख से निकला।
‘मुख़बिरों को तैयार करना लड़ाई का एक हिस्सा है। हमारे लोग उनके जाल में फँसते गए।’ नाना साहब का दुखी स्वर। इसी बीच नरपत सिंह ने आकर बताया,‘ख़बर मिली है कि डौडिया खेड़ा के राजा साहब भी गिरफ़्तार हो गए।’
‘अरे!’ वेणीमाधव जी चौंक पड़े।
‘राजा राव राम चन्द्र बख़्श के नौकर चंदी ने ही कुछ रुपयों के लालच में उनका पता दे दिया। वे बनारस में पकड़े गए।’ नरपतिसिंह ने बात पूरी की।
‘हम सभी दुखी हैं। दुःखभरी ख़बरें ही रोज मिल रहीं हैं। पर ज़िन्दगी सिर्फ़ दुःख से नहीं कटती। हमें सुख के क्षण तलाशने होंगे, चाहे वे कितने ही अल्प हों। हमें पता चला है कि बेगम साहिबा ने इधर कुछ लिखा है। हम उनके लफ़्ज़ों को सुनकर शायद कुछ संतोष प्राप्त कर सकें।’ नाना साहब ने बेगम की ओर देखते हुए कहा।
‘हाँ। बेगम साहिबा ने इस बीच लिखा है। हम लोग उनसे कुछ सुनकर राहत महसूस करेंगे।’ मम्मू खाँ ने भी इसरार किया।
बेगम भी दुःख से भरी थीं पर नाना साहब के आग्रह को टालना भी नहीं चाहती थीं। उन्होंने स्वयं तो लिखा ही है पर नज़ीर अकबराबादी की ग़ज़ल भी उन्हें इस समय अधिक याद आ रही थी। इसी ग़ज़ल से उन्होंने राजमहल में पैर रखा था। उनके सामने वह दृश्य कौंध गया। उन्होंने धीमी आवाज़ में कहा, ‘सभी की इच्छा है तो पढूँगी। पर पहले मैं नज़ीर अकबराबादी की एक ग़ज़ल पढ़ना चाहती हूँ।’ सभी ने इर्शाद किया।
बेगम ने ग़ज़ल पढ़ना शुरू किया-
दूर से आए थे साक़ी सुनके मैख़ाने को हम।
बस तरसते ही चले अफ़सोस मैख़ाने को हम।
ग़मग़ीन माहौल में भी इर्शाद , इर्शाद , क्या खूब? की झड़ी लग गई। बेगम ने आगे पढ़ा-
मै भी है, मीना भी है, साग़र भी है, साक़ी नहीं।
दिल में आता है लगा दें आग मैख़ाने को हम।
नाना साहब झूम उठे। ‘क्या ग़ज़ल चुनी है आपने?’ उन्होंने कहा। सभी ‘वाह, वाह ’ कर उठे। ‘यही है बाग़ी तेवर।’नरपतसिंह बोल पडे़। बेगम पढ़ती गईं
हमको फँसना था कफ़स में क्या गिला सैयाद का
बस तरसते ही रहे आब और दाने को हम।
शेर के दर्द को सभी समझ रहे थे। सभी की आँखें भर आईं थीं। बेगम ने अगला शेर पढ़ा-
क्या हुई तक़्सीर हमसे तू बता दे ऐ नज़ीर
ताकि शादी मर्ग समझें ऐसे मर जाने को हम।
दर्द के साथ ही, सभी वाह वाह कर उठे। ‘ताकि शादी मर्ग समझें ऐसे मर जाने को हम।’ देर तक सभी दुहराते रहे। बेगम पुरानी स्मृतियों में खो गईं।
यह ग़ज़ल उन्होंने वाजिद अली शाह के सामने पढ़ी थी। इसी से उन्हें महल में प्रवेश का मौक़ा मिला था। आज महल से दूर, बहुत दूर जंगल में वही ग़ज़ल फिर उन्हें राहत दे रही है।
‘बेगम साहिबा आप की रची हुई अपनी नज़्म।’ नाना साहब ने संकेत किया। बेगम साहिबा की आँखों में आँसू आ गए थे। उन्होंने अपने को सँभाला। पढ़ना शुरू किया-
साथ दुनिया ने दिया और न मुक़द्दर ने दिया।
क्या खूब? क्या खूब ? नाना साहब के साथ और लोग भी बोल पड़े। बेगम ने शेर पूरा किया-
रहने जंगल ने कब दिया जो शहर ने न दिया।
एक तमन्ना थी कि आज़ाद वतन हो जाए।
इर्शाद , इर्शाद कहते हुए सभी दुहराने लगे- एक तमन्ना थी कि आज़ाद वतन हो जाए। बेगम ने पूरा किया-
जिसने जीने न दिया चैन से मरने न दिया।
‘वाह , वाह क्या सोच है?’ नाना बोल पड़े। ‘हम लोगों की ज़िन्दगी पर ही यह नज़्म है’, राणा ने टिप्पणी की।
ज़मीं की आग बुझाने ये घटा उमड़ी थी –
हाँ मगर, उलटी हवाओं ने ठहरने न दिया।
सभी फिर दुहरा उठे - हाँ मगर, उलटी हवाओं ने ठहरने न दिया।
बेगम पढ़ती गईं-
बिखर चला वो काफ़िला मकामे बौंड़ी से,
चाल दुश्मन की कुछ ऐसी कि उभरने न दिया।
सभी एक क्षण के लिए ग़म में डूब गए। ‘चाल दुश्मन की कुछ ऐसी कि उभरने न दिया।’ सभी दुहराने लगे।
ज़ुल्म की आँधियाँ बढ़ती रहीं लम्हा लम्हा,
फिर भी परचम को आसमाँ से उतरने न दिया।
आँखों में आँसू भरे सभी स्मृतियों में डूबते-उतराते रहे। ‘फिर भी परचम को आसमाँ से उतरने न दिया’, सभी देर तक दुहराते रहे।
‘बहुत लम्बा रास्ता तय करना है। आज की बैठक बरख़ास्त की जाय।’ बेगम के कहते ही नाना साहब ने ‘हाँ’ कहा। सभी उठे। अपनी अपनी टेकरी की ओर चल पडे़।
एक दिन देवीबख़्श अपनी टेकरी पर धीरे धीरे टहल रहे थे। सुबह की सुनहरी किरणें पर्वत की चोटियों पर पल पल रंग बदल रही थीं। साठ हजार लोगों का विस्थापन उन्हें कष्ट दे रहा था। उनके सामने ही चील के झपट्टे से आहत एक कबूतर फड़फड़ाकर गिरा। उसके प्राण पखेरू उड़ गए। कबूतरी उसी के पास आकर बैठ गई। चुप, ग़मग़ीन। कबूतर भी आते रहे। पर तभी चील ने फिर झपट्टा मारा। कबूतर फड़फड़ाए पर चील कबूतर को उठाकर ले गई। कबूतरी दुःखी थी ही, कबूतर भी दुःखी हुए। पर क्या करते? धीरे धीरे उड़ गए। देवीबख़्श सिंह देखते रहे। अवध के डेढ़ लाख लोग शहीद हो गए। उन्होंने सोचा। बचे हुए हम लोग यहाँ हिमालय की शरण में हैं। क्या कुछ हो सकेगा ?.........अपनों ने ही धोखा दिया।....अपनों ने ही हर जगह....। तभी तो आदमी अपनों से दूर राहत पाता है।
उनके मुख से निकल पड़ा-
मरनो भलो विदेश, जहाँ न अपनो कोय।
माटी खाय जनावरा, महा महोच्छव होय।
तुरन्त ही उनके मन में अपनी माटी का दर्द भी उभर आया। वे जोर से बोल पड़े ‘भारत की माटी।’ पहाड़ी ने दुहरा दिया- ‘भारत की माटी।’ वे चौंके ज़रूर पर खुशी भी हुई। उन्होंने वाक्य पूरा किया -‘भारत की माटी आज़ादी की लौ को जलाए रखेगी।’ पहाड़ी ने फिर पूरा वाक्य दुहरा दिया। देवी बख़्श का चेहरा प्रकाश से दीप्त हो उठा। उन्होंने कहा, ‘लोगों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा।’ पहाड़ी ने भी दुहराया- ‘लोगों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा।’ देवी बख़्श ने फिर तीन बार कहा, ‘व्यर्थ नहीं जाएगा..व्यर्थ नहीं जाएगा...व्यर्थ नहीं जाएगा।’ पहाड़ी ने भी पूरी ताकत से दुहराया। अपनी आवाज़ को प्रतिध्वनित होते देखकर उनका अन्तर्मन आश्वस्त हुआ... व्यर्थ नहीं जाएगा लोगों का बलिदान। वे सोचते-विचारते प्रसन्न मुद्रा में अपनी कुटिया की ओर बढ़ गए।
ठीक इसी समय हिन्दोस्तान से निष्कासित रंगून (म्यांमार) में कै़द बहादुर शाह ‘ज़फ़र’ दुखी मन से अपना भविष्य देख रहे थे। अँग्रेज बात बात में उनकी तौहीन करते। उनकी हसरत थी कि अपनों के बीच उन्हे दफ़्नाया जाए पर अब यह संभव न था। उनका दर्द आखिर फूट ही पड़ा। वे गुनगुनाने लगे-
लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में।
किसकी बनी है आलम-ए-नापाएदार में।
कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें,
इतनी जगह कहाँ है दिले दाग़दार में?
उम्र-ए-दराज़ मांग के लाए थे चार दिन,
दो आरज़़ू़ में कट गए, दो इन्तज़ार में।
कितना है बदनसीब ‘ज़फ़र’ दफ़्न के लिए,
दो गज़ ज़मींन भी न मिली कू-ए-यार में।