Par-Kati Paakhi - 3 in Hindi Children Stories by Anand Vishvas books and stories PDF | पर-कटी पाखी - 3 - सुरक्षा-कवच.

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पर-कटी पाखी - 3 - सुरक्षा-कवच.

3. सुरक्षा-कवच.

अपनी *पर-कटी चिड़िया* की सुरक्षा और सुरक्षित स्थान को लेकर पाखी बहुतचिन्तित थी। वह एक ऐसे स्थान की तलाश में थी जहाँ उसकी *पर-कटी* को सम्पूर्ण-सुरक्षा मिल सके और उसकी उचित देखभाल भी हो सके।

और जब उसके मन में सम्पूर्ण-सुरक्षा और सुरक्षा-कवच का ख्याल आया तो उसे पक्षियों के पिंजरे से अधिक सुरक्षित और दूसरा कोई भी स्थान नज़र नहीं आया। जिसमें बन्द होने के बाद, पक्षीस्वयं में पूर्ण रूप से सुरक्षित हो जाता है और फिर उसे किसी भी सुरक्षित स्थान पर रखा जा सकता है। वहाँ पर उसके लिये दाना-पानी आदि की व्यवस्था भी की जा सकती है। बड़ा ही उत्तम विचार आया था उसके मन में।

पर दूसरे ही क्षण, पक्षियों के पिंजरे का ख्याल आते ही उसके मन-मस्तिष्क में एक विजली-सी कौंध गई। उसकी आँखें डबडबा गईं, आँसू छलक पड़े औरमन भारी हो गया।

उसकी स्मृति-पटल पर वे सभी दृश्य एक-एक करके उभरने लगे,जब उसने पलक के पापा, डॉक्टर गौरांग पटेल के दवाखाने में टँगे हुये तोते के पिंजरों के दरवाजे खोलकर,उसमें बन्द सभी तोतों को उड़ा कर आज़ाद कर दिया था।

डॉक्टर अंकल क्या कहेंगे उससे, शीतल आन्टी क्या कहेंगी उससे, उसके मम्मी-पापा क्या कहेंगे और क्या कहेगी उसकी सबसे प्यारी सहेली पलक। किसी की भी परवाह किये बिना ही उसने पिंजरे के दरवाजे खोलकर, बन्द तोतों को आकाश में उड़ाकर आजाद कर दिया था।

पिंजरे से निकल कर उड़ते हुये तोते खुश हुये थे या नहीं इसका तो पता नहीं, पर हाँ, पाखी तो बेहद खुश थी। इतनी खुशी को तो शायद उसने अपने जीवन में पहली बार अनुभव किया हो। शायद किसी जीव को आजाद करने की खुशी जो थी उसके पास।

तोते फुर्र.. तोते फुर्र.. तोते फुर्र.. और तोते फुर्र.., ऐसा कहकरउछल-उछल कर,दोनों हाथों से ताली बजाती हुई और खिलखिला कर हँसती हुई पाखी,कितनी खुश हुई थी उस दिन। और तोतों को पंख फड़फड़ा कर उड़कर उन्मुक्त गगन में ऊँची-ऊँची ऊँचाइयों को छूते हुये देखकर उसका मन-मयूर नाँचने लगा था तब।

और वह तो उन सभी पिंजरों को भी तोड़ कर फैंक देना चाहती थी जिन पिंजरों में वे तोते बन्द थे। वह नहीं चाहती थी कि इन पिंजरों का उपयोग कभी दूसरे तोते या किन्ही अन्य पक्षियों को बन्द करने के लिये किया जा सके।

और सच में तो उसने वे पिंजरे तोड़कर फैंक ही दिये होते, अगर पलक ने आकर उसे उन पिंजरों को तोड़ने से रोका न होता और साथ ही सभी पिंजरों का दुरुपयोग न करने का आश्वासन न दिया होता।

और तब उसे उसकी सहेली पलक के कहे हुये वे बचन याद आ गये जब पलक ने पाखी को समझाते हुये कहा था कि देख पाखी,तूने इन पिंजरों के दरवाजे खोलकर तोते तो उड़ा दिये,चल कोई बात नहीं है। तेरी खुशी में ही मेरी खुशी है।

हाँलाकि तेरे इस कृत्य से, तेरी इस बेहूदी हरकत से, मुझे बहुत दुःख हुआ है और मेरे मम्मी-पापा को भी प्रसन्नता तो नहीं ही हो सकेगी। तेरे इस कृत्य से, तेरे इस विचार से मैं सहमत भी नहीं हूँ। पर मैं तेरी भावनाओं का सम्मान करती हूँ। चल कोई बात नहीं है। दोस्ती है, दोस्ती में तो सब कुछ चलता है।

फिर भी *स्वतंत्रता* और *सुरक्षा* के बीच में यदि मुझे चुनाव करना ही पड़ेगा तो मेरा पहला मत *आत्म-सुरक्षा* के पक्ष में ही होगा और फिर बाद में *स्वतंत्रता* के पक्ष में।

मैं तो हमेशा ही *आत्म-सुरक्षा* की पक्ष-धर रही हूँ और सच में तो आत्म-सुरक्षा ही आदमी की प्राथमिक आवश्यकता है। यदि खुद ही सुरक्षित न रहें तो स्वतंत्रता किस काम की और किसके लिये।

हाँलाकि अब, जब पापा-मम्मी को पता चलेगा तो वे बहुत नाराज भी होंगे। पर चल,मैं उन्हें मना भी लूँगी और समझा भी लूँगी और वे मान भी जायेंगे।पर अब तू इन पिंजरों को तोड़कर फेंक देना चाहती है। तो तेरी ये बात ठीक नहीं है। देख पाखी,इन पिंजरों को तोड़कर फेंक देने से कोई फायदा नहीं है।

क्या तू दुनियाँ-भर के सभी पिंजरों को तोड़कर समाप्त करने का सामर्थ्य रखती है, नहीं न। तो फिर इन दो पिंजरों को तोड़कर फेंक देने से तेरा कौन-सा मिशन सफल हो जायेगा। समाज को या फिर दुनियाँ को, कौन-सा सन्देश देना चाहती है तू, इन पिंजरों को तोड़कर, बता तो सही।

देख, मेरी बात मान, तू इन पिंजरों को मेरे पास ही रखा रहने दे। मैं इन्हें सम्हालकर रख देती हूँ। मेरे पास ये पिंजरे सुरक्षित ही रखे रहेंगे। शायद कभी किसी समय, किसी को इन पिंजरों की जरूरत ही पड़ जाये। चल ये पिंजरे तेरे हैं, ये तेरी अमानत है और तेरी ये अमानत मेरे पास सुरक्षित ही रखी रहेगी।

पता नहीं, कब,कहाँ और कैसे, इस संसार के चक्रव्यूह में फँसे हुये किसी अभिमन्यु को, आत्म-रक्षा के लिये,किसी रथ के टूटे हुये पहिये की आवश्यकता पड़ ही जाये।

इस संसार में कोई भी चीज बेकार नहीं होती है। हर चीज की अपनी उपियोगिता होती है और उसका महत्व भी होता है।

ईश्वर की बनाई हुई इस दुनियाँ में बिन-उपयोगी और बेकार का तो कुछ भी नहीं है। यह सब कुछ तो हमारी बुद्धि और विवेक के ऊपर ही निर्भर करता है कि हम उसका उपयोग किस प्रकार करते हैं। अगर हम किसी वस्तु का सही उपयोग न करें तो उसमें उस वस्तु का क्या दोष।

अगर हम चाहें तो इस संसार के हर वेस्ट मेटीरियल को, हर बेकार की चीज को, अपने लिये उपयोगी और सुन्दर बना सकते हैं। खैर, छोड़ न तू, इन सब बातों को। तू नहीं समझेगी और तुझे समझाया भी तो नहीं जा सकता।

फिर भी आज,मैं तुझे वचन देती हूँ कि मैं कभी भी किसी तोते को या किसी पक्षी को इन पिंजरों में बन्द नहीं करूँगी। भविष्य के गर्त में क्या छुपा हुआ है,किसी को कुछ भी तो पता नहीं होता है। और तब पलक के विशेष आग्रह पर पाखी उन पिंजरों को पलक के घर पर ही मालिये (टाँड) पर रखने के लिये तैयार हो गई थी।

और आज वे ही पिंजरें, जिन पिंजरों को कभी वह तोड़ कर फैंक देना चाहती थी, वे ही पिंजरे उसे उसकी *पर-कटी चिड़िया* की सुरक्षा के लिये अनिवार्य आवश्यकता बन गये थे।

और आज,अब उन पिंजरों को मालिये से उतरवाने के लिये,वह पलक से कहने का साहस नहीं जुटा पा रही थी। हाँलाकि पलक उसकी सबसे पक्की और प्यारी सहेली थी और उसकी कोई भी बात उससे छुपी नहीं थी, फिर भी उन पिंजरों के विषय में वह पलक से कहने का साहस नहीं जुटा पा रही थी।

आखिर कहे भी तो कैसे कहे, उन पिंजरों के लिये, जिन्हें  वह कभी तोड़कर फैंक देना चाहती थी। उसकी आँखों के आँसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे।

आज उसे इस बात का एहसास हो रहा था कि पलक उस दिन जो कुछ भी कह रही थी, वही सही था। वह सही थी और मैं गलत थी। उसने कहा ही था कि *स्वतंत्रता* से पहले *सुरक्षा* अधिक महत्वपूर्ण होती है।

और आज उसके सामने उसकी अपनी *पर-कटी चिड़िया* की *सुरक्षा* का और उसके लिये *सुरक्षा-कवच* का एक गम्भीर प्रश्न जो था।

बात असल में ये थी कि...

अभी कुछ दिन पहले ही पलक ने अपने पापा से कहकर दो तोते और एक फ़िश-पोण्ड मँगवाया था। तोतों के पिजरों को तो उसने अपने पापा के दवाखाने के बरामदे में ही टँगवा दिये थे और फ़िश-पोण्ड को दवाखाने के मेन-गेट के ऐन्ट्रेंस् की साइड में ही रखवा दिया था। जो कि वास्तु की दृष्टि से उचित समझा गया था और देखने में भी अच्छा भी लगता था।

बड़े प्यारे लगते थे उसको वे दोनों तोते,जब वे तोते दवाखाने में आते-जाते लोगों को राम-बोलो,राम-बोलो, बोला करते। तोते क्या बोलते थे ये तो तोते ही जानें, उनकी भाषा वे ही जानें। पर अपन ऐसा समझते कि वे राम-बोलो,राम-बोलो,बोल रहे हैं। और उनकाबोलना सभी आते-जाते लोगों को तो अच्छा लगता ही था।

कभी-कभी तो आते-जाते लोग, तोतों को सम्बोधित करके कहते भी थे कि हाँ भई हाँ, बस भी करो अब तो, राम-बोलो,राम-बोलो,बोला तो सही। और कितनी बार बोलना पड़ेगा राम-बोलो,राम-बोलो। और प्रत्युत्तर में वे तोते फिर से राम-बोलो,राम-बोलो,बोल देते।

ऐसा एक बार नहीं, अनेकों बार होता और बार-बार होता। और फिर वे लोग राम-बोलो,राम-बोलो,बोला भी करते। और खुश भी होते।

शायद तोते ये सन्देश देना चाहते थे कि अगर तुम राम-बोलो,राम-बोलो,बोलते रहोगे तो तुम्हें शायद दवाखाने में आने की आवश्यकता ही न पड़े। स्वस्थ्य और तन्दरुस्त रहना है तो राम-बोलो,राम-बोलो,बोलते ही रहो। और वैसे भी, जब कोई विपत्ति या बीमारी आती है तभी तो लोग भगवान को याद आते हैं। सुख में तो भगवान को बिड़ले ही याद करते हैं और जो सुख में भगवान को याद करते हैं उनके पास दुःख फटकने की हिम्मत ही कहाँ कर पाता है। 

और पास में ही रखे फ़िश-पोण्ड में,गोल्डन,सिल्वर,सिल्कन, ब्लैक और तरह-तरह की रंग-बिरंगी, मन-भावन प्यारी-प्यारी मछलियों की सुन्दरता तो देखते ही बनती थी।रंग-बिरंगी, विभिन्न प्रकार की मछलियाँ अपने अजब-गजब के करतब दिखा-दिखा कर सबके मन को अनायास ही मोह लेने की क्षमता रखतीं थीं और अपनी ओर आकर्षित कर ही लेतीं थीं।

दिन-रात इधर से उधर घूमते रहना। कभी एक लाइन बनाकर स्थिर हो जाना,तो कभी ऊपर नीचे गति करना,तो कभी हवा के उठते हुये बुलबुलों के साथ अठखेलियाँ करना,मानव-मन को बहलाने और भरमाने के लिये पर्याप्त होता।

और वह दृश्य तो कितना लुभावना और मन-भावन होता, जब मछलियों के लिये फ़िश-पोंड में फ़िश-फूड डाला जाता। वह दृश्य देखते ही बनता। किस प्रकार से उछल-उछल कर, मुँह फाड़-फाड़ कर सभी मछलियों में होड़ सी लग जाती, अपने भोजन को ग्रहण करने के लिये।

भोजन, शब्द ही कुछ ऐसा होता है जिसको पाने के लिये आदमी दिन-रात चौबीसों घण्टे पागल-सा भटकता रहता है। अनमोल जीवन रोटी के चन्द टुकड़ों तक ही सिमट कर रह गया हो। शायद अमूल्य जीवन का उद्देश्य मात्र रोटी ही हो गया हो।

मात्र दो रोटी पाने के लिये ही, जब ज्ञानी, ध्यानी और बुद्धिमान आदमी की ये हालत होती है तो फिर उसे पाने के लिये मछलियों में होड़ न हो, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। काश, ये पेट ही न होता। तो कौन क्या करता, क्या न करता, सब कुछ कल्पना से परे है। शायद कोई कुछ भी नहीं करता।

फ़िश-पोंड की मछलियों को देखकर तो सबका ही ऐसा मन करता कि बस,देखते ही रहो,देखते ही रहो और बस,देखते ही रहो। वहाँ से हटने का मन ही न करता था। बच्चे तो वहाँ से हटने का नाम ही न लेते। और बच्चे तो कभी-कभी अपने मम्मी-पापा से जिद्ध ही कर बैठते, गोल्डन फ़िश पाने के लिये या फिर रंग-बिरंगी मछली पाने के लिये।

असल में पलक के घर के नीचे के भाग में दवाखाना चलता था और ऊपर की मंज़िल पर पलक-परिवार स्वयं ही रहता था। बरामदे के आगे आगन्तुक मरीज़ों के बैठने की व्यवस्था थी। मरीज़ों के मन बहलाव और वास्तु को ध्यान में रखते हुये पलक ने तोते और फ़िश-पोण्ड रखने का निर्णय लिया था। जिसमें उसके पापा और मम्मी की अनुमति भी थी। दवाखाने को स्वच्छ और सुन्दर बनाने में पलक का सदैव ही योगदान रहता।

पक्षियों का कलरव वातावरण को हल्का और मन-भावन बनाता। इससे मरीजों का मन बहलाव भी होता रहता और सभी को वह अच्छा भी लगता था।

सच तो यह है कि मरीजों को तो एक-एक पल पहाड़-सा लगता है, ऐसे में जितने पल भी आसानी से गुजर जाऐं और कष्ट-दायक पीड़ा की अनुभूति कम से कम हो उतना ही अच्छा।

कुछ लोग तो फिश-पोण्ड की मछलियों की गति-विधियों को देखकर ही अपना मन बहला लेते। तो कुछ लोग भिन्न-भिन्न प्रकार की प्यारी-प्यारी मछलियों के तरह-तरह के अजब-गजब करतब निहारते-निहारते ही अपना समय बिता लेते और कब समय निकल जाता,कुछ पता ही नहीं चल पाता।

तो कुछ लोग तोतों के साथ भगवान का भजन करके अपना समय पसार कर लेते। तो कुछ लोग कोनें में रखे टेलीविजन के माध्यम से अपना मनोरंजन करते हुये या फिर देश-विदेश के समाचारों को सुनते हुये अपने नम्बर के आने की प्रतीक्षा करते।

 इतना ही नहीं दैनिक समाचार-पत्र और पत्रिकाऐं भी टेबल पर रखे ही रहते थे। बाल-पत्रिकाऐं, कार्टून-बुक और ढ़ेर सारे अच्छे-अच्छे लेखकों और कवियों की कविता, कहानी आदि के संग्रह भी ओपन-रैक में रखवा दिये थे पलक ने।

इसे भले ही व्यवसायिक उद्देश्य से किया गया एक प्रयास ही माना जाय, फिर भी मन वहलाव और मनोरंजन के उद्देश्य को तो पूरा करता ही था। साथ ही आगन्तुकों के समय का सदुपयोग भी होता ही था, पलक के इस प्रयास से।

 स्कूल की पढ़ाई और होम-वर्क के बाद पलक अक्सर अपना समय दवाखाने में ही गुजारती थी। मरीज़ों की सेवा करने और उनके दुःख-दर्द में सहभागी बनने में उसे विशेष आनन्द की अनुभूति होती थी और उसे अच्छा भी लगता।

मरीज़ों से बात-चीत करना, उनके दुःख-दर्द को सुनना, समझना और उनकी आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रयास करना, उसे बहुत अच्छा लगता था। मरीज़ों की सेवा करने से उसे आत्म-सन्तोष मिलता था। इतना ही नहीं दवाखाने को अधिक से अधिक सुन्दर, स्वच्छ और सुविधा-जनक बनाया जा सके, इसके लिये वह सदैव ही प्रयत्नशील रहती थी।

पाखी और पलक की दोस्ती,केवल पाखी और पलक तक ही सीमित नहीं थी बल्कि पाखी और पलक दोनों के पापा बचपन के पक्के दोस्त भी थे। दोनों एक साथ ही पढ़े-लिखे थे। पाखी के पापा ने प्रशासनिक सेवा को उचित समझा और पलक के पापा ने डॉक्टर बनकर मानवता की सेवा करना।

इतना ही नहीं, पाखी और पलक की मम्मी, साक्षी और शीतल भी एक ही कॉलेज में प्रोफेसर थीं। दोनों परिवारों के बीच में सगे सम्बन्धियों से भी अधिक आत्मीयता और स्नेह था।

पाखी का पलक के घर पर अक्सर आना-जाना होता ही  रहता था और कभी पलक का पाखी के घर पर। कभी खेलने के लिये तो कभी साथ-साथ पढ़ने के लिये और कभी साथ-साथ अस्पताल में मरीज़ों की सेवा करने के लिये।

सोसायटी के मेन गेट से प्रवेश करते ही पहला घर था पलक का। जहाँ नीचे ग्राउड फ्लोर पर दवाखाना था। फर्ट फ्लोर, और सैकिण्ड फ्लोर पर पलक का परिवार रहता था और पाखी का घर था सोसायटी के अन्दर गार्डन फेसिंग।

तोतों को पिंजरे में बन्द करके रखने के विषय में पाखी और पलक, दोनों के बीच में मत-मतान्तर ही रहता था।

पलक को पशु-पक्षियों से अगाध प्रेम था और इसीलिये उसने भिन्न-भिन्न प्रकार के पशु-पक्षियों को पाल भी रखा था। बुलडॉग और चिहुआहुआ से तो उसे विशेष लगाव था।

पाखी को बन्द पिंजरे में तोते और पशु-पक्षी बिलकुल भी अच्छे नहीं लगते थे। उसे तो तोते, चिड़िया और ढ़ेर सारे पक्षी नीले आकाश में उड़ते हुये ही अच्छे लगते थे। 

वह पलक से कहती भी थी कि पलक छोड़ दे न इन सभी अबोले-भोले तोतों को। क्यों कैद कर रखा है तूने इन्हें। ये तो सृष्टि की अनमोल धरोहर हैं, इन्हें तो सृष्टि में ही विचरण करने दे। क्यों हत्या करती है तू इनके जीवन की, इनके अरमानों की, इनके सपनों की और वह भी मात्र आत्म-सन्तोष के लिये, अपने अहम् के तुष्टी के लिये।

और पलक कहती कि तू नहीं जानती पाखी, मेरे पास में ये पूर्ण रूप से सुरक्षित हैं। इन्हें खाने-पीने की हर सुविधा उपलब्ध है मेरे पास। ये सब मेरे पास बहुत खुश हैं, दिन भर में हजारों बार राम-बोलो,राम-बोलो,बोलते ही रहते हैं ये। हर पल भगवान का भजन करते रहते हैं ये।

और फिर पाखी कहती कि पलक, ये राम-बोलो,राम-बोलो नहीं बोलते रहते हैं और ना ही ये भगवान का भजन करते रहते हैं। ये तो तेरा भ्रम है।

ये तो दिन-रात रोते ही रहते हैं,आजाद होने के लिये। और द्वार-खोलो, द्वार-खोलो, ऐसा बोलते रहते हैं।

शायद कोई दयावान इनकी करुण पुकार को, इनकी भाषा को, इनकी चीत्कार को सुन ले और इन्हें यहाँ से आजाद करा दे या कराने में सहायता करे।

यहाँ पर जो भी कोई आता है उससे ये, यही प्रार्थना करते हैं कि मुझे जल्दी से छुड़वाओ इस कैद-खाने से,मुझे बचाओ इस जेलर से, मुझे बचाओ इस निर्दयी जल्लाद से।

देख पलक, कितना अनुनय-विनय करते हैं ये हर किसी से, हर आने-जाने वाले से। पर तू है कि इन्हें आजाद होने ही नहीं देती। पता नहीं किस मिट्टी की बनी है तू।

कब आयेगा इनका स्वतंत्रता-दिवस, कब उड़ सकेंगे ये अपने पंख फड़फड़ा कर, अपने आकाश में। ये तो बता दे। या फिर इन्हें आजीवन इस काले-पानी की सजा ही भुगतनी पड़ेगी और जीवन पर्यन्त इन्हें इस जेल-खाने में, लोहे की सलाखों के पीछे ही सड़ना पड़ेगा। क्या तुझे इन बे-जुवान भोले परिन्दों पर जरा भी तरस नहीं आता।

देख तो सही, इनके कोमल-कोमल फूल से सुन्दर पंखों में कैसा जंग लग गया है। शायद कुछ समय बाद तो ये उड़ने के काबिल भी नहीं रहेंगे। और ये भी हो सकता है कि निकट भविष्य में ये उड़ना ही भूल जायें और शायद अपने आकाश को भी न पहचान सकें, जिसमें विचरण के लिये इनका जन्म हुआ है।

कैसा पाषाण-हृदय है पलक तेरा, जरा भी नहीं पिघलता। सच में, कितनी बेदर्द और पत्थर-दिल है पलक तू भी।

पाखी के इस प्रकार के सभी तर्कों को, पलक हँसकर ही टाल दिया करती। और कभी-कभी तो हँसते-हँसते ही कह देती कि देख पाखी, तू नहीं जानती है, ये तोते तो मेरे स्पेशल तोते हैं, ये कोई ऐरा-गैरा नथ्थू-खैरा, चलते-फिरते सामान्य तोते नहीं हैं।

इन्हें टाइम पर खाना मिलता है, पानी मिलता है, नाश्ता मिलता है। हर प्रकार की विशेष सुविधा उपलब्ध है इनको यहाँ पर। ये तो मेरे स्पेशल वीवीआईपी तोते हैं और फिर अपना कॉलर ऊँचा करके बड़े गर्व के साथ इतराती हुई कहती,तुझे मालूम नहीं है पाखी, इन तोतों को पलक-सरकार की ओर से जैड-प्लस श्रेणीं की स्पेशल वीवीआईपी सुरक्षा मिली हुई है।

लोहे के सरिये से बने हुये ये मजबूत पिंजरे,इनके स्पेशल अभेद्य किले हैं। जिसमें इनका कोई भी दुश्मन, न तो सैंध ही लगा सकता है और ना ही इसे तोड़ सकता है। इनके अन्दर ये पूर्ण-रूप से सुरक्षित हैं और राजसी थाट-बाट के साथ रहते हैं। राजमहल जैसी राजसी सुविधाऐं उपलब्ध हैं इनको यहाँ पर।

ये सब के सब अस्पताल के ए.सी. रूमस् के अन्दर सभी आरामदायक सुविधाओं के साथ चैन से रहते हैं राजा-महाराजाओं की तरह, बिलकुल बिन्दास।

और पलक द ग्रेट, यानी कि मैं और मेरे जैसे तो हजारों नौकर-चाकर हैं इनके। जो इनके आगे-पीछे इनकी देख-भाल में एक पग खड़े रहते हैं और हर पल जुटे रहते हैं इनकी सेवा में, इनके एक इशारे की प्रतीक्षा में।

चिलचिलाती गर्म लू के थपेड़े, कंपकंपाती कातिल ठन्ड और झमाझम मूसलाधार पानी की बरसात में भीगते हुये, आश्रय की तलाश में दर-दर भटकते हुये फिरते नहीं रहते हैं ये स्ट्रीट-डॉग्स् की तरह।

ये मेरे तोते हैं, मेरे। स्पेशल वीवीआईपी जैड-प्लस श्रेणीं की सुरक्षा वाले स्पेशल वीवीआईपी, मेरे तोते।

पलक जरा सी देर के लिये ही बस, दरवाजे तो खोलकर दिखा तू, अपने इस मजबूत स्पेशल अभेद्य किले के। और फिर तब देखना, अपने इन स्पेशल तोतों को, अपने इन वीवीआईपी स्पेशल तोतों को और इनकी गतिविधियों को।

और तब तू मुझे बताना कि तेरे तोते, स्पेशल ए.सी. रूमस् की वीवीआईपी स्तर की जैड-प्लस श्रेणीं की सुरक्षा में रहना पसन्द करते हैं या फिर नील-गगन के उन्मुक्त स्वछन्द मन-भावन वातावरण में।

जहाँ चिलचिलाती हुई गर्म धूप में लू के गरमागरम असहनीय थपेड़े भी हैं, हाड़ कंपकंपा देने वाली कातिल ठन्ड भी है और झमाझम पानी की अविरल मूसलाधार बरसात भी है। और इतना ही नहीं, मुसीबतों के पहाड़ भी हैं, कष्टों के अम्बार भी हैं और पल-पल सर पर मंड़राती हुई मौत का साया भी।

छोड़ दे न सब कुछ, इन तोतों की बुद्धि और विवेक पर ही। करने दे न इनको ही फैसला, अपने आप का, अपने जीवन का। ये जहाँ रहना चाहें, रहने दे न इनको वहीं पर।

और अगर ये खुशी से तेरे पिंजरे में रहना चाहें तो रहें और अगर अपनी इच्छा से आकाश में उड़ना चाहें तो उड़ने दे न इनकोआकाश में। किसी भी जीव को अपने पिंजरे में बन्द करके रखना कहाँ तक उचित है। यह तो सर्वथा अनुचित ही है, पलक।

हम कौंन होते हैं अपनी इच्छा से इनको इस कैद-खाने में रखने वाले, इनकी देख-भाल करने वाले, इनको सुरक्षा प्रदान करने वाले या फिर अपने तुच्छ अहम् की तुष्टि के लिये अपना बन्धक बनाकर रखने वाले।

हर प्राणी-मात्र की देख-भाल करने वाला, सहस्त्र भुजाओं वाला तो, वह ऊपर बैठा हुआ है और वह ही तो है जो तेरी भी देख-भाल करता है, मेरी भी देख-भाल करता है, हम सब की देख-भाल करता है और समस्त ब्रह्माण्ड की भी देख-भाल करता है। वह ही तो है जो हम सबको बड़े प्यार और दुलार से सहेज कर रखता है और वही तो हमारा पालनहार है।

तो फिर इन तोतों की देख-भाल करने वाली, वीवीआईपी और जैड-प्लस श्रेणीं की स्पेशल सुरक्षा प्रदान करने वाली, लोहे के पिंजरे में बन्द करके रखने वाली, तू किस खेत की मूली है।

पर फिर भी पलक, मैं तुझसे हाथ जोड़कर निवेदन करती हूँ कि तू खोल दे न इनके सारे बन्धनों को और इन्हें भी उड़ने दे न इनके आकाश में। और जीने दे इनको भी अपने जीवन को, अपनी तरह से, जैसा ये चाहें।

और ये था पाखी का ओपन चेलैंज, पलक को। पाखी के इस ओपन चेलैंज के सामने तो पलक की हवा ही निकल गई।

ऐसा तो उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि पाखी के इस प्रकार की तर्क-संगत आग्रह का उसे सामना करना पड़ेगा। पाखी उससे पिंजरों के दरवाजे खोलने के लिये आग्रह करेगी।

पर पिंजरे के दरवाजो को खोल देना तो बिलकुल भी खतरे से खाली नहीं था, पलक के लिये।

*हँस* का निर्णय स्पष्ट दिखाई दे गया होता और गौतम बुद्ध के इतिहास का फिर से पुनरावर्तन हो ही गया होता, अगर पलक ने पाखी के ओपन चेलैंज को स्वीकार कर, अभेद्य किले के दरवाजे खोल दिये होते। और सब कुछ तोतों की बुद्धि और विवेक पर ही छोड़ दिया होता।

पर वह ऐसा न कर सकी। उसने अभेद्य किले के दरवाजे नहीं ही खोले। शायद वह भी जानती थी कि दरवाजे खोलने पर क्या परिस्थिति उत्पन्न होसकती थी।

और जब विवाद अधिक बढ़ जाता तो पाखी और पलक का यह विवाद दोनों की मम्मी साक्षी और शीतल के पास तक पहँच जाता और उन दोनों का एक ही निर्णय होता।

और वह निर्णय यह होता कि हाँ भई हाँ, तुम दोनों ही सही हो। तुम दोनों की ही बातें सही हैं अपनी-अपनी जगह पर। आखिर कैसे और किसी एक के पक्ष में निर्णय दे दे *माँ*।

कॉलेज के दो-दो प्रोफेसर साक्षी और शीतल निर्णय नहीं दे पाते, क्योंकि दोनों के दोनों एक *माँ* ही तो होते हैं।

किसी भी निर्णायक के लिये निर्णय देना बेहद आसान होता है, हो सकता है। पर *माँ* के लिये तो नहीं ही।

*माँ* तो ममता की साक्षात् देवी होती है। वात्सल्य और स्नेह की शीतल छाया होती है, शुभ-चिन्तक होती है, प्रेरणा-स्रोत होती है और होती है सही दिशा दिखाने वाली पथ-प्रदर्शक भी। निर्णायक निर्णय दे पाना उसके वश की बात नहीं होती है। कोमल बाल-मन को आहत करने की क्षमता उसमें होती ही कहाँ है।

अपने बालक के हँसते और खिलखिलाते चेहरे पर जरा सी भी उदासी या शिकन देखकर तिलमिला जाने वाली ममता-मयी माँ, फूल से कोमल बाल-मन को कैसे आहत कर सकती है।

और फिर जब यह विवाद मातृ-अदालत से न सुलझ सका तो यह विवाद जा पहुँचा इससे ऊपर की अदालत, यानि कि स्कूल की अदालत में। अर्थात, स्कूल की मेडम अवन्तिका के पास।

और यह तो होना निश्चित ही था, आखिर गुरू ही तो बालकों के सच्चे-हितैशी, शुभ-चिन्तक, परामर्शक और सच्चे-मित्र होते हैं। अवन्तिका मेडम, सौम्य, मित-भाषी, स्कूल के सभी विद्यार्थियों की शुभ-चिन्तक, हितैशी और सांस्कृतिक-प्रवृतियों की संचालिका के पास। 

बड़ा ही अच्छा लगा उन्हें ये वाद-विवाद का विषय और साथ ही पाखी और पलक के अकाट्य तर्क, सन्तुलित कटाक्ष और हास्य-मिश्रित सटीक दलीलें। ऐसी दलीलें जो दमदार थीं और जो मानव-मन को सोचने के लिये बाध्य करतीं थीं।

उन्होंने विचार किया कि क्यों न इस विषय को ही स्कूल की वाद-विवाद प्रतियोगिता का विषय बना दिया जाय और करने दो न बच्चों को ही, इस विवाद का निर्णय। बच्चों का निर्णय अच्छा ही होगा और स्वागत योग्य भी होगा।

अपने विवाद और अपनी हर समस्या का हल बच्चे खुद ही निकालें और अपने निर्णय अपने आप ही कर सकें। ऐसे वातावरण का निर्माण करना ही तो एक अच्छे, योग्य और कुशल शिक्षक का परिचायक होता है।

और शिक्षा का उद्देश्य भी तो बालकोंमें निहित आन्तरिक शक्तियों का विकास करना ही होता है जिससे कि वे अपनी परिस्थिति के अनुसार अपने निर्णय अपने आप ले सकें।

अवन्तिका मेडम ने अपने इस कर्तव्य का बखूबी निर्वहन किया। कुछ ही समय के अन्तराल में अवन्तिका मेडमने स्कूल की आचार्या डॉ. आरती शर्मा से विचार-विमर्श किया और फिर एक सूचना निकाल दी गई कि इस शनिवार को विद्यालय में होने वाली वाद-विवाद प्रतियोगिता का विषय है-

*स्वतंत्रता से अधिक सुरक्षामहत्व-पूर्ण है।*

विद्यार्थियों को इस विषय के पक्ष में या विपक्ष में अपने विचार प्रस्तुत करने होंगे। जो विद्यार्थी इस विषय पर अपने विचार व्यक्त करना चाहते हों वे विद्यार्थी अपना नाम शुक्रवार तक अपने कक्षा-अध्यापक महोदय को लिखवा दें।

वाद-विवाद प्रतियोगिता और उसके विषय का पता जब  विद्यार्थियों को चला तो वे बहुत खुश हुये। ढ़ेर सारे विद्यार्थियों ने अपना-अपना नाम लिखवाया और वह भी बड़े उत्साह और उमंग के साथ। बच्चों का प्रिय विषय जो था।

लगभग सभी बच्चों को अपने माता-पिता से इन्हीं दो शब्दों पर तो विरोधाभास का सामना हर दिन और हर पल करना ही पड़ता है। बच्चे *स्वतंत्रता* के पक्ष-धर होते हैं और माता-पिता *सुरक्षा* के। क्योंकि बच्चों को *स्वतंत्रता* प्रिय है और माता-पिता को बच्चों की *सुरक्षा*। और यह विरोधाभास अक्सर दोनों के बीच बना ही रहता है। 

पाखी और पलक दोनों को ही अच्छा लगा था उस दिन और आत्म-संतोष भी हुआ था। और सबसे अधिक प्रसन्नता तो इस बात की हुई कि उनके विवाद के विषय को स्कूल में भी महत्व दिया गया।

इतना ही नहीं अवन्तिका मेडम ने पाखी और पलक दोनों की भावनाओं को समझा, सोचा और सम्मान दिया। यह बात पाखी और पलक दोनों के लिये ही विशेष गौरव की बात थी। पर अवन्तिका मेडम के लिये तो मात्र उनका कर्तव्य था जिसे उन्होंने बखूबी निभाया।

स्कूल के दूसरे विद्यार्थी भी इस विषय पर बोलने की तैयारी करने में लग गये। कोई अपने भाषण को स्वयं ही लिख रहा था तो कोई अपने मम्मी-पापा से या फिर अपने बड़े भाई-बहन से लिखवा कर उसे याद करने में जुटा हुआ था।

यूँ तो विषय सामायिक भी था और उनके रोज़-मर्रा के जीवन से ही तो जुड़ा हुआ एक ज्वलन्त प्रश्न भी था। अतः सबको अच्छा लगा, क्योंकि *स्वतंत्रता* और *सुरक्षा* जैसे शब्द उनके अपने ही चिर-परिचित शब्द थे। जिनसे उन्हें हर रोज़ दो-चार होना ही होता था।

सब बच्चों को इस बात की प्रसन्नता थी कि अब वे अपने मन के विचारों को, अपने तर्क और दलीलों को, एक खुले मंच पर सबके सामने प्रस्तुत कर सकेंगे। अपने मन की बात दूसरों के साथ शेयर कर सकेंगे।

भोले बच्चे तो अपने मन की बात को, अपने मन की समस्याओं को, अपने मन के विचारों को दूसरों के साथ शेयर करना चाहते ही हैं, और वे तो आतुर रहते ही हैं अपनी समस्याओं को दूसरों के सामने रखने के लिये और उनका समाधान पाने के लिये। आज के व्यस्त दौड़ती-भागती जिन्दगी में बच्चों की कोमल भावनायें मम्मी-पापा की विवशता के किसी कौने में दबी पड़ी रह जाती हैं।

 और शनिवार का दिन आने में देर ही कितनी लगी। पलक झपकते ही शनिवार का दिन भी आ गया। आज स्कूल के सभाखण्ड में उपस्थित थे वाद-विवाद प्रतियोगिता में भाग लेने वाले सभी वक्ता-गण, श्रोता-गण, मंच-संचालक मेडम अवन्तिका, शिक्षक-गण, अतिथि-विशेष डॉ. कनिका शर्मा, प्रिन्सीपल मेडम डॉ. आरती शर्मा और स्कूल के सभी विद्यार्थी-गण।

वाद-विवाद प्रतियोगिता का श्री गणेश, ईश-वन्दना से किया गया। समारोह के अतिथि-विशेष डॉ कनिका शर्मा का संक्षिप्त परिचय मंच-संचालिका डॉ.वर्तिका वत्स के द्वारा कराया गया और आचार्या मैडम डॉ. आरती शर्मा ने पुष्प-पुंज भेंट कर अतिथि-विशेष डॉ. कनिका शर्मा का स्वागत किया।

इसके बाद विद्यार्थियों को वाद-विवाद प्रतियोगिता के सामान्य नियमों को संक्षेप में बताया और फिर हुआ कार्य-क्रम का आरम्भ।

अनेक वक्ताओं ने अपने-अपने विचार व्यक्त किये। हर वक्ता के अपने मौलिक तर्क और उनका स्पष्टीकरण, हर विचार अपना सन्देश देने में समर्थ। कुछ छात्रों के विचार भाग्य-वादी पाये गये। उनका तो स्पष्ट विचार था कि जो होना है वो तो होकर ही रहेगा, तब सुरक्षा के विषय में चिन्ता करने का प्रश्न ही कहाँ उठता है। बालकों के तर्क-वितर्क अपने आप में अनूँठे, मौलिक और रोमांचक होते ही हैं।

पाखी अपनी कुशाग्र बुद्धि, पढ़ने में नम्बर वन और अपने वाक्-कौशल्य और भाषण के लिये अपने स्कूल में ही नहीं अपितु पूरे शहर के सभी स्कूलों में ख्याति-प्राप्त थी। वह नगर-स्तर, जिला-स्तर और राज्य-स्तर की ढ़ेरों वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में अपने स्कूल के लिये शील्ड और पुरस्कार लाती रही थी। और इसीलिये उसे स्कूल में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था।

उसके लिये तो किसी भी विषय पर कभी भी बोल पाना, जैसे बायें हाथ का खेल ही होता। उसकी भाषण-शैली, विषय-वस्तु, वाक्-चातुर्य, विचारों के प्रिज़ेन्टेशन की कला, अकाट्य तर्क और दलीलों से श्रोता-गण और निर्णायक-गण प्रभावित हुये बगैर न रह सके।

तालियों की गड़गड़ाहट ही तो श्रोताओं की भाषा होती है। हॉल में बजती तालियाँ और श्रोताओं पर प्रभाव ही तो अच्छे वक्ता का थर्मामीटर होते हैं। निर्णायकों का निर्णय आने से पहले ही श्रोताओं ने अपना निर्णय, तालियों की भाषा में बता दिया था। और परिणाम भी पाखी के पक्ष में ही आया। पाखी को प्रथम पुरस्कार मिलाऔर विशाल जन-समर्थन।

समारोह की अतिथि-विशेष डॉ. कनिका शर्मा ने अपने अध्यक्षीय भाषण में *स्वतंत्रता* को उचित ठहराया, पर एक सीमा के अन्दर रहकर ही। साथ हीउन्होंने *आत्म-स्वरक्षा* को भी महत्व-पूर्ण बताया। उनका कहना था कि यदि आप स्वयं ही सुरक्षित नहीं रहे तो कैसी स्वतंत्रता और किसके लिये।

उन्होंने युवा-वर्ग की तुलना सागर से करते हुये कहा कि सागर में उठते ज्वार-भाटे यदि तट के बन्धनों को तोड़ दें तो परिस्थितियाँ विनाशकारी ही हो सकती है। विशाल सागर की महिमा और गरिमा तभी तक है जब तक वह तट के बन्धनों में बँधकर अपनी सीमा में ही रहे।

अतिथि-विशेष डॉ. कनिका शर्मा ने बताया कि हर वाहन में, चाहे वह साइकिल हो, स्कूटर हो, मोटर हो या फिर कार ही क्यों न हो। सभी वाहनों में ब्रेक भी होता है और ऐसीलरेटर भी होता है। बिना ऐसीलरेटर के वाहन, वाहन नही होता है। वह एक कचड़े का डब्बा होता है और बिना ब्रेक के वाहन, मात्र मौत का निमंत्रण-पत्र होता है।

नियंत्रित परमाणु विखण्डन की प्रक्रिया से परमाणु-ऊर्जा प्राप्त कर उसका उपयोग अच्छे और विकाश-शील कार्यों में किया जा सकता है। जब कि अनियंत्रित परमाणु विखण्डन की प्रक्रिया से प्राप्त ऊर्जा केवल और केवल विनाश ही कर सकती है और कुछ भी तो नहीं।

अतिथि-विशेष डॉ. कनिका शर्मा ने बताया कि परमाणु-बम्ब केवल विनाश-कारी ही हो सकता है। वह समाज के लिये या मानवता के लिये कभी भी हितकारी और उपयोगी नहीं हो सकता है।

  आज की युवा-शक्ति को *स्वतंत्रता* का पक्ष-धर पाया गया। स्वतंत्र विचार, स्वतंत्र चिन्तन, स्वतंत्र रहन-सहन, और स्वतंत्र कार्य-शैली की पक्ष-धर है, आज की युवा-शक्ति।

आज की युवा-शक्ति नहीं चाहती है किसी भी बन्धन में रहना। वह चाहती है, स्वतंत्रता और पूर्ण-स्वतंत्रता। रहन-सहन की स्वतंत्रता, कार्य करने की शैली की स्वतंत्रता और विचारों की स्वतंत्रता।

और एक प्रबुद्ध-वर्ग और अपने अनेक साथियों को अपने पक्ष में पाकर पाखी आज बहुत खुश थी। उसने अपने मन में यह निर्णय कर लिया कि वह इन तोतों को आजाद करा कर ही रहेगी। उन्हें स्वतंत्रता दिला कर ही रहेगी। उनका स्वतंत्रता-दिवस मना कर ही रहेगी।

आखिर उन्हें भी तो ऊँचे से ऊँची उड़ान भरने का अधिकार है। पक्षी हैं तो क्या हुआ। सपने तो उनके भी होते ही होंगे। मन तो उनका भी करता होगा ऊँची उड़ान भरने का, पंखों को फड़फड़ा कर आकाश की ऊँचाइयों को नापने का।

और एक दिन मौका मिलते ही पाखी ने सभी तोतों का स्वतंत्रता-दिवस मना दिया। उसने सभी पिंजरों के गेट को खोल दिये। गेट के खुलते ही सभी तोते अपने-अपने पंख फड़-फड़ाते हुये एक-एक करके, तीव्र गति से आकाश की ओर हो लिये अपने आकाश की ओर, अनन्त आकाश की ओर।

 उन्मुक्त गगन में, नील गगन की सीमाओं को तलाशने के लिये, अपने जंग लगे पंखों में पुनः ऊर्जा और शक्ति का संचार करने के लिये।

और पाखी ने तोते फुर्र.. तोते फुर्र.. तोते फुर्र.. और तोते फुर्र.., कर ही दिया।

 पलक ने भी तोतों को आकाश में उड़ते हुये देखा था। उसे आश्चर्य तो हुआ था। पर वह खुश थी, क्योंकि उसकी अपनी प्यारी सहेली पाखी की खुशी में ही उसकी खुशी थी।

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