Prem Gali ati Sankari - 125 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 125

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प्रेम गली अति साँकरी - 125

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मुझे कम से कम उस दिन या उसके कुछ दिनों बाद तक तो प्रतीक्षा करनी ही पड़ती जब तक अम्मा-पापा भाई के साथ जाने वाले थे | वैसे, प्रमेश के घर में रहने का कोई न तो औचित्य समझ में आ रहा था और मन तो था ही नहीं | कुछ बातों को दिल को मसोसकर करना ही पड़ता है जीवन में जैसे मैं कर ही रही थी, करती आई थी | कुछ दिन और सही---मन का भटकाव चरम सीमा पर और थोड़ा सा कर्तव्य-बोध दिल के किसी कोने में हुंकार मारता सा---न, न, प्रमेश या उसकी दीदी या फिर तथाकथित उस पिजरे के लिए नहीं, बिलकुल भी नहीं –फिर भी न जाने क्यों एक छोटे से बंधन का टुकड़ा जैसे किसी ने रस्सी से गले में अटका दिया हो और चुभन गले में उतरती जा रही हो | मैं उसे खोल सकने में सक्षम हूँ लेकिन न जाने अभी मेरे हाथ उसको खोलने के लिए बढ़ ही नहीं रहे हैं | 

अम्मा-पापा के जाने की तैयारियों के विषय में, बात संस्थान की भी होती रही और प्रमेश को भी उसमें शामिल किया ही गया | आखिर वह परिवार का सदस्य तो बन ही चुका था | उससे कुछ बातें करनी तो लाज़िमी थीं हीं | उससे कुछ पूछा जाता वह गर्दन हिला देता या फिर “जैसा आप लोग कहें या फिर अमी जी ठीक समझें | ”अपने ऊपर कोई भी बात मत लो, यही सबसे अच्छी व समझदारी की बात है | मुझे तो उसका वह सब दिखावा भी दीदी के रटे-रटाए तोते सा महसूस हो रहा था | खैर, मेरे लिए उसके कुछ दिनों के व्यवहार का एक कठोर सत्य था जिसे समझने की कोशिश तो मुझे करनी ही पड़ती | 

“हम लोग कुछ दिनों में चले जाएंगे, अमी के साथ मिलकर आप दोनों को ही संस्थान संभालना है, क्यों न दो/चार दिनों के लिए अमी यहीं संस्थान में आ जाए | अभी मैं अम्मा-पापा को लंबे समय तक भेजने वाला नहीं  हूँ | अभी वहीं रहेंगे, वहीं से हम सब कोओर्डिनेशन करते रहेंगे | कोई दिक्कत नहीं है, जैसे पहले वहाँ का हो ही रहा था | ”पता नहीं अमोल एक साँस में कैसे इतना कुछ बोल गया | मुझे लगा, अब उसे वास्तविकता का अहसास होने लगा था लेकिन क्या?

“जैसा आप लोग ठीक समझें---”मैं तो जानती ही थी कि तोते का उत्तर कुछ ऐसा ही होने वाला था | पता नहीं क्यों महसूस हुआ कि क्या वह मेरा भी तोता बन सकता था?फिर पल भर में खुद पर ही हँस पड़ी मैं! क्या बेवकूफी की बातें सोचने लगी थी मैं !मैं भला करती क्या उसका? अचार डालती?  सच कहते हैं मूर्खों की कंपनी में मूर्खता ही प्रबल होती है | क्या सचमुच प्रमेश और उसकी दीदी सीधे और मूर्ख थे? महाप्रश्न था????

उस दिन लगभग पूरा दिन ही संस्थान में निकल गया, अभी बहुत सी चर्चाएं करनी थीं | बेशक अम्मा-पापा बेटे के साथ जाने और वहाँ लंबे समय तक निवास करने का मन बना चुके थे फिर भी आसान तो नहीं था उनके लिए यह निर्णय!इंसान अपनी मूल जड़ों को छोड़ते हुए हिचकता ही है | हिचकता भी क्या है, वह मोहग्रस्त रहता है अपने परिवेश से, अपनी उन चीज़ों से जो उसने न जाने किन परिस्थितियों में, कैसे कैसे जोड़-तोड़ किया होता है | यही मोहग्रस्तता जीवन को असहज करती है किन्तु हम इतने महान भी नहीं होते न!मोह में पड़ते हुए पता भी नहीं चलता और मोह छूटने में न जाने कितने जीवन लग जाते हैं, हम चक्कर काटते ही रह जाते हैं | मोह के जंजाल में से छूट सकें तो मोक्ष न पा जाएँ?? अब तो मुझे सच में लग रहा था, कहीं मैं ही न पगला जाऊँ?अर्थहीन बातों में मस्तिष्क की हड्डियाँ गलाकर मैं कर क्या लूँगी?

“अब डिनर करके ही जाना----”शोर मच गया | मुझे क्या जल्दी थी और प्रमेश तो “जैसा ठीक समझें”की तरज पर ही लट्टू की भाँति अपनी रबर की गर्दन हिला रहा था | 

“जी, सबकी इच्छा है, डिनर के बाद ही आएँ ये लोग, आपकी तरफ़----”अम्मा ने कर्टसी के लिए फ़ोन कर दिया | पता नहीं, उधर से क्या उत्तर मिला?किसी को क्या पूछना था?

मज़ा आ गया संस्थान में दिन बिताकर, पता ही नहीं चला कि कल मैं यहाँ से विदा होकर गई थी | कैसी विदा? खैर, वापिस जाने का समय आ गया और यह तो तय था ही कि कल से संस्थान का कार्य उसी प्रकार से शुरू हो जाएगा जैसे चलता था | अम्मा-पापा के साथ कलाकार बच्चों का भी एक ग्रुप जा रहा था, उसकी भी तैयारियाँ चल ही रही थीं | कल संस्थान में आने की बात करके हम निकल आए | प्रमेश की भी सितार की कई कक्षाएँ थीं, उसने भी सिर हिलाया कि वह कल से अपना काम शुरू कर देगा | 

वापिस पहुँचते हमें लगभग 11 बज गए | मंगला बेचारी बाहर बरामदे में बैठी इंतज़ार कर रही थी | चारों ओर शांति छा चुकी थी | गार्ड्स अपनी कैबिन में बैठे कुछ गपशप कर रहे थे। हमें देखते ही खड़े होकर उन्होंने सैल्यूट मारा जिसको अनदेखा करके प्रमेश ने आगे गाड़ी बढ़ा दी थी | 

हम दोनों ने पूरे रास्ते भर मुँह से एक भी शब्द नहीं निकाला था | मन संस्थान से निकलते ही सूखने लगा था, पिंजरे में जाकर कैद होने की बात सोचते ही लेकिन---

“अरे !मंगला, तुम क्यों नहीं सोईं ? उसके थके शरीर व आँखें बहुत भारी हो रहे थे | 

“बाऊदी! आपका वेट था न !”मुझे देखते ही उसके चेहरे पर की थकान जैसे अचानक गायब हो गई और एक रोशनी सी झलक आई जो मुझे तो भिगो ही गई | मैं जानती थी प्रमेश और उसकी दीदी को मंगला के प्रति मेरा स्नेह अच्छा नहीं लग रहा था लेकिन मुझे इसकी क्यों परवाह करनी चाहिए थी?

“चलो, अब सो जाओ—”मैंने प्यार से उसका कंधा दबाया और उस ओर आ गई जहाँ कल मुझे सुलाया गया था | पूरे घर में एक डिम रोशनी पसरी हुई थी जिसके सहारे चलने में कोई परेशानी नहीं हो रही थी | आ जाएगा प्रमेश गाड़ी पार्क करके, मैं अंदर की ओर चली आई | उस कमरे में भी रोशनी थी लेकिन मेरे चौंकने की बात यह थी कि उस कमरे में एक और मसहरी लगी हुई थी जिसमें कोई सो रहा था | 

“आ गया?” दीदी !

ये क्या था? मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था | ये इनकी मसहरी यहाँ कैसे और क्यों आई होगी?

“आप ? यहाँ?” मेरे मुँह से निकल ही गया | 

“हाँ, हम अमी, काल तुमको अकेला लगा होगा न तो तुमको कंपनी रहेगा | वैसे पहले बी हम दोनों एक कमरे में सोते थे | प्रमेश कहाँ है ?”कहते हुए उन्होंने अपनी मसहरी का पर्दा उठाया और मेरी ओर बेशर्मी से देखने लगीं | मन हुआ एक ज़ोरदार थप्पड़ रसीद कर दूँ लेकिन नहीं, कछ कह पाई और फिर से कुढ़ते हुए, बिना कुछ बोले हुए ड्रेसिंग की ओर चली गई | चेंज तो करना ही था | 

पाँच-सात मिनट में वापिस भी आ गई , देखा बहन-भाई कुछ बात कर रहे थे | 

“भालो—“मैंने प्रमेश के मुँह से सुना और जैसे कुछ सुना न हो उसी रेशमी पलंग पर जा पड़ी जिस पर कल सलवटें भी नहीं हुईं थीं | तन-मन से इतनी थक गई थी कि कुछ सोचने का भी मन नहीं था | जैसे ब्लैंक हो चुकी थी | थोड़ी देर में उसी मसहरी में प्रमेश ने प्रवेश किया, शायद वह मेरी ओर अपना रबर का हाथ बढ़ाना ही चाहता था, मैंने ज़ोर से एक बड़ा तकिया उठाकर अपने और उसके बीच में टिका लिया और बुदबुदाई, 

“बेशर्म !” पता नहीं उसने सुना होगा या नहीं लेकिन उत्तर नहीं दिया और मैं पूरी रात भर अपने आँसु बहाती रही | 

उत्पल—कहाँ हो तुम ? मेरा दम निकला जा रहा था |