डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा की तीन लघुकथाएँ
(1) लाइक एंड कॉमेंट्स
रात के लगभग साढ़े ग्यारह बजे रामलाल जी का हृदय गति रुकने से देहांत हो गया। उनका बड़ा बेटा शंकरलाल गाँव से सैकड़ों मील दूर एक शहर में अफसर था। छोटे बेटे भोलाराम ने तुरंत पिताजी की मृत्यु की सूचना मोबाइल के जरिए दे दी।
पिताजी की मृत्यु की सूचना पाकर बड़ा बेटा शंकरलाल दाह संस्कार में शामिल होने के लिए तुरंत सरकारी गाड़ी से रवाना हो गया।
लाख कोशिशों के बावजूद शंकरलाल दोपहर एक बजे के पहले गाँव नहीं पहुँच सकता था। परंपरा के मुताबिक रात को दाह संस्कार नहीं किया जा सकता, साथ ही किसी भी घर में लाश पड़े रहने पर न तो चूल्हा जला सकते हैं, न ही खाना खा सकते हैं।
समस्या गंभीर थी। उस पर भोलाराम ने स्पष्ट कह दिया था कि जब तक भैया नहीं आएँगे, डेड बॉडी नहीं उठाया जाएगा। बड़े भाई होने के नाते मुखाग्नि देने का पहला हक शंकरलाल का ही था और वे यहाँ पहुँचने के लिए रवाना भी हो चुके थे।
भूखे-प्यासे गाँव वाले शंकरलाल के पहुँचने की राह देख रहे थे। सब यह मानकर चल रहे थे कि डेढ़ बजे तक वे यहाँ पहुँचेंगे, एक आध घंटा रोना-धोना चलेगा। दो-ढाई बजे से शवयात्रा निकाली जाएगी और तब घरों में चूल्हा जलेगा।
आशा के अनुरूप शंकरलाल एक बजे ही पहुँच गया। पर ये क्या ? रोना-धोना तो दूर, चेहरे पर शिकन तक नहीं। उसने अपने लेटेस्ट स्मार्टफोन से डेड बॉडी की आठ-दस फोटो लिए और अपने छोटे भाई भोलाराम से कहा, "यदि पूरी तैयारी हो चुकी है, तो जल्दी से शवयात्रा निकाली जाए।"
फिर उसने अपने भतीजे को बुला कर कहा, "बेटा, अभी जब शवयात्रा निकाली जाएगी, तब तुम हर एंगल से अच्छे से कुछ फोटो ले लेना। स्पेशली जब मैं पापाजी को मुखाग्नि दूँगा, तब की। और हाँ, मोबाइल ज़रा संभल के चलाना। बहुत महंगा है।"
डेढ़ बजे से कुछ पहले ही परंपरा के अनुसार शवयात्रा निकाली गई। गाँव वालों ने भी राहत की साँस ली।
मुखाग्नि देने के बाद तुरंत ही शंकरलाल ने भतीजे से अपनी मोबाइल ले खींचे गए फोटो देखने लगा। भतीजे की फोटोग्राफी देख कर वह बहुत संतुष्ट लग रहा था।
अब लोग अलग-अलग समूहों में चिता शांत होने की प्रतीक्षा कर रहे थे। कोई समूह व्यापार, तो कोई राजनीतिक चर्चा में मगन था, तो कुछ लोग अपने-अपने मोबाइल में गेम खेल रहे थे या फिर चैटिंग कर रहे थे।
उधर पिता की चिता जल थी, इधर शंकरलाल फेसबुक में फोटो एडिट कर पोस्ट करने में बिजी था।
चिंता बुझते तक शंकरलाल संतुष्ट हो गया था, क्योंकि घंटे भर में ही नौ सौ लाईक और पाँच सौ कामेंट्स आ चुके थे। श्मशान घाट से लौटते समय वह साथ चल रहे लोगों को बड़े गर्व से बता रहा था कि अब तक एक हजार लाईक मिल चुके हैं।
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कफन
पिछले दो दिन से पत्नी की तबीयत ठीक नहीं थी। घर में खाने के लाले पड़े थे। ऐसी मुफलिसी में दवा-दारू कैसे करे ? परंतु पत्नी को यूँ ही बिना इलाज के कैसे मरने दे ?
पाँच साल पहले वह बेटे की इलाज के लिए गैरकानूनी तरीक़े से अपनी एक किडनी बेच चुका है। अब क्या करे ?
काफी सोच-विचार कर वह एक निजी अस्पताल में अपना खून बेच कर नौ सौ रुपए का जुगाड़ कर ही लिया। हाथ-पैर जोड़ कर डॉक्टर साहब को अपनी झोपड़ी में भी ले आया। उसे पूरा विश्वास था कि अब उसकी पत्नी बच जाएगी।
डॉक्टर ने पत्नी की नब्ज देखी। बी.पी. वगैरह चेक कर एक सादे कागज पर कुछ दवाइयाँ लिखकर देते हुए कहा, "मैंने दवाइयाँ लिख दी हैं। ये इन्हें खिला देना। ये जल्दी ही ठीक हो जाएँगी।"
अपनी फीस के 500/- रुपए लेकर डॉक्टर साहब चले गए।
वह लाचार-सा कभी पत्नी तो कभी डॉक्टर की पर्ची, कभी डरे सहमे छोटे-छोटे बच्चों तो कभी हाथ में बचे हुए 400/- रुपए को देखता रहा।
कुछ सोच कर वह तेजी से भागते हुए मेडिकल स्टोर पहुँचा।
दवाई लेकर घंटे भर बाद जब वह घर पहुँचा, तो पत्नी दुनिया छोड़ चुकी थी।
वह उलटे पैर मेडिकल स्टोर पहुँचा और बोला, "कृपया ये दवाइयाँ वापस ले लीजिए और मेरे पैसे मुझे लौटा दीजिए, क्योंकि ये दवाइयांँ जिसके लिए खरीदा था, वह अब इस दुनिया में ही नहीं है।"
मेडिकल स्टोर का संचालक बोला, "देखिए, रूल्स के मुताबिक यहाँ हम बिकी हुई दवाई के बदले दवाई ही दे सकते हैं, रुपए नहीं लौटा सकते ? बोलिए, इन दवाइयों के बदले आपको क्या दें ?
"एक कफन दे दीजिए। कफन खरीदने के लिए मेरे पास पैसे नहीं हैँ।" कहते हुए रो पड़ा वह।
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गिरगिट
पड़ोसी देश के सैनिकों द्वारा सीमा पर अचानक गोलीबारी कर देने से कई सैनिक मारे गए। पूरे देश में आक्रोश व्याप्त हो गया। सभी लोगों की देशभक्ति पूरे उफान पर था। कम-ज्यादा पढ़े-लिखे आम आदमी और साहित्यकार सोसल मीडिया पर सक्रिय थे। वे जमकर अपनी भड़ास निकाल रहे थे।
कवि रसराज भी लगातार वीररस की पद्य और गद्ममय रचनाओं से सोसल मीडिया में छाए हुए थे। प्रतिदिन दो-तीन पोस्ट नियमित रूप से कर रहे थे। ढाई-तीन हजार लाइक-कॉमेंट्स और दर्जनों शेयर उनमें अतिरिक्त ऊर्जा का संचार कर रहे थे। वाकई उनकी भावाभिव्यक्ति ऐसी थी, कि मुर्दा दिल भी उठ कर खड़ा हो जाए।
एक दिन शाम को चाय पीते हुए वे अपनी श्रीमती जी से बोले, "मालती, आज तो कमाल हो गया। साढ़े चार हजार लाईक्स, ढाई हजार कॉमेंट्स, नौ सौ शेयर..."
मालती खुश होकर बोली, "सो तो होगा ही जी। मुझे आप पर बहुत गर्व है। आप लिखते ही इतना अच्छा हैं कि जी करता है आपका हाथ चूम लूँ।"
वे रोमांटिक मूड में बोले, "तो रोका किसने है जी।"
मालती झेंप गई, "आप भी ना, बेल-कुबेल कुछ देखते नहीं। मौका मिला नहीं कि कहीं भी शुरू हो जाते हैं।"
"अरे भई, तुम तो सीरीयस हो गई। मैं तो यूँ ही मजाक कर रहा था।" वे बोले।
"अरे हाँ, मैं तो बताना भूल ही गई थी, आज दोपहर कुछ स्कूली बच्चे आए थे, प्रधानमंत्री राहत कोश में सहायता राशि भेजने के लिए चंदा माँगने। मैंने आपके पोस्ट से प्रभावित होकर उन्हें पचास रुपए दे दिए।" वह प्यार से पति का हाथ पकड़ कर बोली।
"क्या...? पचास रुपए... पागल हो गई है तू...ये स्कूल वाले भी ना.... बस मौका तलाशते रहते हैं, वसूली के।" उन्होंने हाथ को झटकते हुआ कहा, "और सत्यानाश हो तेरा। एक बार पूछ तो लिया होता मुझसे। पूरा मूड खराब कर दिया। ये प्रवचन क्या तेरे लिए ही लिखा था बेवकूफ औरत ?....."
मालती को चक्कर आने लगा था। कुछ देर पहले जिस पति पर उसे गर्व की अनुभूति हो रही थी, अब उसी पर घिन आने लगी थी।
- डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर छत्तीसगढ़