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बिन ब्याही मांग

वाजिद हुसैन की कहानी

अभी वह बच्ची ही थी कि उसके पिता की मृत्यु हो गई। वह दस साल की भी नहीं हुई थी कि उसकी मां चल बसी। वह अपने ताऊ के घर में अनाथ रह गई थी, जो कश्मीर की खूबसूरत वादियों के बीच एक छोटे से एकांत गांव में अपने बीवी-बच्चों के साथ रहता और वहां की मिट्टी में होने वाले फलों पर गुज़ारा करता था।

रूही के पिता मरे तो उसके लिए अपने नाम और खुबानी और सेब के पेड़ों के बीच खड़ी एक झोपड़ी के अलावा और कुछ नहीं छोड़ गए। अपनी मां से उसे ख़ूबसूरती मिली थी, जिससे वह सोलह बरस की होने तक अंजान रही।

दिल्ली में साबरी ब्रदर्स फलों के थोक व्यापारी हैं। वे कश्मीर से सेब की फसल ख़रीदकर एक्सपोर्ट करते हैं। साबरी ब्रदर्स का बड़ा भाई रहीम बख्श था। वह आधा मैदानी आधा कश्मीरी क़ाबिल और सभ्य था। हर बसंत के बाद बागों की फसल ख़रीदने कश्मीर जाता रहता था। 'कंरीम, उसने अपने छोटे भाई से कहा, इस साल बाग ख़रीदने तुम कश्मीर जाओगे। तुम वहां कुछ दिन घूम- फिर सकते हो और थोड़ी तफरीह भी कर सकते हो।'

उसके दो हफ़्ते बाद करीम बख़्श कश्मीर की वादियों में घूम-फिर कर बागो का जायज़ा लेता दिखाई दिया था। अचानक उसकी नज़र सेब के पेड़ों के बीच चहलक़दमी करती लड़की पर ठहर गई। रूही ने उससे पूछा, 'क्या चाहिए?' ...'सेब।' करीम ने सकपकाकर कहा।

'अभी तो फूल भी सही से नहीं खिले हैं, और आप सेब ख़रीदने आ गए।' रूही ने मुस्कुराते हुए कहा।

करीम अपलक उसके मोती जैसे दांत देखता रहा, फिर उसने कहा, 'मैं दिल्ली से सेब की फसल खरीदने आया हूं। फूल देखकर फल का अंदाज़ लगा लेता हं, जैसे आपको देखकर अंदाज़ लगाया, आप जैसी ख़ूबसूरत लड़की कश्मीर में नहीं होगी। रूही शरमा गई, और कनखियो से उसे देखने लगी। करीम ने चलते-चलते कहा, 'फिर कहां मुलाक़ात होगी?'

'कल झरने पर इसी वक़्त।'

जल्द ही रूही को अपने दिल में ऐसी हलचल महसूस होने लगी, जिससे वह अब तक अंजान थी। वह वैसे ही था जैसे फूल के अंदर खुशबू का पता चल जाना। अजीब-अजीब ख़्वाब और ख़्याल उस पर इस तरह टूट पड़ते जैसे किसी नदी की धारा में चलकर आता रेवड़। वह अब एक औरत बन गई थी और अपनी तुलना बस यूं ही उस ताज़ा अछूती मिट्टी से करती, जिसमें अभी ज्ञान के बीज नहीं बोए गए थे और जिस पर अभी तजुर्बे के निशान नहीं पड़े थे। वह एक कमसिन लड़की थी, जिसे क़िस्मत ने उस बगिया में महदूद कर दिया था, जहां जिंदगी एक बधें-बंधाए ढर्रे पर बीतती थी।

हम में से जिन लोगों ने अपनी ज़िंदगी भीड़भाड़ वाले शहर में बिताई है, वे कश्मीर के दूर-दराज़ के गांवों और टोलों के बाशिंदों की ज़िंदगी के बारे में नहीं जानते। उनकी आत्मा हमारी आत्मा से बेहतर है। हम बोते तो बहुत हैं, लेकिन काटते कुछ नहीं है। लेकिन वे सब्र और ख़ुशी बोते हैं और हर पल काटते हैं!

रूही की आत्मा एक चमकता दर्पण थी, जिसमें खेतों की तमाम सुंदरता झलकती थी। उसका हृदय चौड़ी वादियो की तरह था, जिसमें आवाज़ें गूंजकर लौटती थी।

अगले दिन जब प्रकृति उदासी में डूबी दिखाई देती थी, वह किसी कवि की कल्पना से मुक्त विचारों की तरह एक झरने के किनारे बैठी थी और पेड़ों से गिरती पीली पत्तियों का फड़फड़ाना देख रही थी। वह उनके साथ हवा को खेलता देख रही थी।

जब वह इस तरह बैठी फूलों व पेड़ों को देख रही थी और अपनी पीड़ा को उनके साथ साझा कर रही थी। तभी उसने वादी के पत्थरों पर सूखे पत्तों की खड़कन की आवाज़ सुनी। उसने मुड़कर देखा तो करीम धीरे-धीरे उसकी तरफ बढ़ा आ रहा था।

वे झरने किनारे बैठकर, एक दूसरे का हाथ थामें अपनी कहानियां सुनाते रहे। फिर करीम ने अपनी आंखें उसकी और उठाई और सीधे उसकी आंखों में झांक कर कहा, 'आज रात को झील की सैर करें।' रूही ने शोख़ लहजे में कहा, ' ताऊ को पता चल गया, तो मारकर झील में डाल देंगे, फिर भी आपकी खुशी के लिए मैं आउंगी।

बादाम की डालियां फूलों से झुक गई थी। बर्फीली हवा की जुदाई से, ठंडक गुलाबी हो गई थी। मखमली दूब पर कहीं-कहीं बर्फ के टुकड़े सफेद फूलों की तरह खिले हुए नज़र आ रहे थे। झील में चरागौं का अक्स रौशन होने लगा था। पुल के जंगले का सहारा लेकर मैं एक अरसे से उसका इंतज़ार कर रहा था। दोनों पहर के मिलन का वक्त गुज़रने लगा और रात का गलबा इस किनारे से उस किनारे तक फैल गया। फिर चांद निकल आया और वह आ गई। तेज़ कदमों से चलती हुई, वो मेरे बिल्कुल करीब आके रुक गई। उसने आहिस्ता से कहा, 'हाय!'

मैंने उससे कहा, 'मैं पहर से तुम्हारा इंतजार कर रहा हूं।' उसने हंसकर कहा, 'अब रात हो गई है, बड़ी अच्छी रात है।' उसने अपना नन्हा छोटा- सा हाथ मेरे कंधे पर रख दिया और जैसे बादाम के फूलों से भरी शाख़ झुक कर मेरे कंधे पर सो गई। देर तक वह ख़ामोश रही। फिर हंसकर बोली, 'ताऊ पगडंडी के मोड़ तक मेरे साथ आए थे, क्योंकि मैंने कहा, मुझे डर लगता है। आज मुझे अपनी सहेली रब्बो के घर सोना है। सोना नहीं जागना है, क्योंकि बादाम के पहली कलियों की खुशी में हम सब सहेलियां रात भर जागेंगी और गीत गाएंगी। मैं मक्के के भुटटे, चेरी और ख़ुबानी तुम्हारे लिए लाई हूं।

...हाय, तुम सचमुच ख़फा खड़े हो। आज पूरे चांद की रात है, आओ किनारे लगी कश्ती खोलें व झील की सैर करें। उसने मेरी आंखों में देखा और मैंने उसकी मुहब्बत और हैरत में गुम पुतलियों को देखा, जिसमें उस वक्त चांद चमक रहा था और ये चांद मुझसे कह रहा था, 'आओ कश्ती खोल के झील के पानी पर सैर करो। ... आज उसने तुम्हारे लिए अपने ताऊ और सहेलियों को फरेब में रखा है क्योंकि उसे तुमसे प्यार हो गया है। ‌

...मेरा गुस्सा धुल गया। मैंने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया और उससे कहा, 'आओ चलें झील पर।' ...अब हम झील के किनारे- किनारे चल रहे थे। कश्ती ख़ुबानी के एक पेड़ से बंधी थी, जो बिल्कुल झील के किनारे उगा था। मैंने दोनों हाथ, उसकी कमर में डाल दिए और उसे अपने सीने से लगा लिया। ...मैंने आहिस्ता से कश्ती खोली। मैंने चप्पू अपने हाथ में ले लिया। और कश्ती को खै कर झील के मरकज़ में ले गया। यहां कश्ती आप ही आप खड़ी हो गई। न इधर बहती थी, न उधर। मैंने चप्पू उठाकर कश्ती में रख लिया। उसने पोटली खोली। उसमें से चेरी निकालकर मुझे दिए। ख़ुद भी खाने लगी। मैं चेरी खाता रहा और उसकी तरफ देखता रहा।

'नर्म-नर्म बहुत मीठी है ये।' मैंने कहा। उसने खुबानी निकाल कर मुझे खाने को दी। ऐसी मीठी ख़ुबानियां मैंने कभी नहीं खाईं।' उसने कहा, 'ये हमारे आंगन के पेड़ की है। मगर इतनी बड़ी और मीठी खूबानियां होती है कि मैं क्या कहूं। जब यह पकती हैं, मैं अपनी सब सहेलियों को खिलाती हूं।

मैंने कहा, 'मैं तुम्हें चूम लूं?' वह बोली, 'हश, कश्ती डूब जाएगी।' 'तो फिर क्या करें?' मैंने पूछा। वह बोली, 'डूब जाने दो।'

‌वह पूरे चांद की रात मुझे अब तक नहीं भूलती, मेरे ज़हन में इस तरह चमक रही है, जैसे अभी वह कल आई थी। ऐसी पाकीज़ा मुहब्बत मैंने आज तक नहीं की होगी‌। उसने भी नहीं की होगी। वो जादू, वह ख़ुमार कुछ और था। जिसने पूरे चांद की रात को हम दोनों को एक दूसरे से यू़ं मिला दिया कि वह फिर घर नहीं गई। उसी रात मेरे साथ भाग आई और हम पांच-छह दिन मुहब्बत में खोए हुए बच्चो की तरह इधर-उधर जंगलों के किनारे नदी नालों पर अखरोट के साय तले घूमते रहे, दुनिया से बेखबर। फिर मैंने इसी झील के किनारे एक छोटा सा घर ख़रीद लिया और उसमें हम दोनों रहने लगे। कोई एक महीने बाद मैं बारामूला सेब की फसल ख़रीदने गया और उससे ये कहके गया कि तीसरे दिन लौट आऊंगा। तीसरी दिन में लौट आया तो क्या देखता हूं कि वह एक नौजवान से घुल-मिलके बातें कर रही है। वह दोनों एक ही प्लेट में खाना खा रहे थे। और एक- दूसरे के मुंह में लुक़में डालते जाते हैं और हंसते हैं‌। मैंने उन्हें देख लिया लेकिन उन्होंने मुझे नहीं देखा। वो अपनी ख़ुशी में इस तरह मग्न थे कि उन्होंने मुझे नहीं देखा। मैंने सोचा कि यह पिछला या उससे भी पिछला महबूब है, जब मैं न था। और शायद कितनी ही पूरे चांद की राते आएंगी, जब इसकी मुहब्बत एक फाहिशा औरत की तरह बेक़ाबू हो जाएगी... 'यहां तेरा क्या काम?' इसलिए मैं यह सोचकर उससे मिले बगैर ही वापस चला गया।

जवानी एक खूबसूरत ख़्वाब होती है। रूही के इश्क़ का भूत उतारने के लिए मैंने शहाना से विवाह कर लिया। वह खूबसूरत थी, पढ़ी-लिखी थी, पर कश्मीरी लड़की का भूत उतार न सकी। अत: शादी के छै साल बाद भी संतान सुख से वंचित रही।

एक बार फिर मुझे सेब की फसल खरीदने के लिए कश्मीर जाना पड़ा। उस शाम जब मैं अपनी रिहाइश की ड्योढ़ी में बैठा आती- जाती भीड़ को देख रहा था और फेरी वालों की आवाज़ों को सुन रहा था तो एक लड़का मेरे पास आया। वह कोई पांच साल का रहा होगा। उसके शरीर पर फटे- चीथड़े थे और अपने कंधों पर वह एक ट्रे उठाए हुए था जो खूबानियों से भरी थी। उसने मुझसे ख़ुबानी ख़रीदने का आग्रह किया। उसकी आवाज़ इतनी टूटी हुई और कमज़ोर थी मानो उसे लंबी तकलीफ विरासत में मिली हो।

मैंने उसके छोटे से पीले चेहरे में झाका। उसकी आंखों में देख कर सन रह गया, 'अरे इसकी शक्ल और आवाज़ मुझ से हुबहु मिल रही है।' मैंने उससे कुछ खुबानी खरीद ली। खुबानी बहुत मीठी थी। मैंने उससे पूछा, 'इतनी मीठी खुबानी कहां से लाए?'

'इस खुबानी का पेड़ हमारे आंगन में लगा है। मां कहती है, पहले मैं इन खूबानियों को अपनी सहेलियों को खिलाती थी, अब पैसे की ख़ातिर बेचना पड़ रही है।'

मुझे याद आया, रूही ने मुझे कश्ती में ऐसी ख़ुबानियां खिलाई थी और अपने आंगन में लगे पेड़ का ज़िक्र किया था। फिर मैंने उससे उसका नाम पूछा।

उसने ज़मीन की तरफ अपनी नज़रें घूमाते हुए कहा, 'मेरा नाम सलीम बख़्श है पर लोग मुझे बिनब्याही मां का बेटा कहते है, जो मुझे अच्छा नहीं लगता है।'

'किसके बेटे हो और तुम्हारे घर वाले कहां हैं?'

'मैं झील किनारे रहने वाली रूही का बेटा हूं।'

‌‌‌ 'और तुम्हारे पिता' मैंने पूछा।

उसने इस तरह अपना सिर हिला दिया जैसे उसे पता नहीं था कि पिता क्या होता है‌‌।

'तो तुम्हारी मां कहां है?'

'घर पर बीमार है।'

लड़के के होठों से निकले कुछ शब्दों ने मेरे कानों पर ज़बरदस्त असर किया। मैं तुरंत ही जान गया कि नसीब की मारी जिस रूही को मैंने फाहिशा समझा था, वह अब बीमार पड़ी है। वह लड़की जो कल पेड़ों और वादियो के बीच अपना हुस्न बिखेर रही थी थी,आज भूख और दर्द का कड़ापन झेल रही थी। वह मेरे इश्क़ में बहकर बिनब्याही मां बन गई। मैने उस पर शक् किया और उसे तंगहाली व बदनसीबी के भंवर में छोड़कर चला गया।

वह लड़का वहां से जाने को हुआ तो मैंने उसका हाथ पकड़ लिया और कहा, 'मुझे अपनी मां के पास ले चलो। मैं उनसे मिलना चाहता हूं। वह मेरे आगे ख़ामोशी और हैरानी से मुझे रास्ता दिखाने लगा। थोड़ी-थोड़ी देर में वह मुड़कर देख लेता था कि मैं सच में उसके पीछे आ रहा था या नहीं। आख़िर में वह लड़का उसी मकान में दाखिल हुआ, जिसमें मैं रूही को छोड़कर आया था।

मैं उसके पीछे वहां गया। कमरे की तरफ बढ़ते समय मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था। मैं एक कमरे के बीच में घुस गया, जिसकी हवा में सीलन थी। उसमें कोई फर्नीचर नहीं था बस एक लैंप था, जिसकी मद्धिम रौशनी अपनी पीली किरणों से अंधेरे को काट रही थी। एक तख़्त था जिसकी हालत घोर गरीबी व तंगहाली व अभाव को बयान करती थी। तख़्त पर एक औरत सो रही थी, जिसका चेहरा दीवार की तरफ था।

लड़का चिल्लाता हुआ उसके पास गया -- 'मां- मां।'

वह घूमी और उसने देखा कि वह मेरी तरफ इशारा कर रहा था। इस पर फटी- चीथड़ी चादरों के नीचे उसने हरकत की और ऊंचे स्वर में चिल्लाई जिसमें उदासी ने कड़वाहट भर दी थी, 'क्या चाहिए तुम्हें, अरे आदमी? क्या तुम मेरी ज़िंदगी की आख़िरी धज्जियां ख़रीदने आए हो कि उन्हें अपनी हवस से गंदा कर सको? चले जाओ मेरे पास से, उन औरतों के पास जो अपने शरीर और अपनी आत्मा को सस्ते में बेचने को तैयार रहती हैं। लेकिन मेरे पास बेचने को कुछ उखड़ती सांसों के सिवाय कुछ नहीं है --और उन्हें भी मौत कब्र की शांति के बदले जल्द ही खरीद लेगी।'

मैं पलंग के पास गया। उसके शब्दों ने मुझे दिल की गहराइयों तक झकझोर दिया था। मैंने उससे कहा, 'जैसा तुम सोच रही हो, वैसी मेरी नियत नहीं है। मैं तुम्हें उस सच्चाई से रूबरू कराना चाहता हूं जिससे तुम अंजान हो।

'मैं सेब की फसल खरीदने बारामूला गया था, लौट कर भी आया था। मगर तुम्हें किसी दूसरे नौजवान के साथ देखकर वापस चला गया था।'

'क्या कहते हो?' वह बोली।

'हां, तुम उसके साथ खाना खा रही थी, एक ही प्लेट में और वह तुम्हारे मुंह में और तुम उसके मुंह में लुक़में डाल रही थी।' वह एकदम चुप हो गई। फिर बोली, 'वह मेरा चचेरा भाई है। वह फौज में है, मुझसे मिलने आया था, उसी रोज़ तुम भी आने वाले थे। वह वापस जा रहा था। मैंने उसे रोक लिया कि तुमसे मिलकर जाए। तुम फिर आए ही नहीं।' वह एकदम संजीदा हो गई, एक आह भरी, 'फिर सलीम पैदा हुआ और मैं एक बिनब्याही मां बन गई।'

लोग मेरे बच्चे का हरामी कहकर मज़ाक उड़ाते हैं कि यह तो पाप की पैदाइश है और रूही वैश्या का बेटा है। मैं इसे गलियों के आवारा बच्चो के बीच इस बेरहम वजूद में अकेला छोड़कर जा रही हूं।

रूही ने अपने बेटे के दोनों छोटे-छोटे हाथ पकड़े और दुखी होकर उन्हें चूम लिया। फिर उसके हाथ मेरे हाथों में दिए और दुनिया से अलविदा कह दिया। उसकी मैयत को दफनाने के बाद, मैं सलीम को अपने साथ लेकर घर लौट आया। मैंने और शहाना ने उसे मां-बाप का प्यार दिया फिर भी मुझे अफसोस रहा कि उसके माथे पर पुती कालिख को मरते दम त न मिटा सका।

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