Tash ka aashiyana - 39 in Hindi Fiction Stories by Rajshree books and stories PDF | ताश का आशियाना - भाग 39

Featured Books
Categories
Share

ताश का आशियाना - भाग 39

नारायण जी ने नंबर मिलते ही, डॉक्टर चतुर्वेदी को फोन घुमाया।फोन डॉक्टर (यहाँ साइकैटरिस्ट) चतुर्वेदी के रिसेप्शनिस्ट ने उठाया। अपॉइंटमेंट लेने को कहा।


जो अगले सुबह 11:00 की मिल गई, यह भी बताया की सेशन एक घंटे का होता है, हर एक सेशन का खर्चा हजार रुपए|


तीनो ने मिलकर एक दूसरे से चर्चा की।


"हमे कल सुबह 11:00 बजे की अपॉइंटमेंट मिल गई है, लेकर जाएंगे इसे वहां पर?"


गंगा बोली, "आज राजू की बहू का फोन आया था। वह बोल रही थी कि, राजू गाजियाबाद से वापस आ चुका है। उसी की ही गाड़ी से लेकर चलते है।"


"पर कैसे? भाई चलने के लिए तयार नही होंगे।"


"उसके पास फैमिली कार है उसमें डालकर उसे लेकर जाएंगे।" नारायणजी ने जवाब दिया।


"ठीक है।" इतना ही बोलकर तुषार चुप रहा।


कितना भी बोलो तो भी मामला किसी और के घर का था। वो तो बस प्रोफेशनली और पर्सनली जुड़ा था सिर्फ सिद्धार्थ से|


सिद्धार्थ अभी भी सोया हुआ था।


सोता नहीं था, तो चिल्लाता था ,गुस्सा करता था इसलिए उसका सोना ही उनके लिए बेहत बड़ी शांति थी।


रात को वह सीधा 6:00 बजे के दौरान उठा उसने खाना मांगा। गंगा ने वह परोस कर दिया।


सिद्धार्थ ने बस बेमन होकर खाना खाया।


आज भी गुस्से का सब इंतजार कर रहे थे लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। वह गोलियां लेकर बस सो गया।


दूसरे दिन सभी ने उसे नियम के अनुसार दस बजे साइकैटरिस्के पास लेकर जाने की बात सोची। राजू को नारायण जी ने पहले ही बता दिया था।


राजू को भी यह जानकर झटका लगा कि सिद्धार्थ को ऐसा कुछ हुआ है।


वो तो पहले खुद आना चाहता था उनके साथ लेकिन वह सफर से थक गया था, इसलिए नारायणजी ने उसे सिर्फ गाड़ी देने के लिए कहा।




सिद्धार्थ इन तीनों के साथ चलने के लिए तैयार नहीं था। उसे अभी भी यह सब एक कल्पना ही लग रही थी।


तीनों लोग उसे खाने वाले राक्षस लग रहे थे।


वह अपनी ही कल्पना में ही जी रहा था जहां वह एक निकम्मा नकारा लड़का था जो जिंदगी में हार चुका था।


यह लोग उसकी जिंदगी में लगा एक नासूर थे, जो उसके जिंदगी को बरबाद कर रहे थे।


जब सिद्धार्थ ने कल कुछ तमाशा नही किया तो तीनों को लगा कि सिद्धार्थ का रवैया ठीक हो चुका होगा। वह पूरी तरह से स्वस्थ हो चुका होगा। लेकिन बस, यह इन तीनों की अतृप्त (unfulfilled) इच्छा थी।


सिद्धार्थ आज एक बार फिर उन लोगों से डरने लगा , चीखने लगा, चिल्लाने लगा तो इन तीनों के मन में यही ख्याल आया की सिद्धार्थ को सच में इलाज की जरूरत है।


तीनों ने जैसे तैसे कर उसे कार में बंद किया।


लोग तमाशा देख रहे थे। सबको बुजुर्ग मां–बाप की यह हालत देखी नही जा रही थी।


किसी के लिए सिद्धार्थ सही था तो किसी के लिए सिद्धार्थ के माता-पिता, लोग अपनी अपनी बातें बना रहे थे।


तीनों गाड़ी में बैठे। तुषार ने गाड़ी संभाली, नारायण जी पैसेंजर सीट पर बैठ गए। गंगाजी सिद्धार्थ को लेकर पीछे बैठी गई, गाड़ी चल पड़ी।


सिद्धार्थ की हालत का यही एक कारण नहीं था, उसे साइकैटरिस्ट के पास लेकर जाने का।


एक और कारण भी था | वो कारण था, इन तीनों का अपना-अपना रिग्रेशन / पछतावा।


तुषार को रिग्रेशन था, उसके भाई से मजाक करने का, उसे रागिनी के प्यार का एहसास दिलाने का।


गंगाजी को रिग्रेशन था नारायणजी से बात छुपाने का, सिद्धार्थ को शादी के लिए जबरदस्ती करने का।


नारायण जी को रिग्रेशन था सिद्धार्थ को उसकी मर्जी की जिंदगी जीने से रोकने का। यह जानने के बावजूद की, सिद्धार्थ बाकी लडको जैसा नहीं है।


उससे काश वो पहले ही कह देते की, तुम्हें जो करना है वह तुम कर सकते हो। तो आज शायद यह हालत नही होती उसकी।


सिद्धार्थ की हालत खराब होने के हर एक के पास अलग-अलग कारण थे और उसकी हालत ठीक होना तीनों के लिए जरूरी लक्ष्य।


ठीक 11:00 बजे सारे लोग अस्पताल के बाहर थे। अंदर पहुंचते ही उनका नंबर लग गया।


पेशेंट को पहले जाना पड़ता है आप उन्हें सिर्फ अंदर छोड़ दो। रिस्पेशनिस्ट ने कहा। जैसे ही नारायण जी उसे हाथ लगाने जाते की वो चिल्लाने लगा।


"छोड़ो मुझे! मैंने क्या किया है। मैं जी लूंगा खुदकी जिंदगी छोड़ो।"


रिस्पेशनिस्ट ने वहा का फोन घुमाया। फोन घुमाते ही पाच मिनिट में दो मेल नर्स भाग कर आए और उन्होंने सिद्धार्थ की जिम्मेदारी खुदके हाथो में ले ली।


सिद्धार्थ तब भी नही माना लेकिन फिर भी वो उसे डॉक्टर के कमरे में लेकर गए।


डॉक्टर ने वहां पहुचते ही, सिद्धार्थ से कुछ फॉर्मेलिटी भरे सवाल पूछ उसके बारे में जानने की कोशिश की।


"मेरा नाम भैरव है, भैरव चतुर्वेदी।"


"तुम्हारा नाम क्या है?" कोई जवाब नही।


"आज टी–ट्वेंटी की लॉन्चिंग है, तुम्हे कौनसी टीम पसंद है।" कोई जवाब नही।


"तुम सेल्फ-लव पर कितना मानते हो?" कोई जवाब नही।


"मैं पेशे से दिमाग का डॉक्टर हु, साइकैटरिस्ट। तुम क्या करते हो खाने-पिने के लिए?"


कोई जवाब नही।


"तुम्हारे माता पिता का मानना है की, तुम उनपर गुस्सा करते हो मुझे तो तुम काफी शांत स्वभाव के लग रहे हो।"


इस पर भी कोई खासा रिएक्शन नहीं |


15 मिनिट के दरमियान उनकी कोई बाते नही हुई। दोनों बस एक दूसरे को निरिक्षण (ऑब्जर्व) कर रहे थे। जिस वक्त साइकैटरिस्ट सिद्धार्थ के बारे में जानने के लिए सवाल-जवाब कर रहे थे| उस वक्त सिद्धार्थ उसके सामने बैठे शख्स का अवलोकन कर रहा था|


डॉक्टर काफी वृद्ध आदमी थे पर चेहरे की चमक पच्चीस की थी, सफेद शर्ट, क्रीमिश कोर्ट, आंखों पर चश्मा , ब्राउन सॉफ्ट बाल, तापमान को नियत्रिंत करता A.C. और आजू बाजू के जो पोस्टर थे जिससे यह साबित होता था की वो पेशे से दिमाग का डॉक्टर है।


यही कुछ चीजे थी जो पिछले 15 मिनिट में सिद्धार्थ ने ऑब्जर्व की क्योंकि साइकैटरिस्ट के किए गए सवालों का जवाब देना उसे व्यर्थ लगता था। बातचीत आगे ना बढ़ते देख उन्होंने सिर्फ अपने नोट पैड पर कुछ लिखा और फ़ोन घुमा फिरसे एक बार मेल नर्सेज को बुला लिया।


उनके आते ही न सिर्फ सिद्धार्थ की जिम्मेदारी उनपर सोपी बल्कि उसके माता पिता से मिलने की इच्छा जताई।


दूसरी और


दोनों वार्डबॉय के सिद्धार्थ को अंदर लेकर जाने के बाद। तीनों बाहर ही बैठे थे।


उनके साथ और एक शक्श बैठा था।


"आप यहां किसी को लेकर आए हैं?" ऐसा सवाल नारायण जी ने उनसे पूछा।


"यहां मैं खुद के लिए आया हूं।"


"आप खुद के लिए आए हैं, कौनसी बीमारी है आपको?"


एक वक्त के लिए वह शक्श नारायणजी को हैरानी भरी नजर से देख रहा था।


"आप क्यों आए हैं यहा?" उस व्यक्ति ने प्रतिप्रश्न दागा।


"मेरे बेटे के लिए, उसकी दिमागी हालत कुछ ठीक नहीं है| पता नहीं वह ठीक भी होगा या नहीं| एक हफ्ते पहले अच्छा था लेकिन अब सबकुछ मुश्किल नजर आ रहा ह।"


नारायणजी के चेहरे पर उदासी फैल गई। उस व्यक्ति को नारायण जी के स्वभाव में किसी भी प्रकार का छल कपट ना देख थोड़ा सा हल्का महसूस होने लगा।


"कितने साल का है आपका बेटा?"


" 32-33 साल का।"


"ठीक हो जाएगा आपका बेटा, डॉक्टर चतुर्वेदीकाफी काफी पहुंचे हुए व्यक्ति हैं। उन्होंने मेरे बीमारी को तक ठीक किया है|"


"आपको कौन सी बीमारी है?"


"मुझे जल्दी गुस्सा आ जाता है|"


"गुस्सा आना कोई बीमारी तो नही।" नारायण जी काफी बेफिक्र हो बोले|


"अगर ज्यादा हो जाए तो सच में बीमारी है।" उस शख्स ने जवाब दिया।


2 साल पहले मेरा पत्नी का देहांत हो गया था। उसके बाद से मेरी सारी दुनिया ही बदल गई। मुझे समझ में नहीं आता था की मैं क्या करू।


अपना दर्द निकालने का एक एक ही जरिया मुझे मिला था ; वह था, गुस्सा करना। लेकिन इससे मेरे आजू-बाजू के लोगों को परेशानी होने लगी, खासकर मेरी बेटी को।


मेरे पत्नी के बाद मेरी बेटी ही मेरे लिए सब कुछ है।


उसके लिए मैं कुछ भी कर सकता हूं, इसलिए मैंने ठान लिया कि मैं अपने इस गुस्से पर कंट्रोल लाऊंगा। मैं पहले से अब काफी ठीक हूं।


"बुरा ना माने तो एक बात बोलू?"


सिर्फ हु, में हां मान नारायणजी ने सवाल दागा,


"आप वैसे भी तो गुस्से पर कंट्रोल ला सकते थे। इसके लिए यहां आने की क्या जरुरत?"


जो चीज खुद के कंट्रोल में नहीं होती उसे भगवान पर छोड़ देना चाहिए, डॉक्टर चतुर्वेदी मेरे लिए वही भगवान है।


हर एक दिमाग बीमारी का इलाज सही तरीके से होना चाहिए। अगर हम छोटे से खांसी-जुकाम को सीरियसली ले लेते हैं तो फिर अपने दिमाग को क्यों ना सीरियसली ले।


आज वहां बैठे पेशेंट से बात कर नारायण जी का एक अलग नजरिया बना था। उसके साथ बैठा हुआ शख्स कोई छोटा-मोटा आदमी नहीं था।


वह जिस कार से उतरा था और जैसे कपड़े पहने थे उससे वह काफी नामी गिरामी हस्ती नजर आ रहा था।




सिर्फ अपने बेटी को एक अच्छी जिंदगी दे सके इसके लिए उसकी कोशिशे चल रही थी यह कोशिशे देखकर नारायण जी काफी हैरान थे।


यूपी के इतने बड़े बिजनेसमैन फिर भी अकेले, दिमागी बीमारी से जूझते हुए।


सहारा बनकर सिर्फ एक बेटी ही है, जिसके लिए वह जी रहे हैं।


भगवान सबको सब कुछ नहीं देता, हमेशा लक्ष्य पूरा होना ही जिंदगी के मायने तय नही करता।


सपने सिर्फ पूरे नहीं किए जाते, उसे हर एक पल के साथ अपने लोगो के साथ जीना भी जरूरी होता है। भगवान हमें जो कुछ भी देता है वह हमारे लिए सही ही होता है।


इतने बड़े बिजनेसमैन होने के बावजूद भी छोटी-छोटी चीजों में वह अपनी खुशियां ढूंढ रहे हैं। सिर्फ अपने बेटी को बेहतर जिंदगी देने के लिए वह इलाज कर रहे हैं।


काश मैं पहले सब यह बाते समझ जाता ? यही सवाल उनके भीतर चल रहा था।


"काश, मैं अपने बेटे को उसकी जिंदगी खुद जीने देता?"


जब वह कुछ अलग करना चाहता था तब उसको रोकता नही, तो शायद आज मैं यहां ना बैठा होता।


क्यों मैंने खुद के सपने उसपर थोपने की कोशिश की? जब मैं उसे खुद पूरा नहीं कर पाया।


मैंने जी तो ली थी अपनी जिंदगी, कौन सी उसकी कामयाबी पर मैं अपना नाम लिखने चला था।


कितना तो खुश था वह, क्यों उसकी खुशियों पर मैंने आग लगा दी?


बहुत सारे सवाल नारायणजी के मन में उमड़कर आ रहे थे।


एक अलग दृष्टिकोण उनके पूरे शरीर में सिहरन फैलाकर गया था।


उन्होंने ठान लिया था, चाहे कुछ भी हो जाए वह अपने बेटे को ठीक करके ही रहेंगे।


चाहे उसके लिए उन्हें कुछ भी कीमत क्यों ना देनी पड़े। वह अपने बेटे की आजादी चाहते हैं।


वह उसे इस बीमारी से ठीक करना चाहते हैं।


सिद्धार्थ को बाहर भेज दिया डॉक्टर ने, उसके साथ दो वार्डबॉय को भी भेजा। सिद्धार्थ के बाहर आते ही इस शक्श ने मिलने की इच्छा जताई। तो रिसेप्शनिस्ट में सिद्धार्थ के बारे में बताया।




"इनका सेशन अभी भी चालू है।"


"मुझे सिर्फ 10 मिनट के लिए बात करनी है फिर मुझे एक इंपॉर्टेंट मीटिंग के लिए भी जाना है। प्लीज ! आप एक बार डॉक्टर साहब से बात करके देखिए।"




रिसेप्शनिस्ट ने उस व्यक्ति के रिक्वेस्ट के चलते डॉक्टरको फोन घुमाया। उन्हें उस व्यक्ति के सारे हालात बताए डॉक्टर 10 मिनट के लिए मान गए।


नारायण जी यह सब खुली आंखों से देख रहे थे।


10 मिनट कर फिर आप तीनों को ही अंदर जाना है।


नारायण जी ने सिर्फ हा में सिर हिला दिया।


उन्हों कुछ विचार करते हुए रिसेप्शनिस्ट से पूछ ही लिया, "यह जो अंदर गए हैं वह काम क्या करते हैं?"




यू. पी. के सबसे बड़े ऑटोमोबाइल इंडस्ट्रलिस्ट है, आदित्य महेश्वरी, रिसेप्शनिस्ट ने जवाब दिया।


दस मिनिट बाद, आदित्य बाहर आए, "आप जा सकते है अंदर।" इतना कहकर वह वहा से निकल गए।


नारायणजी ने दोनो को अंदर चलने का इशारा किया। बस दोनो ने बाते मान ली।




तीनों ने अपनी अपनी जगह पकड़ ली।


नारायण जी ने पहला सवाल दागा, "कैसा है सिद्धार्थ? ठीक तो हो जाएगा ना!"


"आप फाइल लेकर आए हैं।"


"हा!" गंगा ने हड़बड़ाट में वो फाइल निकाली।


फाइल एग्जामिन करते हुए, "आपके बेटे की मानसिक स्थिति कुछ ठीक नहीं है। मैंने उसे बाते करने के लिए काफी कोशिशे की लेकिन कोई जवाब नहीं मिला जितना हम देख पा रहे हैं उससे यही समझ आ रहा है की उसकी हालत काफी खराब है।"


गंगा रोने लगी।


सर यह सब मेरे वजह से हुआ है। मैंने ही उसकी शादी के लिए जोर जबरदस्ती करने की कोशिश की।


इसके ही कारण यह सब हुआ है। वह शादी तय करने के दिन घर से भाग गया था, लड़की वालों ने रिश्ता तोड़ भी दिया था।


लेकिन मैं ही, उस लड़की के पास गई। उसे कहा कि वह उसे अपना ले। वह लड़की भी उससे प्यार करने लगी थी।


और सिद्धार्थ भी उससे प्यार करने लगा था।


लेकिन आखिरकार सिद्धार्थ ने उसे नहीं अपनाया।


बाद में यह सबकुछ हो गया उसमे उसकी तबीयत और भी खराब हो गई।


नारायण जी ने अपने कारण दिए सिद्धार्थ की मानसिक स्थिति खराब होने के लिए।


मैं बचपन से ही उससे ज्यादा ही अपेक्षाएं लगा बैठा था। नहीं पता था कि आगे चलकर कुछ ऐसा होगा। हमेशा से ही वह कुछ अलग करना चाहता था लेकिन मैं अपने बेटे में एक आदमी देखने की कोशिश कर रहा था। जो मैं नहीं बन सका वह अपने बेटे में ढूंढ रहा था।


हमेशा उसकी मर्जी के खिलाफ जाकर मैंने सब फैसले लिए, उसकी जिंदगी के। आज से कुछ एक हफ्ते पहले भी मैंने यही किया।




सिद्धार्थ सीजर से उठने के बाद अपने काम पर वापस जाना चाहता था लेकिन मैंने ही उसे रोक लिया। मैं नहीं चाहता था कि, वह हमसे दूर जाए और अपना काम फिर से एक बार शुरू करें।


और लड़कों की तरह सफल नहीं बन सका इसलिए मेरी नजर में वह हमेशा से ही नकारा और असफल व्यक्ति ही था।


नारायण जी बिना किसी खेद के अपनी सारी बातें डॉक्टर के सामने बयां कर रहे थे।


सबकी नजरे तुषार पर टिकी थी,


डॉक्टर मैं, भाई के साथ पिछले 5 साल से हु।


मेरे बुरे वक्त में उन्होंने ही मुझे संभाला है।


जब मुझे अपनी डिग्री कंप्लीट करनी थी। उसके लिए मैं पार्ट टाइम जॉब करता था तब भाई ही मेरे मेंटर थे। उन्होंने ही मेरी छोटी-मोटी गलतियों को सुधारा।


जब आंटी ने मेरे सामने यह बात रखी की भाई को रागिनीजी के होने का एहसास दिलाना होगा।


उन्हे यह फिल करवाना होगा कि, वह रागिनीजी से प्यार करते है।


तब मैं मान गया। क्योंकि मुझे, भाई के लिए कुछ करना था।बहुत बचकानी–बचकानी हरकतें कि।


उसमें मेरी रागिनीजी ने भी मदद की, क्योंकि वो उनसे प्यार करने लगी थी। लेकिन तभी उनका एक्सीडेंट हो गया। एक्सीडेंट हो गया तो सबने उन्हे अप्रोच करना छोड़ दिया।


लेकिन रागिनीजी उनसे आखरी बार यह बताना चाहती थी की, वो उनसे प्यार करने लगी है, और उसके चलते उन्होंने खुद उन्हें अप्रोच कर यह बताने की कोशिश की लेकिन भाई डर कर वहां से भाग गए।


भाई को किसी की जरूरत है, हमेशा से थी। मैं इसका गलत मतलब समझ बैठा था।


उन्हें उनकी हालत पर छोड़ देना चाहिए था।


वह अपने लिए खुश थे, अपने साथ खुश थे।


बहुत स्ट्रॉन्ग थे वह, ऑप्टिमिस्टिक! जितना भी उन्हें जिंदगी ने दिया था, उस बात से वह खुश थे।


नाराज ही नहीं थी उन्हें किसी बात की। गलती की है मैंने, गंगा आंटी की बात मानके।


उन्हें अपने सामने बेड पर लेटे हुए देखा है, ऑक्सीजन मास्क पहने सर पर पट्टी और जब दूसरी बार देखा तो वह मुझे पहचानने से भी इंकार कर रहे थे।


हमेशा से ही हमने उनकी जिंदगी किसी न किसी तरीके से कंट्रोल करने की कोशिश की है।


इसी वजह से शायद आज उनकी यह हालत हुई है।


यह बहुत दुख की बात थी की, तीनों ने अपने-अपने कन्फेशन कर दिए थे।


जो सेशन सिद्धार्थ के चलने थे वह सेशन इन तीनों के चल रहे थे।


तीनों ने भी एक दूसरे की बात सुनी और डॉक्टर ने भी।


कन्फेशन करते वक्त कोई बीच में कुछ नहीं बोला।


जब तुषार के कन्फेशन आखिरी था तब दोनों मां-बाप और भी टूट गए।


उन्होंने सच में सिद्धार्थ की जिंदगी को जाने–अनजाने में खुद के हाथों में लेने की कोशिश की थी।


"आप लोगों के अलग-अलग कारण है लेकिन इन कन्फेशंस से मुझे एक ही बात नजर आती है। वह है, सिद्धार्थ को खुली आजादी न मिलाना।"




मिस्टर शुक्ला, आपके कहे अनुसार आपने अपने बेटे को खुद की जिंदगी में आगे बढ़ने से रोका, उसे मनचाहा कुछ करने से रोका। यह उसके बीमारी की पहली शुरुआत थी।


मिसेज शुक्ला, आपको लगता है कि आपने अपने बेटे के निजी जिंदगी में उसे फैसले लेने से उसे रोका। वह शादी नहीं करना चाहता था, फिर भी आपने उसे जबरदस्ती किसी के साथ रिश्ता बनाने के लिए उकसाया।




तुषार तुम्हारे कहे अनुसार, तुम्हारे भाई तुम्हारे लिए सब कुछ थे।


लेकिन तुम उनके लिए कुछ अच्छा करना चाहते थे और काफी सफल भी हुए थे।


लेकिन तुम्हारे भाई आगे नहीं बढ़ाना चाहते थे इस वजह से तुम्हारा बना बनाया सब काम बिगड़ गया। पर तुम्हें यह पता है तुम्हारे भाई शायद उस लड़की से प्यार करने लगे थे।


ऐसे मरीजों में लगाव होने की, अटैचमेंट होने की संभावनाएं ज्यादा होती है, उन्हे उस लड़की से अटैचमेंट हो गई थी।


लेकिन तुम्हारे भाई यह जानते थे कि उन्हें कोई बीमारी है जो उन्हें आगे बढ़ने से रोक रही थी।


इसलिए उन्होंने आगे बढ़ाना ठीक नहीं समझा। यह बाते उसकी बीमारी की सेकंड स्टेज थी, सेकंड ट्रिगर।


और नारायणजी, जब आपने उसे काम पर जाने से रोका, जिंदगी में खुल कर सास लेने से रोका वो लास्ट ट्रिगर।


जिंदगी भर जैसे उसके साथ हुआ है उसके बावजूद यह सब होना इन सब से वह कॉप अप नही कर पाया। और काफी अनमोटिवेटेड महसूस करने लगा।


उसे आपको शैतान समझना काफी ठीक ही बात है फिर तो, डॉक्टर मुस्कुरा दिए।


आपने बिना उसकी मर्जी के बहुत सी बातें करने की कोशिश की है इससे उसका दिल सहम गया है


नारायणजी इस बात से काफी दुखी हो गए। गंगा और तुषार का हाल भी कुछ ऐसा ही था। तीनों अपने-अपने विचारों में थे ही की नारायण जी ने डॉक्टर से सवाल पूछा, "क्या सिद्धार्थ अभी ठीक नहीं हो पाएगा?"


ऐसे पेशेंट कभी ठीक नहीं होते उन्हें सिर्फ थेरेपी देखकर अच्छे से जिंदगी बिताने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है, मोटिवेट किया जा सकता है।


गोलिया मरीजों के ख्यालों को रोक सकती है उनकी कुछ दिमाग की नसों को ब्लॉक कर सुला सकती हैं लेकिन जिंदगी नहीं सुधार सकती।


सिद्धार्थ इस बीमारी के साथ जी रहा है और एक दिन यह बीमारी ही उसके मौत का कारण होगी।


मेरा मानना यह है कि आप उसे हमारे रिहैबिलिटेशन सेंटर में 6 महीने के लिए छोड़ दीजिए। 6 महीने तक हम उसकी प्रोग्रेस देखकर आगे का फैसला लेंगे।


आपको उसे हमारे सेंटर में डालना होगा। क्योंकि ऐसे मरीज जिंदगी भर भी ट्रीटमेंट ले–ले कभी ठीक नहीं हो सकते।


हमारे इस ट्रीटमेंट के जरिए सिद्धार्थ का ख्याल रखेंगे, उसे मॉनिटर करेगे, उसे जिंदगी जीने के लिए मोटिवेट करेगे। आप उनके मूड स्विंग भी कितने देर झेलेंगे। वैसे भी सिद्धार्थ की हालत ठीक करना आसान नहीं 6 महीने बहुत कम समय बताया है मैने आपको।


हम सिद्धार्थ के बिहेवियर की कोई गारंटी नहीं ले सकते। आप समय ले सकते है, बस देर ना करे।


गंगाजी कुछ देर के लिए गहरे विचारो में चली गई।


सब उन्हें कठिन लग रहा था वो बस नारायणजी की तरफ ही देख रही थी। लेकिन उनके चहेरे पर कोई भाव ना देख वो बस इतना बोली।


"हम सोच कर बताएंगे।" ऐसा गंगाजी ने कहा।


"हा ठीक है, आप सोच कर बतातिए कोई जल्दी नही।" डॉक्टर ने हामी भरी।


लेकिन नारायण ने बात को और खींचने से रोका , "कितना पैसा लगेगा रिहैबिलिटेशन सेंटर में डालने के लिए?"