प्रस्तुत कहानी 1947 के विभाजन एम उसके बाद की त्रासदी का वर्णन करती है। मेरा एक सिख मित्र जो अपनी मां को माजी कहता है और मेरे साथ मुंबई में काम करता है। विभाजन से पहले माजी रावलपिंडी में रहती है। उसे रावलपिंडी से बहुत प्यार है। वह कभी रावलपिंडी से बाहर गई ही नहीं , उसके लिए रावलपिंडी ही उसका संसार है। वह रावलपिंडी में दो मंजिला मकान में रहती है। उसे मकान के नीचे ही उनकी दुकाने हैं जो मुस्लिम लोगों नए किराए पर ले रखी है। उनकी अपनी जमीन भी है। दूध घी वह पड़ोस में रहने वाले मुस्लिम पड़ोसियों को देती है क्योंकि उसका बेटा मुंबई में काम करता है। वह अपने बेटे को कहती है कि "वह घी और दूध पड़ोस में बाटती फिरती है और उसका अपना बेटा होटल में खाना खाता है " । मां जी का पति जो उसके साथ रहता है वह भी बीमार रहता है।
माजी के घर में दो पुरुष नौकर और एक महिला नौकर थी। रावलपिंडी में माजी और उसके पति का अच्छा जीवन व्यतीत हो रहा था लेकिन एक दिन उन्होंने अखबार में पढ़ा कि उन्हें रावलपिंडी को छोड़कर जाना पड़ेगा। इस बात को पढ़कर वह चिंतित नहीं हुए। बुढा जोड़ा अपने पड़ोसियों के बारे में चिंतित है। उनके साथ उनके रिश्ते हमेशा मधुर रहे हैं। कोई फर्क नहीं पड़ता कि देश को हिंदुस्तान कहा जाए या पाकिस्तान। जब विभाजन हो रहा था तो माजी के बेटे ने उन्हें मुंबई में आने के लिए कहा। परंतु माझी ने अपने प्रिय रावलपिंडी को छोड़कर आने के लिए मना कर दिया। माजी के सिख व हिंदू पड़ोसी उसे जगह को छोड़कर चले गए परंतु वह वही रही। जब भी कोई बूढ़े जोड़े से उनकी सुरक्षा के बारे में चिंतित होकर पूछता वह कहती " हमें यहां कौन मरेगा ? आखिरकार सभी मुस्लिम जो यहां हमारे आसपास रहते हैं वह मेरे अपने बच्चे जैसे हैं " । वह पूर्वी पंजाब से आए हुए शरणार्थियों को अपना शत्रु नहीं समझती। इसके बजाय वह उनको खाने पीने का सामान, कपड़े ,कंबल और बिस्तर इत्यादि देती है। जब एक हिंदू तांगे वाले का मर जाना और उसे तांगे वाले के घोड़े का उसके घर के सामने मर जाना उसके विश्वास के आखिरी धागे को तोड़ देता है। माजी समझती है कि व्यक्ति का तो धर्म और जाति होती है लेकिन उसे घोड़े का क्या दोष जिसकी ने ही कोई जाती थी और नहीं कोई धर्म था। इसके परिणाम स्वरुप वह और उसका पति अपने दो मंजिला मकान को छोड़कर अपने बेटे के पास मुंबई में आ जाते हैं। वह जहां दो मंजिला मकान में रहते थे अब एक कमरे में रहते हैं । अब माझी को घर का सारा काम करना पड़ता है। अब माजी को अस्थमा की बीमारी भी हो जाती है उसकी स्थिति मैं काफी परिवर्तन आ जाता है। पहले नौकरों से काम करवाना होता था अब नौकरों की तरह काम करना पड़ता है । माजी को दुख इस बात का है कि उसे अपने रावलपिंडी को छोड़ना पड़ा। माजी की जिंदगी में कितने दुख दर्द होने के बावजूद भी उसके चेहरे पर हंसी रहती है वह अपने दुख दर्द किसी को बताती नहीं है। सारे काम करने के बाद वह रात में 6 घंटे सोती है। उसकी जिंदगी में विभाजन के बाद काफी परिवर्तन आ चुका था।
कहानी के अंत में मां जी को एक शांत औरत के रूप में चित्रित किया गया है " जिसकी बुद्धि थकी हुई आंखों में से आंसुओं के बुलबुले निकलते हैं " । उसके हृदय में " ना ही गुस्सा है और ना ही स्वयं के लिए दया है " परंतु यादें है " ।
इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि जिंदगी की कोई घटना हमारे जीवन में बहुत परिवर्तन ला सकती है। इसलिए हमें समय रहते अपने कार्यों को निपटा लेना चाहिए। जो बीत जाता है वह कभी वापस नहीं मिलता बस फिर तो हमारे पास यादें रह जाती है।