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मैं जानती थी कि मेरे दीदी के पास पहुँचने से दीदी और उनके लाडले प्रमेश को एक झटका ही लगने वाला था | एक सूनापन उनकी दृष्टि में से पसरकर मेरे भीतर रेंग गया लेकिन मैंने कोई ध्यान नहीं दिया और जैसा मैं समझती हूँ उन्हें मुझसे कुछ कहने का कोई साहस नहीं था | मैं बिंदास वहाँ जाकर खड़ी हो गई |
“खीर बनाएगा ?” दीदी ने मुझे ऊपर से नीचे तक लगभग घूरते हुए पूछा जिससे मेरे मुँह में कुछ मीठा सा हो आया | क्यो आखिर किस बात से डरते हैं ये लोग? ऐसे ही किसी के पेट का गड्ढा क्यों गहरा होता जाता होगा? कुछ तो है जिसको हममें से कोई, कैसे नहीं पहचान पाया, केवल उत्पल के!क्या सचमुच ऐसा होता है जादू-वादू सा? मैंने अपने कंधे यूँ ही उचका लिए थे शायद---जो देखा होगा किसी ने भी, मुझे कोई चिंता थी भी नहीं |
“जैसे आपको ठीक लगे | ”मन ही मन अपनी बात ऊपर रखकर जैसे मुझे एक तसल्ली सी हो रही थी | न, मैं इस वातावरण में खुद को घोंट नहीं सकती थी लेकिन अभी कुछ समय मुझे तेल और तेल की धार भी देखनी थी और चुप्पी भी साधनी ही थी | अम्मा-पापा को लेकर भाई इस बार जाने ही वाला था,शायद हफ़्ते भर में ही | कुछ तो विवेक रखना होगा | मेरा घर यानि संस्थान मेरे पास ही था जिसमें जाने का निर्णय मैं ले ही चुकी थी |
मैं खड़ी ही थी कि घर के महाराज ने खीर का सारा सामान मेरे सामने प्लेटफ़ार्म पर सजा दिया | मंगला मेरे पास ही खड़ी थी और शायद मेरी सहायता की प्रतीक्षा कर रही थी | दीदी का मूड ऑफ़ दिखाई दे रहा था लेकिन मुझे उसकी चिंता न थी | मुझे चिंता थी उस रहस्यमय परिवार की वास्तविकता को जानने की जिससे मुझे निकलना था और जल्दी क्योंकि एक ही रात में ही मैं प्रमेश के व्यवहार से उकता गई थी, वैसे तो पहले ही उकता चुकी थी लेकिन वही कहते हैं न जो कुछ जैसे होना होता है,वही होता है | सो---जाने दो न !
मंगला ने मेरी जगह खीर बनाने का कार्यक्रम शुरू कर दिया और मैं चमचा चलाने लगी | हमारे यहाँ अम्मा ने भी जब एमिली आई थी तब उससे खीर बनवाई थी और हम सबने मिलकर क्या मज़े किए थे | हम सब उस दिन महाराज की रसोई में जा घुसे थे और महाराज ‘ये नहीं, वो नहीं’करते हम सबके पीछे-पीछे घूमते रह गए थे | फिर हारकर उन्होंने एमिली के साथ भाई के हाथों में भी कलछी पकड़ा दी थी और फिर फ़ोटोज़ का जो सिलसिला शुरू हुआ कि बहुत दिनों बाद हम सबने मिलकर ज़िंदगी को जीया |
खैर,वह तो अलग बात थी, आज की बात अलग ही थी | इस घर की रसोई को संभालने वाले विनम्र कुक और यह प्यारी सी मंगला मेरे पास थे और मुझे किसी की ज़रूरत नहीं थी |
“बाऊदी !ऐसे----”उसने बड़े प्यार से कई बार मुझसे कहा और मैंने मुस्कराकर उसके गाल खींच लिए | दीदी जो अब दूर भाई के पास जा बैठी उनको खराब लग ही रहा होगा, मैं जानती थी |
ऐसा तो था नहीं कि मैं खीर बनाने का तरीका जानती नहीं थी लेकिन मन न हो तो इंसान कुछ भी भूलने की कोशिश ही कर डालता है और वही मैं भी कर रही थी | खैर, कुछ देर के बाद मैंने अपनी बेकार की हरकत छोड़ दी और कुकर में खीर बनाने लगी | जल्दी ही चावल गले और मैंने कुकर बंद कर दिया | खुलने के बाद मैंने देखा कि चावल खूब घुट गए थे। मैंने चलाकर उसमें और दूध मिलाया जो मंगला मेरे पास ही लिए खड़ी थी | मैं मंगला के साथ खीर बनाती रही और वह इधर-उधर जाकर चीनी, कटे हुए ड्राईफ्रूट्स के डिब्बे इधर से उधर रखती रही |
खीर बन चुकी थी और मैं देख रही थी कि एक मीठी सुगंध वातावरण में महकने लगी थी | मुझे अच्छा लगा और एक बार फिर से शीतल बयार सी मेरे भीतर पसरने लगी जैसी उस कमरे के बाहर आने पर तन-मन में भरी थी जब मैं पूरी रात भर बाद उस दमघोंटू कमरे से निकली थी |
“आहा !बहुत भालो—”कहते हुए दीदी भाई के पास से उठकर मेरे पास आईं जिनके मुख पर शायद—शायद एक सूखी तृप्ति सी पसरी थी | शायद उन्हें लगा कि मैं उनकी आज्ञाकारिणी बोधू बनने की तैयारी में थी |
“तुमको आता है?”
मैंने फिर उनके प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दिया और मंगला की ओर देखने लगी |
“अम्मा के पास लेकर जाना---कब जाने वाले हो प्रोमेश?”
“आप बोलिए दीदी---”क्या आज्ञाकारी रबर का भाई है !लगा,एक मुक्का उसके मुँह पर रसीद कर दूँ लेकिन यह भी तो संभव नहीं था |
“लंच वहीं करना है, अम्मा बोली थीं---”दीदी ने स्वयं ही प्रश्न और उत्तर दे दिए | मुझे इस सबसे क्या था, मेरा मन वहाँ से न जाने कबसे निकल भागने का हो रहा था |
“तैयार हो जाओ—”उन्होंने शायद एक बार फिर से कोशिश की लेकिन मैं कहाँ ट्स से मस् होने वाली थी |
“मैं तैयार ही हूँ---”कहकर मैं बाहर बागीचे की ओर निकल आई और खुली हवा में साँस लेने लगी |
“लैट अस मूव ?” प्रमेश था और पीछे से एक सुंदर टोकरी मैं सजा हुआ खीर का डिब्बा पकड़े मेरी प्यारी मंगला जिसमें शायद और भी बहुत कुछ सजा दिया गया था |
रबर के पुतले ने बाहर जाकर गाड़ी खोल ली जिसमें मैं समा गई, पीछे की सीट पर मंगला ने टोकरी संभालकर रख दी थी | गाड़ी बाहर की ओर निकालने से पहले प्रमेश ने दीदी को बाय कहकर हाथ हिलाया था, मैं मिरर से व्यू देख रही थी, दीदी की आँखों के इशारे !
कुछ देर बाद हम संस्थान में थे और मैं फूलों से लदे पेड़ को देखकर तुम्हें अचानक फिर से मिस कर रही थी उत्पल!हो कहाँ? कुछ तो बोलो, कहीं झलक तो दिखा जाओ लेकिन मेरे मन की ही तरह वह पेड़ भी गुमसुम था और मुझे उस मोह से दूर होने का इशारा कर रहा था ! लेकिन मोह ऐसे थोड़े ही खत्म होता है? कुछ ही देर में हम वहाँ के शोर-शराबे का हिस्सा बन रहे थे | मुझसे सब ऐसे चिपटने लगे मानो कितने दिनों बाद देखा हो | अम्मा-पापा की आँखों में आँसु झिलमिलाते हुए देखकर मुझे तकलीफ़ हुई और इस बार सच में मैं उनकी देह से चिपटकर फफककर रो पड़ी | फिर तो सब बारी-बारी से मुझसे चिपट गए और आँसुओं का सिलसिला शुरू हो गया |
प्रमेश को एक दामाद के आदर सहित बैठा लिया गया था |
उस दिन एक अच्छा बयार वाला दिन था और संस्थान में बड़े लॉन के बाहर लंच की व्यवस्था करवाई गई थी | सब साथ में प्रीति-भोज की मस्ती में थे | महान दीदी जी ने मेरे द्वारा बनाई गई खीर के बारे में अम्मा को पहले से ही सूचना दे दी थी और अम्मा को भी एमिली की खीर की रसोई याद आ गई थी जिसको हम सबने खूब मज़ा लेकर फिर से मानो उस दिन का चित्र आँखों में सजा लिया था | एमिली और अमोल का हँसते हँसते बुरा हाल हो गया और लगा हम सब जिंदा थे | प्रमेश अपनी फीकी मुस्कान के साथ बैठा न जाने क्या सोच रहा होगा?वह जानता तो था हम सब यहाँ कैसे रहते थे?
लंच पर मेरी खीर की खूब प्रशंसा की गई, महाराज तो कितने खुश थे ! उनका कहना था कि मैंने उनसे भी बढ़िया खीर बनाई थी जबकि मैं जानती थी कि वे मेरा दिल रखने के लिए ही यह सब कह रहे थे |
फिर अनेकों चर्चाएं हुईं, अम्मा-पापा को साथ ले जाने की, संस्थान की जिम्मेदारी संभालने की, और उसमें प्रमेश से भी बातचीत की गई जिसमें उसने अपना सिर हिलाकर स्वीकृति दी |