Niruttar - Part 2 in Hindi Motivational Stories by Ratna Pandey books and stories PDF | निरुत्तर - भाग 2

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निरुत्तर - भाग 2

अपनी माँ से मिलने की ख़ुशी में वंदना फटाफट तैयार हो गई। उसके बाद वह राकेश के साथ अपनी माँ और भैया भाभी को सरप्राइज देने के लिए उनके घर के लिए रवाना हो गई।

घर पहुँचते ही कार से उतरते समय वंदना ने राकेश से कहा, “राकेश, हमें देखकर माँ कितनी ख़ुश हो जाएगी ना।”  

“हाँ वंदना माँ के लिए बेटी का ससुराल से मायके आना, बहुत ही ख़ुशी के पल होते हैं जिसका उन्हें हमेशा ही इंतज़ार रहता है।”  

“राकेश हमारी अम्मा मुझे कभी भी मना नहीं करतीं, हमेशा ख़ुशी से भेज देती हैं।”  

“वंदना तुम भी तो कितना ख़्याल रखती हो अम्मा बाबूजी का। बहुत ख़ुश हैं वह तुमसे, तुम्हारी तारीफ करते नहीं थकते।”  

इस तरह बातें करते हुए कार पार्क करके वह दरवाज़े तक पहुँच गए। वंदना ने अपने हाथ को दरवाज़े के पास लगी घंटी को दबाने के लिए ऊपर उठाया ही था कि अंदर से उसे उसकी भाभी की आती हुई आवाज़ ने जहाँ का तहाँ स्थिर कर दिया।

उसकी भाभी विशाखा ज़ोर से चिल्ला कर कुछ अपशब्दों का प्रयोग कर रही थी। यह अपशब्द थे वंदना की माँ कामिनी के लिए।

विशाखा कह रही थी, “जी का जंजाल बन गई हो हमारे लिए। काम की ना काज की डेढ़ मन अनाज की। ऊपर से दवाइयों का ख़र्च भी बढ़ता ही जा रहा है। पता नहीं कब तक झेलना पड़ेगा।”  

कामिनी ने कहा, “विशाखा मैं क्या करूं, कहाँ जाऊँ? तुम ही बता दो? तुम मुझे वृद्धाश्रम में क्यों नहीं छोड़ देते। मैं तो वहाँ भी रह लूंगी। यदि दवाई लगती है तो मैं जानबूझकर शौक से तो नहीं खाती ना? मैं तुम्हें बहुत भारी लगती हूँ ना तो सच में मुझे वृद्धाश्रम में छोड़ दो।”  

“हाँ-हाँ ताकि मैं बदनाम हो जाऊँ। बहू ने घर से निकाल दिया, यही कहोगी ना सबसे?”  

अपनी माँ का इस तरह होता हुआ अपमान देखकर वंदना की आँखों से आँसू बह रहे थे; जिसमें दुख के साथ ही क्रोध भी मिला हुआ था। अपनी लाल आँखों के साथ ही उसका रुका हुआ हाथ उस घंटी तक पहुँच गया जिसे वह पहले बहुत ही ख़ुशी से दबाना चाह रही थी। लेकिन अब उसने बहुत गुस्से में बटन को दबाना शुरू कर दिया। बिना हाथ हटाए वंदना लगातार बेल बजाती ही जा रही थी।

गुस्से में चिल्लाते हुए वंदना का भाई प्रकाश बाहर आया।

“अरे कौन बदतमीज …!”  

अपनी बहन और बहनोई को देखते ही उसके शब्द मुँह में ही अटक गए।

अपने भाई को देखते ही वंदना ने ताली बजाते हुए कहा, “वाह-वाह-वाह आप घर पर ही हैं भैया। आपके होते हुए माँ का इस तरह से बेहूदगी के साथ अपमान किया जा रहा है और आप शांत हैं, मानो बोलना ही भूल गए हो। शर्म आनी चाहिए आपको। मैं तो यहाँ आप सबको ख़ुश करने और ख़ुद भी प्यार के पलों के बीच आप लोगों के साथ रहने आई थी। लेकिन आप लोगों ने तो ऐसा दुख दे दिया कि अब तो यह सम्बंध ही बोझ जैसा लग रहा है। मुझे तुमसे यह उम्मीद नहीं थी भैया कि इस समय आप घर पर ही होगे।”

घर में घुसते ही वंदना ने बड़ी-बड़ी आँखों से गुस्से में अपनी भाभी विशाखा की तरफ़ देखते हुए कहा, “थैंक यू सो मच विशाखा।”  

इसके बाद उसने अपनी माँ की तरफ़ आगे बढ़कर अपने हाथों से उनके बहते हुए आँसुओं को पोछा और फिर उनका हाथ पकड़ कर बाहर ले जाते हुए कहा, “चलो माँ।”  

“वंदना बेटा यह क्या कर रही है, गुस्सा छोड़ दे।”  

“माँ चुपचाप चलो यहाँ से, आप यह सब कब से सहन कर रही हो? आपने मुझे बताया क्यों नहीं?”  

विशाखा सोच भी नहीं सकती थी कि अचानक ऐसा हो जाएगा कि वह अपना सर ऊपर उठाने में भी शर्मिंदगी महसूस करेगी किंतु आज ऐसा हो गया था। पाप का घड़ा जब भर जाता है तो झलकता ज़रूर है; तब दूसरों को भी पता चल ही जाता है।

विशाखा और प्रकाश नीचे सर झुकाए निःशब्द खड़े थे।

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः