Niruttar - 1 in Hindi Motivational Stories by Ratna Pandey books and stories PDF | निरुत्तर - भाग 1

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निरुत्तर - भाग 1

वंदना एक बहुत ही कुशल प्रेरक वक्ता थी। वह अपने प्रेरणात्मक भाषणों से समाज को एक नई दिशा देने की जवाबदारी लेना उसका कर्तव्य समझती थी। लोगों को उसकी कही बातें बहुत अच्छी लगती थीं। लेकिन प्रश्न यह था कि उनमें से कितने लोग उन बातों को अपने जीवन में अपनाते हैं या उस हॉल से बाहर निकलते ही सब हवा के साथ उड़ाकर अपने घर लौट जाते हैं। वंदना केवल लिखती ही नहीं थी, वह जो भी लिखती थी उसे ख़ुद के जीवन में शामिल भी करती थी। इसीलिए उसका स्वयं का घर सुख और शांति का सुंदर मंदिर बन गया था।

आज छुट्टी का दिन था और वंदना को सुबह से ही अपनी माँ कामिनी की बहुत याद आ रही थी। उसने सुबह-सुबह अपने घर के सारे काम निपटाना शुरू कर दिया। सात बजते ही उसने अपने पति राकेश को खूबसूरत मुस्कुराहट के साथ उठाते हुए आवाज़ लगाई, “राकेश … राकेश … उठो ना … देखो मैं चाय लेकर आई हूँ।”

करवट बदलते हुए राकेश ने दीवार पर टंगी घड़ी पर अपनी नज़रों को घुमाया तो उसके मुँह से अचानक ही निकल गया, “अरे क्या यार वंदना, आज रविवार है, इतनी सुबह क्यों उठा रही हो? क्या तुम्हें याद नहीं है?”

“याद है पति देव सब याद है। आज रविवार है और आपको नौ बजे तक सोना है फिर आराम से उठकर चाय नाश्ते का सेवन करना है। लेकिन आज आपको वह सब करने को बिल्कुल नहीं मिलेगा।”

“भला क्यों नहीं मिलेगा, मेरा कुसूर क्या है?”

“आपका कोई कुसूर नहीं है। मुझे माँ की बहुत याद आ रही है, उनसे मिलने घर चलना है और वह भी तुम्हारे साथ। यहाँ भी अम्मा बाबूजी के लिए मैंने खाना बना दिया है। उनसे भी अभी पूछ लेती हूँ। पहले तुम बताओ चलोगे ना?”

“हाँ-हाँ वंदना बिल्कुल चलूंगा।”                                               

वंदना ख़ुश होते हुए अपनी सासू माँ सरिता के कमरे में रोज़ की तरह चाय का ट्रे और साथ में उनकी सुबह की दवाइयाँ लेकर पहुँची।

उसने आवाज़ देते हुए कहा, “अम्मा और बाबूजी उठिए, मैं चाय लेकर आई हूँ।”

सरिता ने कहा, “वंदना बेटा रविवार को तो तुम आराम से सब काम करती हो। आज इतनी जल्दी काम काज शुरू कर दिया। मैं कब से जाग रही हूँ। तुम्हारे काम करने की आवाज़ आ रही थी।”

“अम्मा आज मुझे माँ की बहुत याद आ रही है। सोचती हूँ मिल आऊँ। बहुत दिन हो गए हैं।”

“हाँ-हाँ बेटा जाओ मिल आओ, उन्हें भी अच्छा लगेगा।”

“अम्मा मैंने खाना बना लिया है। बाक़ी का काम तो गौरी आकर कर ही लेगी।”

“हाँ वंदना तुम बेफिक्र होकर जाओ। यहाँ की चिंता मत करना। मैं तो कहती हूँ अगर तुम्हारा मन करे तो एक-दो दिन रह लो उनके साथ।”

“सच अम्मा,” कहते हुए वंदना सरिता के पास आकर उनके गले से लग गई।

“अम्मा आप कितनी प्यारी हैं बिल्कुल माँ जैसी।”

“अरे तो वंदना तू भी तो कितनी अच्छी है, बिल्कुल बेटी जैसी।”

वंदना के ससुर ने तुरंत ही उनके मोबाइल से जो इस समय उनके हाथ में था; मौके का फायदा उठाते हुए वंदना और सरिता का इस तरह गले लगता हुआ फोटो उनके मोबाइल में कैप्चर कर लिया।

चाय की एक लंबी चुस्की लेते हुए उन्होंने कहा, “तुम माँ बेटी का प्यार पूरा हो गया हो तो मेरी तरफ़ भी थोड़ा ध्यान दे दो।”

वंदना ने हँसते हुए कहा, “बोलिए ना बाबूजी।”

सरिता ने कहा, “अजी आप नज़र न लगाओ हमारे प्यार को।”

“नज़र नहीं लगा रहा हूँ मुझे तो केवल एक प्याला चाय का और चाहिए है।”

“अभी लाती हूँ बाबूजी।”

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः