Aanch - 13 in Hindi Fiction Stories by Dr. Suryapal Singh books and stories PDF | आँच - 13 - हिन्दुस्तान की लाज रखो !

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आँच - 13 - हिन्दुस्तान की लाज रखो !

अध्याय तेरह

हिन्दुस्तान की लाज रखो !

अवध में विद्रोह की आग गाँव-गाँव फैल चुकी थी पर सब की नज़रें दिल्ली पर थीं। दिल्ली में बख़्त खाँ के नेतृत्व में विद्रोही सेनाएँ भयंकर युद्ध कर रहीं थीं। बख़्त खाँ सामान्य परिवार से था, अपनी कर्मठता और योग्यता से उसने दिल्ली की विद्रोही सेना का नेतृत्व अर्जित किया था पर उसका विरोध भी कम नहीं था। शाही परिवार से सम्बद्ध लोग उसकी श्रेष्ठता स्वीकार नहीं कर पाते। कभी-कभी उसके निर्देशों की अवहेलना कर जाते। बादशाह का समधी इलाही बख़्श, बख़्त खाँ से बहुत चिढ़ा हुआ था। अँग्रेजों ने उसे पटा लिया। वह अँग्रेजों की ओर से गुप्तचरी करने लगा। बादशाह के साथ ही लगा रहता। 9 जुलाई को विद्रोही सेना ने कम्पनी सेना पर इतना ज़बरदस्त आक्रमण किया कि उसके घुड़सवार भाग चले, तोपों का मुँह भी बन्द हो गया। अनेक अँग्रेज अधिकारी मारे गए। इस हार से अँग्रेज इतने बौखला गए कि अपने घरों के हिन्दुस्तानी नौकरों तक को मार डाला। प्रचण्ड घृणा की आग आदमी को दानव बना देती है। चौदह जूलाई का आक्रमण और भी प्रलयंकारी था। जनरल रीड घबड़ा गया। वह बीमार हुआ और इस्तीफ़ा देकर पहाड़ पर चला गया। उसकी जगह विलसन ने कार्यभार सँभाला। दिल्ली की मीनारों पर स्वतंत्रता की पताका लहराते दो महीने हो चुके थे। लोग यह कहते फिर रहे थे कि जो अँग्रेजी सेना दिल्ली का घेराव करने गई थी, उसी का घेराव हो गया।

अँग्रेजी सेना दिल्ली की पश्चिमी दीवार के नीचे थी। शेष तीनों दिशाएँ खुली थीं जिससे विद्रोही सेना के लिए किसी तरह की आपूर्ति में कोई बाधा नहीं थी। अनेक अँग्रेज अधिकारी हताश होकर यह सोचने लगे थे कि दिल्ली विजय का इरादा छोड़कर किसी अन्य क्षेत्र पर आक्रमण की योजना बनाई जाए। पर अँग्रेजी सेना का एक वर्ग यहीं डटा रहना चाहता था। उसका विचार था कि दिल्ली पर सभी की नज़रें हैं। दिल्ली की विजय से विद्रोही सेना का मनोबल तोड़ने में मदद मिलेगी।

विद्रोही सेना शहर से निकलकर अँग्रेजी सेना पर आक्रमण करती और शाम को अपने अड्डे पर लौट आती। सेनापति विलसन अँग्रेजी सेना की असफलता से बहुत चिन्तित था। कम्पनी सैनिक विद्रोही सेना की तोपों से भुन रहे थे। इसी समय जनरल निकलसन के नेतृत्व में एक नई सेना पंजाब से आ गई। दिल्ली की कम्पनी सेना में सिख और गोरखे अधिक थे। अगस्त के तीसरे सप्ताह तक विद्रोही सेना बार बार आक्रमण कर रही थी पर कम्पनी की सेना विद्रोही सेना पर आक्रमण करने की हिम्मत न जुटा पाई।

पच्चीस अगस्त को बख़्त खाँ ने अपनी रणनीति बनाई। उसके साथ बरेली और नीमच की सेनाएँ थीं। अन्दर ही अन्दर दोनों सेनाओं में प्रतिस्पर्घा की भावना भी पनप गई थी। बख़्त खाँ चाहता था कि दोनों सेनाएँ मिलकर एक रणनीति के तहत कम्पनी सेना पर आक्रमण करें। उसने निर्देश दिया कि संयुक्त रूप से कम्पनी सेना पर नज़फ़गढ़ में आक्रमण किया जाए। नीमच की सेना वहाँ नहीं गई जहाँ उसे लगाया गया था। बख़्त खाँ हैरान रह गया जब नीमच की सेना ने एक अलग अड्डा बनाया। यह सेना शेष विद्रोही सेना से अलग हो गई। जनरल निकलसन को इलाहीबख़्श के जासूसों से यह सूचना मिल गई। उसने नीमच की सेना पर धावा बोल दिया। नीमच के सैनिकों को अपनी भूल का एहसास हुआ पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। नीमच के सैनिक बड़ी बहादुरी से लड़े पर सभी कट गए। वीरता रणनीति के सामने हार गई। विरोधी भी नीमच के सैनिकों की वीरता पर मुग्ध थे पर कम्पनी की सेना का हौसला बुलन्द हुआ। बख़्त खाँ की शेष सेना भी भयंकर संग्राम कर शाम को लौटी पर बख़्त खाँ बहुत दुखी हुआ। दिल्ली शहर की जनता में नीमच की सेना पर कम्पनी सेना की जीत से एक निराशा की भावना तैरने लगी। विद्रोही जनता और सेना लोगों को उत्साहित करती रही पर कम्पनी सेना के जीत की अफ़वाह पर कोई कैसे नियंत्रण कर सकता था? अफ़वाहें हवा का रुख़ बदल देती हैं। कम्पनी सेना अब अपना पंख फड़फड़ाने लगी। विलसन कहता था-हमें एक जीत का टानिक चाहिए। कम्पनी की सेना में उस समय तीन हज़ार अँग्रेज, पाँच हज़ार सिख, गोरखे और पंजाबी, ढाई हज़ार कश्मीरी तथा ज़िन्द के राजा और उनकी सेना थी। नीमच की सेना पर विजय ने कम्पनी सेना का उत्साह दुगना कर दिया। अब कम्पनी सेना शहर पर आक्रमण करने का मन बनाने लगी। जनरल विलसन ने गुप्तचरों की संख्या बढ़ाई। उन्हें लालच दिया। बहुतों को अग्रिम भी दे दिया। गुप्तचर सेवा को हडसन कमान कर रहा था। उसने बहादुर शाह के समधी इलाही बख़्श को पकड़ रखा था। इलाहीबख़्श शाही परिवार तथा बख़्त खाँ के बीच की बातचीत को हडसन तक पहुँचाता रहा। इससे विद्रोही सेना की रणनीति ही नहीं, आशा-निराशा, मतभेद की ख़बरें भी हडसन तक पहुँचती रहीं। इलाहीबख़्श ने भेदियों की एक पूरी फ़ौज ही बना रखी थी। बहादुर शाह अन्त तक इलाहीबख़्श को अपना हितैषी समझते रहे।



सात सितम्बर से कम्पनी की सेनाएँ शहर के अन्दर प्रवेश करने का प्रयास करने लगीं। पूरे सात दिन तक वे हाड़तोड़ मेहनत करती रहीं पर शहर के अन्दर प्रवेश न कर सकीं। इतना ज़रूर हो गया कि कम्पनी की तोपों से शहर की ऊँची चारदीवारी में जगह जगह दरारें पैदा हो गई थीं। चौदह सितम्बर को कम्पनी की सेना ने व्यूह रचना की। सेना को पाँच दलों में विभाजित किया गया। पहले का नेतृत्व जनरल निकलसन, दूसरे का कर्नल कैम्पबेल, तीसरे का बिग्रेडियर जोन्स, चौथे का मेजर रीड और पाँचवे का बिग्रेडियर लांगफील्ड ने सँभाला। पहले तीन दलों ने जनरल निकलसन के नेतृत्व में कश्मीरी दरवाज़े से प्रवेश करना चाहा। चौथे दल ने मेजर रीड के नेतृत्व में काबुली दरवाज़े और सब्ज़ीमंडी को अपना लक्ष्य बनाया। पाँचवा दल पूर्व की भाँति विद्रोही सेना को उलझाने के लिए रहा।

सूर्योदय हुआ। सेनाएँ तैयार होने लगीं। निकलसन अपने दल के साथ नगर की ऊँची चारदीवारी की ओर बढ़े। विद्रोही सेनाओं की तोपें आग बरसाने लगीं। दीवार के नीचे अँग्रेज और सिख सिपाहियों की लाशें गिरने लगीं। निकलसन लाशों पर चलता हुआ सैनिकों को उत्साहित करता रहा। शवों के ढेर ने सीढ़ी का काम किया। पिछले सात दिनों की गोलाबारी में दीवार का कुछ अंश टूट चुका था। इसी के पास सीढ़ी लगाकर निकलसन चढ़ गया। भयंकर गोलाबारी हो रही थी। बिना डरे फ़सील पर चढ़ कर उसने बिगुल बजाया। इससे उत्साहित होकर दूसरा दल भी फ़सील पर चढ़कर शहर के अन्दर कूद पड़ा। तीसरा दल कश्मीरी दरवाजे़ की ओर बढ़ा। कई अँग्रेज अफ़सर इस अभियान में मारे गए। खिड़कियों और दीवारों से धुआँधार गोलीबारी हो रही थी। कम्पनी के अफ़सर कश्मीरी गेट को बारूद से उड़ा देना चाहते थे। सैनिकों के एक दल ने मौत का वरण कर गेट तक बारूद पहुँचाया और कप्तान बरसेन ने मरते मरते पलीता लगा दिया। दरवाज़े का एक भाग उड़ गया। भयंकर आग और धुएँ ने अफ़रा तफ़री मचा दी। किसी को कुछ सूझ नहीं रहा था। इसी धुएँ का लाभ लेते कर्नल कैम्पबेल ने अपने दल को आगे बढ़ने की आज्ञा दी। सिपाही गोलियों की बौछार से जूझते मरते आगे बढ़ते रहे और कुछ सिपाही अन्दर पहुँच ही गए।

चौथा दल मेजर रीड के नेतृत्व में सब्ज़ी मंडी में विद्रोही सेनाओं से भिड़ा। मेजर रीड घायल हो गया। उसकी सेना को पीछे हटते देखकर होपग्रांट कुछ सवारों सहित आगे बढ़ा। दोनों सेनाएँ भिड़ गईं। होपग्रांट की सेना में भी अधिकतर हिन्दोस्तानी सिपाही ही थे। दोनों सेनाएँ वीरता का परिचय देते हुए नमक अदा कर रही थीं। विद्रोही सेना का दबाव बढ़ा। अँग्रेजी सेना हताश हो वहाँ से पीछे हट गई। कम्पनी सेना के जो तीन दल शहर में प्रवेश कर चुके थे, उन्होंने भयंकर रक्तपात शुरू किया। जिस मकान या मीनार को सर करते अँग्रेजी झंडा लगा देते। लड़ते लड़ते ये तीनों दल काबुली दरवाजे़ की ओर यह सोचकर बढ़ गए कि चौथा दल वहाँ हमारी मदद को मिलेगा। पर ऐसा हो नहीं सका। चौथा दल काबुली दरवाजे़ तक पहुँच ही नहीं सका था। पहले तीन दलों को तंग गली से गुज़रना पड़ा। छतों, खिड़कियों से गोलियों की बौछार। एक एक इंच खिसक पाना मुश्किल। गली में लाशें पट गईं, रक्त के फव्वारे छूट चले। कम्पनी सेना अनेक सैनिकों को खोकर पीछे हटी। निकलसन से यह देखा न गया। वह आगे बढ़ा पर उसे भी लौटना पड़ा। निकलसन के लौटते ही मेजर जैकब आगे बढ़ा। उसे गोली लगी, गिर पड़ा। इस पर निकलसन ने फिर आगे बढ़ने का प्रयास किया। उसे भी गोली लगी , घायल होकर गिरा। गली में लाशों का ढेर, रक्त घरों में घुस गया। अन्ततः गोलियों की बौछार से कम्पनी सेना को पीछे हटना पड़ा। वह कश्मीरी गेट की ओर लौट गई। गली-कूचों की लड़ाई कितनी कठिन होती है? इसका एहसास इस गली ने अँग्रेजी सेना के अधिकारियों को करा दिया। वे शायद भूल गए कि सेनाएँ गली-कूचों में नहीं, मैदानों में लड़ती हैं।

कर्नल कैम्पबेल के नेतृत्व में एक दल जामा मस्जिद की ओर बढ़ गया था। यह अफ़वाह फैल गई थी कि अँग्रेज जामा मस्जिद को उड़ा देना चाहते हैं। इसीलिए भाला, तलवार, बरछा, खंजर लिए बहुत से मुसलमान जामा मस्जिद में जमा हो गए थे। कैम्पबेल जैसे पहुँचा मस्जिद से मुस्लिमों का रेला निकला। अँग्रेजी सेना ने गोलियों की बौछार कर दी। दो सौ लोग तुरन्त सीढ़ियों पर गिर गए। पर मुस्लिम इतनी फुर्ती से अपने औज़ार लेकर निकले और कम्पनी सेना पर टूट पड़े कि किसी को बन्दूक में गोली भरने का मौक़ा ही नहीं मिला। दोनों ओर से तलवारों की लड़ाई होने लगी। कैम्पबेल घायल हो गया। बहुत से सैनिक मारे गए। विवश होकर इस सैन्य दल को भी कश्मीरी गेट की ओर भागना पड़ा।

सूर्यास्त हुआ। दोनों ओर की सेनाएँ अपने शिविरों में लौटीं। आज का युद्ध इतना भयंकर था कि इसमें कम्पनी सेना के चार मुख्य सेनापतियों में तीन घायल हो गए। गली गली में युद्ध हुआ। चार महीने की लम्बी लड़ाई के बाद आज पहला दिन था जब कम्पनी की सेनाएँ दिल्ली के अन्दर प्रवेश कर सकीं। कम्पनी की ओर के छासठ अफ़सर, ग्यारह सौ चार सिपाही खेत रहे। विद्रोही सेना के भी लगभग डेढ़ हज़ार सिपाही काम आए।




रात में बहादुरशाह, ज़ीनत महल और बख़्त खाँ के बीच बातचीत शुरू हुई। उसी समय इलाहीबख़्श भी आ गए। बख़्त खाँ इलाही के सामने बात नहीं करना चाहता था किन्तु बादशाह ने बात जारी रखी। बख़्त खाँ रणनीतिक योजना पर बात करना चाहता था पर इलाहीबख़्श के सामने बात करना ख़तरे से खाली नहीं था। बादशाह के चेहरे पर शिकन साफ दिख रही थी। दिल्ली का कश्मीरी गेट ध्वस्त हो चुका था। अब गेट की रक्षा के लिए और मुस्तैदी की ज़रूरत थी। इलाहीबख़्श ने यह अनुभव कर लिया कि मेरे सामने बख़्त खाँ अपने पत्ते नहीं खोलेगा। इसलिए वह थोड़ी देर के लिए उठकर चला गया। छिपकर एक ऐसी जगह बैठ गया जहाँ से इन तीनों की बातें धीरे धीरे सुनी जा सकती थीं।

इलाहीबख़्श के जाते ही ज़ीनत ने पूछा,‘अब क्या होगा? दिल्ली को कैसे बचाओगे?’

‘मैं सेना को संगठित करने का प्रयास कर रहा हूँ। गोलों की ढलाई का काम भी तेज कर दिया गया है। हम पूरी ताकत से लड़ेंगे, इंशाअल्लाह हमें फ़तह मिलेगी।’ ‘कश्मीरी गेट को अँग्रेजों ने उड़ा दिया। हमारी देशी फ़ौज उन्हें रोक नहीं सकी।’ बादशाह कुछ परेशान दिख रहे थे।

‘जहाँपनाह, हमारी फ़ौजें पूरी हिम्मत के साथ लड़ीं। आपके पैग़ाम पर हज़ारों सिपाहियों ने अपनी जान दे दी। कम्पनी की फ़ौज को गाजर-मूली की तरह हमारे फ़ौजी काटते रहे।’ बख़्त खाँ समझाते रहे।

‘तुम्हारी बात सही है। हमारे सिपाही बहादुरी से लड़े पर कश्मीरी दरवाज़े को बचा नहीं सके।’

‘जहाँपनाह, यह सच है।’ कहते हुए बख़्त खाँ का सिर झुक गया। ‘यह भी सच है हुजूर कि अँग्रेजी फ़ौज के तीन बड़े कमांडर सख़्त जख़्मी हुए हैं।’

‘तुम्हारी दानिशमंदी और कुव्वत पर हमें भरोसा है बहादुर। पर अब लड़ाई दिल्ली शहर के अन्दर लड़ी जाएगी। ख़ून की नद्दी गलियों में बहेगी। अवाम भागती फिरेगी।’

‘नहीं जहाँपनाह, अवाम ने गलियों में अँग्रेजी फ़ौज का मुँह मोड़ दिया है। अवाम हमारे साथ है, लड़ेगी और कम्पनी फ़ौज के छक्के छुड़ा देगी।’

‘खुदा के करम से ऐसा ही हो। अल्लाहताला तुम्हें कामयाब बनाए।’ बख़्त खाँ तस्लीम करते हुए बाहर आए। उधर इलाहीबख़्श घोड़े पर सवार हो भागा। कम्पनी सेना के शिविर में ख़ुशी और ग़म का माहौल था। सेनापतियों के जख़्मी हो जाने से लोग दुखी थे। हडसन निकलसन के पास थे। निकलसन का जख़्म गहरा था पर वे हताश नहीं थे। उन्होंने हडसन से कराहते हुए कहा-‘हमने दिल्ली का एक दरवाज़ा तोड़ दिया है। फ़िक्र न करो। मैं ज़िन्दा रहूँ या न रहूँ। हम कामयाब होंगे।’ हडसन की आँखें भर आईं। निकलसन ने कहना जारी रखा,‘अपनी बहादुर फ़ौज को मैं सलाम करता हूँ। हमारी फ़ौज बहादुरी से लड़ी। यह जज़्बा कायम रहना चाहिए। जो भी जख़्मी हो गए हैं, उनकी दवा और देखरेख में कमी न हो।’ ‘नहीं होगी सर।’ हडसन ने निकलसन को आश्वस्त किया।

‘लोगों से कहो खुशी मनाएँ। अब हम दिल्ली के अन्दर पहुँच गए हैं।’ निकलसन के चेहरे पर एक विजयी भाव उभरा पर जख़्म के दर्द से वे कराह उठे। ‘फ़ौज में ज़िन्दगी और मौत के बीच फ़ासला बहुत कम होता है। इसमें कराहते हुए मुस्कराना पड़ता है। फ़ौजी भाइयों से कहो खुशियाँ मनाएँ।’ निकलसन की आवाज़ धीमी हो गई। डॉक्टर और नर्स उनके जख़्मों का उपचार करने के लिए आ गए। हडसन वहाँ से निकले। अपने शिविर से हटकर एक पेड़ के झुरमुट में इलाहीबख़्श को देखा। दुआ-सलाम के बाद चर्चा होने लगी। उनका घोड़ा एक पेड़ से बँधा था। वे उसी ओर बढ़ गए।

‘बादशाह ने आज क्या कहा?’

‘बादशाह के चेहरे पर आज पहली बार मैंने शिकन देखी।’ इलाहीबख़्श ने कहा।

‘और वह बख़्त खाँ, उनका कमांडर।’

‘बख़्त खाँ तो अब भी डींग हाँकता है। कहता है फ़तह हमारी होगी। हर गली के लोग लड़ेंगे।’

‘यह सही है कि दिल्ली की गलियों को हम पार नहीं कर सके। पर जीत फ़ौज की होती है कभी कभी लड़ने वालों की नहीं।’

क्या बख़्त खाँ पर शहंशाह का विश्वास बरक़रार है?’

‘अभी तो बरक़रार है।’

‘उनका विश्वास तोड़ो, कुछ करो माई डियर।’

‘कोशिश करूँगा। हरचंद कोशिश करूँगा।’ इलाहीबख़्श ने कहा।

‘तुम पर पूरा भरोसा कर रहे हैं। हमें अहम ख़बरें मिलनी चाहिए। हम तुम्हारे लिए पीढ़ियों तक का इंतज़ाम करेंगे।’ कप्तान हडसन ने कहा।

‘इसी उम्मीद में इतना बड़ा जोखि़म उठा रहा हूँ।’ इलाहीबख़्श ने हडसन की आँखों में झाँककर कहा। हडसन से हाथ मिलाया। झुरमुट से बाहर आए और घोड़े पर बैठकर सोचते हुए चल पड़े। उस बख़्त खाँ को धूल चटा दूँगा मैं। शाही परिवार को दर किनार कर उसे सिपहसालार बना दिया। बादशाह भी सनक गए हैं। तुम बचाओ बख़्त खाँ। मेरे एक क़दम से दिल्ली का रंग बदल जाएगा। मैं बादशाह का समधी हूँ। शाही ख़ानदान की रिवायतों को बख़्त खाँ तुम क्या जानो? एक सिपाही से सिपहसालार बन गए। दिल्ली का गवर्नर बनाना था तो मुझे बनाते। यह ओहदा भी बख़्त खाँ को दे दिया जैसे वह कोई फ़रिश्ता हो। मैं देख लूँगा बख़्त खाँ को। अब तो बादशाह पर भी मेरा यक़ीन नहीं रहा। इलाहीबख़्श मगनमन जा रहे थे। एक जगह घोड़ा ठिठका। एक विद्रोही घुड़सवार ने इलाहीबख़्श को अँग्रेजी शिविर की ओर से दिल्ली में प्रवेश करते देख लिया। तुरन्त वह घोड़ा दौड़ाते बख़्त खाँ के शिविर में पहुँचा। अपना परिचय पत्र दिखाया। पहरेदार ने अंदर जाने दिया। बख़्त खाँ बादशाह से मिलकर लौटे थे और दस्तरख़्वान पर बैठ गए थे। घुड़सवार ने बैठक में प्रतीक्षा की। भोजनोपरान्त बख़्त खाँ बैठक में आए। घुड़सवार ने बताया कि बादशाह के समधी इलाहीबख़्श अँग्रेजी शिविर से लौटते हुए दिखे हैं। ‘नौजवान तुमने बहुत काम की बात बताई है। तुम्हारे लोग गर इसी तरह अहम जानकारियाँ इकट्ठी कर पहुँचाते रहे तो फ़तह हमारी होगी। नौजवान अपने काम में जुटे रहो। अगर मैं रहा तो भरपूर इनाम मिलेगा। अल्लाह तुम्हारी मदद करे।’ नौजवान फ़ौजी रिवायत से आदाब बजाते बाहर हो गया। बख़्त खाँ सोचने लगा। इलाहीबख़्श क्यों बादशाह के आसपास लगे रहते हैं? वे अँग्रेजों से मुख़बिरी कर रहे हैं और बादशाह के भी खै़रख़्वाह बनते हैं। सजग रहना होगा इनसे। शंका तो मुझे थी पर अब उस पर मुहर लग गई। वे बादशाह के समधी हैं। बादशाह से वे मिलना चाहें या बादशाह उनसे मिलना चाहें तो कौन मना कर सकता है? बख़्त ख़ाँ बाहर निकले। अपने घोड़े पर सवार हुए। अपने सैनिकों को प्रोत्साहित करने के लिए निकल पड़े। एक शिविर में सैन्य अधिकारियों के साथ बैठक की। सुबह की योजना बनी। यह सब करते रात के दो बज गए। वे अपने शिविर में लौटे। थोड़ी देर विश्राम किया, एक झपकी सी लगी। प्रातः चार बजे ही उठ गए। फ़ज़िर की नमाज़ अदा की और तैयार होने लगे। दिल्ली की सुरक्षा का दायित्व बढ़ गया है। कश्मीरी गेट का एक भाग उड़ाया जा चुका है। ‘या रब’, उन्होंने कहा और सूर्योदय होते ही नगर-रक्षा के लिए तैनात सैन्य बल का मनोबल बढ़ाने के लिए निकल पड़े।





बादशाह बहादुर शाह ‘ज़फ़र’ ने भी फ़ज़िर की नमाज़ अदा की। आज वे कुछ परेशान से हैं। अभी तक लड़ाई दिल्ली के बाहर हो रही थी, अब दिल्ली के अन्दर होगी। अफ़वाहें बिना हाथ पैर के दौड़ रही थीं। जनता में भी खलबली थी। कम्पनी की सेना ने कल शहर के अन्दर घुसकर मारकाट की है। आज जहाँ कुछ लोग मुस्तैद हो रहे थे वहीं कुछ अपने माल-असबाब गाँवों में पहुँचाने लगे थे। विद्रोही सैनिक उन्हें रोक रहे थे पर भय भी संक्रामक होता है। पाँच दिन तक दिल्ली के अन्दर मुँहमेल लड़ाई होती रही। एक एक गली में लाशों के ढेर लग गए। कम्पनी सेना का सेनापति अस्पताल में पड़ा ज़िन्दगी और मौत से जूझ रहा था। जब भी उसे होश आता, यही पूछता,‘हमारी फ़ौज कहाँ तक पहुँची?’ विद्रोही सेना का सेनापति बख़्त खाँ भी अपनी सेना को प्रोत्साहित करता, अँग्रेजों को मौत के घाट उतारता रहा। जहाँ भी विद्रोही सेना कमजोर पड़ती, बख़्त खाँ अपनी टुकड़ी लेकर पहुँच जाता और नौजवानों में उत्साह भर देता। शहर में हैज़ा फैला हुआ था। भयंकर गर्मी के बाद अब मूसलाधार बारिश युद्ध के बीच बीच व्यवधान डालती। उसी में सैनिकों को साँस लेने की फुर्सत मिल जाती। बहादुरी के तरह तरह के करिश्मे सामने आ रहे थे। एक माँ के तीन बेटे थे। युद्ध में तीनों की जान गई। तीनों के शव जब माँ के सामने लाए गए, उसने सीने पर गोलियों के निशान देखे। बोल पड़ी,‘ खुदा का शुक्र है बेटों ने दूध की लाज रख ली। सीने में गोलियाँ खाई हैं,पीठ पर नहीं। इज़्ज़त के साथ इन्हें दफ़नाओ।’

कम्पनी की फ़ौज जिस गली-मुहल्ले पर कब्ज़ा करती, अपना झंडा लगा देती। वही गली-मुहल्ला फिर विद्रोहियों के कब्ज़े में आ जाता तो अँग्रेजी झंडा उतर जाता और शाही झंडा लहराने लगता। अब जनता का एक बड़ा वर्ग युद्ध में शामिल हो गया था। बरछा, भाला, तलवारे,बाँका जो भी हाथ आ जाता लेकर लोग निकल पड़ते और कम्पनी सेना के छक्के छुड़ा देते। पर ऐसे लोग नियमित सेना के अंग नहीं थे। बख़्त खाँ की सेना पूरी ताकत से लड़ाई में उतरती। अच्छी बन्दूकें और तोपें कम्पनी सेना के पास अधिक थीं। इसलिए तलवारों, बरछों के सामने वे भारी पड़ जाते। पर विद्रोही सेना अपनी फुर्ती से उन्हें पराजित करने की कोशिश करती। दोनों सेना के लोग जख़्मी होकर मर रहे थे। बहुतों के सिर तलवारों से क़लम कर दिए जाते। सेना में नमक अदा करने की रिवायत बहुत महत्वपूर्ण थी। सैनिक जिसका नमक खाते, अदा करने के लिए जान देते। कम्पनी सेना में अधिक संख्या सिख, गोरखा और कश्मीरियों की थी।

धीरे धीरे कम्पनी सेना एक एक कर दिल्ली के मुहल्लों पर कब्ज़ा करती रही। तीन चौथाई दिल्ली पर कम्पनी सेना का कब्ज़ा हो चुका था। सेनापति निकलसन बिस्तर पर पड़ा था। पर सेना उत्साहित। अँग्रेज अधिकारी एक गली पर भी कब्ज़ा कर लेते तो उत्साह से भर जाते।


बादशाह की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। कम्पनी फ़ौज के जीत की ख़बरें उन्हें आराम से बैठने नहीं देतीं। कभी वे अपने से बात करते, कभी ज़ीनत महल से। रात में बख़्त खाँ से बात होती। वह उन्हें दिलासा देता पर कम्पनी फ़ौज की लगातार जीत से बादशाह की परेशानी में इज़ाफ़ा होता रहा। ख़बरग़ीर ने आकर बताया-बहुत से बाग़ी फ़ौजी गाँवों की ओर निकल गए हैं। पर अपने सिपहसालार खाँ साहब की फौ़ज डटी हुई है लेकिन कम्पनी फौ़ज का दबाव बढ़ता जा रहा है। बादशाह कुछ अधिक बेचैन हो गए। शेख़ इब्राहीम ‘ज़ौक़’ का शेर उनकी ज़बान पर आ गया-

दुनिया ने राहे-फ़ना में किसका दिया है साथ,

तुम भी चले चलो यूँ ही, जब तक चली चले।


उन्नीस सितम्बर का दिन बीता। बाग़ी फौ़जों की एक बड़ी संख्या दिल्ली से निकल गई। बहुत से लड़ते हुए काम आ गए। रात में बख़्त खाँ ने अपने अधिकारियों के साथ बैठक की। पिछले पाँच दिनों में आधी से अधिक सेना कट गई थी। ‘क्या हम लड़ाई जारी रख सकते हैं?’ बख़्त खाँ ने पूछा। किसी के मुख से कोई बात नहीं निकली। ‘हम जानते हैं कि हमारे बहादुर जवान मरने मारने के लिए तैयार हैं पर.....।’बख़्त खाँ थोड़ा रुके। एक नज़र अधिकारियों पर डाली। ‘पर इसका नतीजा क्या होगा? यह देखना ज़रूरी है। बिना किसी नतीजे के फ़ौज को कटा देना सिपहसालार का काम नहीं है।.... हम लड़ाई बन्द नहीं करेंगे। हम कोई सुलह भी नहीं कर रहे हैं। हमें बादशाह को बचाना है और अपनी बची हुई फ़ौज को भी। हम और बेहतर तैयारी करके कम्पनी फ़ौज को टक्कर देंगे। दिल्ली के अलावा भी और जगहें हैं जहाँ से हम कम्पनी फ़ौज को हरा सकते हैं। तुम लोगों की राय क्या है?’

‘हम कट जाना पसन्द करेंगे पर मैदान छोड़ना हमारे लिए मुमकिन नहीं है। हम अपने गाँवों में कैसे मुँह दिखाएंगे?’ एक जवान ने कहा और सभी ने इसकी ताईद की। ‘हमें भगोड़ा कहलाना पसन्द नहीं है’, एक अधिकारी के मुख से निकला।

‘हम तुम्हारे जज़्बे को सलाम करते हैं। पर वक़्त की नज़ाकत को भी पहचानो। हम हार नहीं मान रहे हैं। माफ़ी नहीं माँग रहे हैं। हिकमतेअमली के तहत जंग का मैदान बदल रहे हैं।’ ‘हुजूर, एक तरह से यह भी भागना ही हुआ।’ एक नौजवान अफ़सर बोल पड़ा। ‘नहीं नौजवान, हिकमतेअमली के तहत हटना, भागना नहीं हुआ। हम नई तैयारी के साथ मैदाने जंग में आएँगे।’ बख़्त खाँ ने समझाया।

‘ठीक है, अगर यह हिकमतेअमली के तहत किया जा रहा है तो कोई बात नहीं।’ नौजवान ने कहा। सभी ने नौजवान का समर्थन कर दिया।

‘तो रात में ही अपनी फ़ौज को जमुना नदी के पूरबी किनारे पर ले चलो। हमें खुले में अपनी फ़ौज को ले चलना है। वहीं से हम आगे का रास्ता तय करेंगे।’

आधी रात में ही बख़्त खाँ की फ़ौज यमुना नदी के पूर्वी किनारे पर आकर विश्राम करने लगी पर बख़्त खाँ को विश्राम कहाँ? बादशाह रात में उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। उनको आधी रात को लालकिले में बादशाह को तस्लीम अर्ज़ करना है। बादशाह को ख़बरग़ीर से सूचनाएँ मिलती रहीं। वे बहुत बेचैन लग रहे थे। बार बार पूछते,‘शहर का क्या हाल है?’ उन्हें वस्तुस्थिति से अवगत कराया जाता। ज़ीनत महल भी दुखी थीं। वे बीच बीच में बादशाह को हिम्मत दिलातीं। ‘बख़्त खाँ आज अभी नहीं आए।’ बादशाह ने कहा।

इसी बीच बख़्त खाँ ने आकर आदाब किया।

‘बहादुर, क्या दिल्ली पर अभी अपना कब्ज़ा है?’

‘जहाँपनाह अभी पूरी दिल्ली कम्पनी के कब्ज़े में नहीं आई है। एक चौथाई हमारे कब्ज़े में है लेकिन...

‘लेकिन क्या बहादुर? साफ़-साफ़ कहो।’

‘जहाँपनाह, हमें दिल्ली छोड़कर अलग से लड़ाई चालू रखनी चाहिए। दिल्ली हमारे हाथों से निकलती जा रही है। यह मुल्क बहुत बड़ा है। हम कहीं से भी लड़ाई जारी रख सकते हैं जहाँपनाह।’ बख़्त ख़ाँ के शब्दों से दर्द छलक रहा था।

‘बहादुर, तुम्हारी हिम्मत और हिकमते-अमली का मैं कायल हूँ। तुमने दो महीने से ज्यादा दिल्ली को बचाने के लिए दिन को दिन और रात को रात नहीं समझा। मुझे आराम देने की कोशिश की। पर खुदा को कुछ और ही मंजूर था।’

‘खुदा हमारे साथ है जहाँपनाह। आप हमारे साथ दिल्ली से निकल चलें। हमारे जवान जहाँपनाह की शान में बट्टा नहीं लगने देंगे। यहाँ दिल्ली में ख़तरा बढ़ता जा रहा है। यहाँ रहने पर कम्पनी की फ़ौज दबाव बनाएगी कि आप हार मान लें। ऐसा नहीं करना चाहिए जहाँपनाह।’ बख़्त ख़ाँ विनती करता रहा।

‘ठीक कहते हो बहादुर। हमारे पुरखे हमें हार न मानने की ही सीख देते रहे हैं। तुम्हारी तजवीज़ मुझे सही मालूम देती है। सवेरे हमारे पुरखों की अमानत बादशाह हुमायूँ के मकबरे में मिलो।’

बख़्त ख़ाँ तस्लीम करते हुए निकल गया। बादशाह ने ज़ीनत महल से ज़रूरी सामान सहेज लेने को कहा। जवाँबख़्त तथा और बेटे भी तैयारी में लग गए। ऐसे में बादशाह को नींद कहाँ? उनकी आँखों में एक साथ अनेक बिम्ब नाच उठे।

दिल्ली का शहंशाह लाल किला छोड़कर निकलेगा।....

पुरखों की बनाई हुई दिल्ली को छोड़कर कहाँ जाओगे? बाबर, हुमायूँ और अकबर ने कितने कष्ट भरे दिन काटे? पुरखे आग से खेलते रहे। बहादुर शाह क्या तुम भी दिल्ली छोड़कर बाग़ियों की हौसला अफ़ज़ाई कर सकोगे? आँखों में पुरखों के साहसिक अभियानों का ख़ाका उभरने लगा। पर तुम इतने आराम तलब क्यों हो गए? तुम्हारे पुरखे इतने आराम तलब तो न थे।

बादशाह इन्हीं बातों में उलझे थे कि ज़ीनत महल आ गईं। बोल पड़ीं-‘क्या हम लोगों को रुख़ सत होना ही होगा?’

‘और कोई चारा नहीं है बेगम। देख ही रही हो तीन चौथाई दिल्ली कम्पनी फ़ौज के कब्जे़ में हो गई है।’

‘कहाँ कहाँ चलना होगा हमें?’

‘अल्लाह का करम जहाँ ले जाएगा।’

‘बख़्त खाँ?’

‘बख़्त खाँ काबिले-यक़ीन है। उस जैसे बहादुर कम मिलते हैं।’

‘वह हम लोगों को ठीक से रख सकेगा न?’

‘ज़रूर रखेगा। आगे अल्लाह की मर्ज़ी। रात बीत रही है, तैयार हो जाओ।’

इलाहीबख़्श के मुख़बिरों से कप्तान हडसन को पता लगा। उसने तुरन्त इलाहीबख़्श को बुलवाया। कहा,‘किसी भी कीमत पर बादशाह बख़्त खाँ के साथ जाने न पाए।’

इलाहीबख़्श रथ पर सवार होकर भागे। लालकिले पहुँच कर बादशाह को तस्लीम किया।

‘जहाँपनाह का बख़्त खाँ के साथ जाना ख़तरे से खाली नहीं है। उसके साथ आप कहाँ दर दर भटकेंगे। बख़्त खाँ बहुत चालाक है। यहाँ रहकर आप अँग्रेजों से सुलह कर सकते हैं। मैंने कम्पनी के सिपहसालारों से बात चला रखी है। वे सभी आपकी तारीफ़ करते हैं। बाग़ियों के साथ आप को बहुत तकलीफ़ उठानी पड़ेगी। पूरा ख़ानदान बर्बाद हो जाएगा। बाग़ियों की कामयाबी की कोई उम्मीद दिखाई नहीं पड़ती।’

‘मुझे थोड़ा आराम कर लेने दो।’ बादशाह अकेले में कुछ सोच विचार करना चाहते थे।

‘पर जहाँपनाह, मेरी बातों पर तवज्जो दीजिए। मैं आपका करीबी रिश्तेदार हूँ। आपका और शाही ख़ानदान का भला चाहता हूँ।’ कहकर इलाहीबख़्श उठ तो गए पर नज़र बादशाह पर ही थी।

बादशाह ने बहुत थोड़ी देर आराम करने की कोशिश की पर झपकी तक नहीं आई। रथ मँगवाया और बेटों तथा ज़ीनत महल के साथ हुमायूँ के मकबरे में आ गए। वहीं उन्होंने फ़ज़िर की नमाज़ पढ़ी। इलाहीबख्श को अपना दाँव पलटता नज़र आने लगा, वे भी हुमायूँ के मकबरे की ओर भागे।

बादशाह आखि़र बादशाह हैं। जो वह चाहेंगे वही करेंगे। वे शहद का रस पीकर बैठे ही थे कि बख़्त खाँ पूर्वी दरवाज़े से आ गया। उसने झुककर बादशाह को तस्लीम किया।

‘जहाँपनाह, फ़ौज तैयार है। जमुना की रेती में वह हम लोगों का इन्तज़ार कर रही है। हुजूर की शान में हम लोग मर मिटने के लिए तैयार हैं। आपकी खि़दमत में रहते हुए अँग्रेजों को धूल चटा देंगे। दिल्ली के बाहर हम आपकी हिफ़ाज़त ठीक ढंग से कर सकेंगे जहाँपनाह।’

‘तुम्हारी राय काबिले-ग़ौर है। इसीलिए हम यहाँ मकबरे में आए हैं। हमारी राय में भी दिल्ली के बाहर रहना ही ठीक है।’ बादशाह ने अपनी राय जाहिर की ही थी कि पश्चिमी दरवाज़े से इलाहीबख़्श आ पहुँचे। ‘हुजूर को दिल्ली नहीं छोड़ना चाहिए। हमारी अँग्रेजों से बात हुई है। वे सुलह के लिए तैयार हैं। इस उम्र में आपका बाग़ियों के साथ दर दर भटकना ठीक नहीं है।’ उसने फिर दुहराया, ‘बाग़ियों के कामयाबी की कोई उम्मीद भी तो नहीं है।’ इलाहीबख़्श बादशाह को अपने पक्ष में करने लिए हर दाँव फेंकते रहे।

‘नहीं जहाँपनाह, हमें सुलह की बातों पर कोई यक़ीन नहीं हो रहा है। आप साथ रहेंगे तो बाग़ी एक दिन फ़तह दिलाएँगे। कामयाबी आपके क़दम चूमेगी ग़रीब नवाज़। लाखों-करोड़ों लोग, पूरी अवाम आपके साथ है।’

‘बहादुर तुम्हारी बातों पर मुझे भरोसा है। दिल्ली छोड़ना ही ठीक है। मुल्क बहुत बड़ा है।’ बादशाह को इत्मीनान सा हुआ।

इलाहीबख़्श चीख़ पड़ा ‘नहीं जहाँपनाह, मैं आपका करीबी रिश्तेदार हूँ। खून पानी से गाढ़ा होता है। मैं आपकी भलाई के लिए दौड़ रहा हूँ। बख़्त ख़ाँ शाही ख़ानदान की तकलीफ़ को नहीं समझ सकते। उनके साथ जाकर आप सब कुछ खो देंगे। मैं इस शाही ख़ानदान को दर दर ठोकरें खाते नहीं देख सकता। मेरी बातों पर ग़ौर कीजिए।’ कहते हुए इलाहीबख़्श रुआंसा हो गया।

‘जहाँपनाह आपकी ओर पूरे देश की निगाह है। बाग़ी पूरे मुल्क में फैले हुए आपकी ओर ही देख रहे हैं। आप के नाम पर ही वे अपने को कुर्बान कर रहे हैं, इसलिए....।’ बख़्त ख़ाँ भी भावुक हो गया। ‘इसकी बातों में न आएँ जहाँपनाह। यह मुग़ल खान दान को डुबो देना चाहता है। हुजूरे आला, यह बख़्त खाँ पठान है। यह मुग़ल ख़ानदान से अपनी क़ौम का बदला लेना चाहता है।’ इलाहीबख्श के इतना कहते ही बख़्त खाँ आवेश में आ गया, अपनी तलवार निकाल ली। इलाही बख़्श को भी गुस्सा आ गया उसने भी तलवार निकाल ली। ‘नहीं बहादुर। अपनी तलवारको म्यान के अन्दर रख लो।’ बादशाह ने बख़्त खाँ को रोकते हुए कहा।


इलाही बख़्श के बार-बार आश्वस्त करने पर बादशाह कुछ ढीले पड़ गए। उन्होंने बख़्त खाँ से कहा, ‘बहादुर! मुझे तेरी हर बात का यक़ीन है और मैं तेरी हर राय को दिल से पसन्द करता हूँ। मगर जिस्म की कुव्वत ने जवाब दे दिया है। इसलिए मैं अपना मामला मुकद्दर के हवाले करता हूँ। मुझको मेरे हाल पर छोड़ दो और बिस्मिल्लाह करो। यहाँ से जाओ और कुछ करके दिखाओ। मैं नहीं, मेरे ख़ानदान में से नहीं न सही, तुम या और कोई हिन्दोस्तान की लाज रखो। हमारी फ़िक्र न करो। अपने फ़र्ज़ को अंजाम दो।’

बख़्त खाँ हताश हो गया। अपने टूटे दिल से उसने बादशाह को झुक कर तस्लीम किया और पूर्वीद्वार से ही निकल गया। इलाहीबख़्श ने तुरन्त खुफिया सेवा के प्रभारी कैप्टन हडसन को सूचना दी। हडसन ने वरिष्ठ अधिकारियों से बात की। जनरल विलसन और कैप्टन हडसन की राय थी कि बादशाह को गोलीमार कर किस्सा ख़त्म कर दिया जाय पर अन्य अधिकारियों की राय थी कि बादशाह को मार देने से बाग़ियों में एक उबाल पैदा हो जायगा। अतः यही तय हुआ कि उन्हें गिरफ़्तार कर लिया जाय। हडसन पचास घुड़सवारों के साथ मकबरे की ओर भागे।

घुड़सवारों की आमद से बादशाह को शक हुआ। जब पता चला कि उन्हें गिरफ़्तार करने की तैयारी है, वे परेशान हो उठे। इलाहीबख़्श से कहा,‘तुमने मुझे बख़्त खाँ के साथ जाने से मना किया....।’ इलाहीबख़्श बादशाह को कोई जवाब नहीं दे सके। बादशाह ने बख़्त खाँ को बुलवाने की कोशिश की। तब तक हडसन के घुड़सवार पहुँच गए। उन्हें गिरफ़्तार कर लिया।

‘हम आपको अपनी पुरानी ख़ास जगह लाल किले पर लिए चलते हैं।’ हडसन ने व्यंग्य करते हुए कहा।

बादशाह, ज़ीनत महल और जवाँबख़्त को रथपर बिठाकर लाल किले भेज दिया गया। बादशाह के तीन पुत्र मिर्ज़ा मुग़ल, मिर्जा अख़जर सुलतान, शहज़ादा अब्दुल्ला और पोता मिर्ज़ा अबूबक्र भी हुमायूँ के मकबरे में मौजूद थे। इलाही बख़्श उन्हें दिलासा देता रहा कि मैंने जनरल से बात कर लिया है। तुम लोगों की जान को कोई ख़तरा नहीं है। चारों वहीं रुके रहे। इलाही बख़्श ने हडसन को पुनः सूचना दी। वे अपने घुड़सवारों के साथ आ धमके। चारों को रथ पर बिठाया और ले चले। इलाही बख़्श और उनके दो सहयोगी भी साथ थे। जब शहर कुछ दूर रह गया, हडसन ने चारों को रथ से उतरने के लिए कहा। चारों उतर गए। आदेश हुआ, ‘कपड़े उतारो।’ चारों ने कपड़े उतार दिये। हडसन ने एक सिपाही से बन्दूक ले ली और एक एक कर चारों को गोली से भून दिया। चारों ‘हाय दग़ा’ कहते तड़फड़ाए, फिर शान्त हो गए। हडसन ने चारों के सिर कटवाकर थाल में रखवाया। कटेसिर साथ लेकर वह बादशाह के पास पहुँचा। सिरों के थाल को बादशाह के सामने रखते हुए कहा ‘कम्पनी की ओर से आपकी नज़र बहुत दिनों से बन्द थी, आज यह नज़र पेश है।’ भूखे प्यासे बादशाह ने एक नज़र बच्चों के सिरों को देखा और बोल पड़े-अलहम्दोलिल्लाह! तैमूर की औलाद ऐसी ही सुर्ख़रू होकर बाप के सामने आया करती थी।’ बादशाह की आँखों में इलाहीबख़्श का वीभत्स चेहरा उभर आया। उन्होंने परवरदिगार को याद किया।

इसके बाद इन सिरों को दरवाज़े के पास लटका दिया गया। घड़ कोतवाली के पास टांग दिए गए। फिर दिल्ली में क़त्ले आम शुरू हुआ। बूढ़े, बच्चे, जवान स्त्री-पुरुष जो भी मिला उसे गोली से उड़ाया जाने लगा। स्त्रियाँ अपनी इज़्ज़त बचाने के लिए जगह जगह कुएँ में कूद गईं। दिल्ली मुर्दो और लोथड़ों का शहर हो गया। चील और गिद्ध मँडराते। अपना भोज्य पाकर खुश होते। कई जगहों पर मुसलमानों और हिन्दुओं को मारने के पहले उन्हें सुअर और गोमांस से धर्म भ्रष्ट किया गया।

तीन दिनों तक सिपाहियों को लूट की छूट दी गईं। फिर ‘प्राइज़ एजेन्सी’ नाम से एक विभाग ही खोल दिया गया जिसका काम था शहर के तमाम घरों के माल असबाब को एक जगह जमा करके नीलाम करना या गोदाम में रखना और नीलाम से प्राप्त धन को फ़ौज में तक़सीम करना। घरों की खुदाई करके धन निकाले गए। खिड़की दरवाजे़ में लगे लोहे, पीतल भी नहीं बचे। आमजन को खदेड़ कर दिल्ली से बाहर कर दिया गया। संभ्रान्त और महत्त्वपूर्ण लोग ही अपने घरों में रह सके। दिल्ली दिल्ली न रही। वह उजाड़ दी गई। एक बेशर्म बेवा की तरह दिल्ली ने कितनी बार अपनी चूड़ियाँ तोड़ी और कितनी बार फिर नूपुर पहना, सुहागिन बनी। उसने नगरवासियों के लिए उजड़ना और बसना रिवायत में ला दिया।

लालकिले में क़ैद बादशाह को ख़बरें मिलती रहीं। वे विचलित हो परवरदिगार को याद करते रहे। उनका शायर तड़प उठा-

यह रिआया-ए-हिन्द तबाह हुई, कहो क्या क्या न इनपे जफ़ा हुई।

जिसे देखा हाकिम-ए-वक्त़ ने कहा ये भी काबिल-ए-दार है।

मिर्ज़ा असदुल्लाह खाँ ग़ालिब को कई अँग्रेज अधिकारी इज़्ज़त बख़्शते थे। कभी कभी किसी महफ़िल में इन्हें इज़्ज़त से बुलाते और ग़ज़लें सुनते। ग़ालिब भी महफ़िल का आनन्द लेते। बहुत से अँग्रेज अधिकारी भी ग़ज़ल का आनन्द लेते और लिखते भी। दिल्ली में क़त्लेआम और घर घर तलाशी अभियान की चपेट में कई संभ्रान्त घर भी आ गए। फ़ौज के सिपाहियों से संभ्रान्त जनों का सम्पर्क कम ही हो पाता है। बादशाह के गिरफ़्तारी की ख़बर मिर्ज़ा ग़ालिब को लगी। वे दुखी हुए। पिछले चार महीनों से दिल्ली फ़ौजी शासन के हवाले थी। गालिब घर ही रहते पर जो भी देखते सुनते रोज़नामचे में लिख देते। उनका घर भी फ़ौजियों की चपेट में आ गया। वे बताते रहे कि मैं मिर्ज़ा ग़ालिब हूँ पर कोई सुनने को तैयार नहीं था। सिपाही पूछते,‘कौन मिर्ज़ा ग़ालिब?’ ग़ालिब की मित्रता अँग्रेजों के समर्थक पटियाला के महाराजा से थी। उन्होंने अपने सैनिक भेजे तब ग़ालिब के घर की हिफ़ाज़त हुई। शायद उनका दर्द इस ग़ज़ल में छलक उठा है -

ज़ोर से बाज आएँ पर बाज आएँ क्या?

कहते हैं हम तुमको मुँह दिखलाएँ क्या?

रात-दिन गर्दिश में हैं सात आसमाँ,

हो रहेगा कुछ न कुछ घबराएँ क्या?

लाग हो उसको तो हम समझें लगाव

जब न हो कुछ भी तो धोका खाएँ क्या?

हो लिए क्यों नामाबर के साथ साथ

या रब अपने ख़त को हम पहुँचाएँ क्या?

उम्र भर देखा किए मरने की राह

मर गए पर देखिए दिखलाएँ क्या?

पूछते हैं वो कि ग़ालिब कौन है?

कोई बतलाओ कि हम बतलाएँ क्या?

बादशाह के साथ ही कई शायरों पर भी गाज गिरी। इमामबख़्श सहबाई दिल्ली कालेज में पढ़ाते थे। उन्होंने मीर शम्सुद्दीन फ़क़ीर की पुस्तक ‘हदाइकुल बलाग़त’ का उर्दू अनुवाद उर्दू मिसालों के साथ किया था। वे मुअम्मे (पहेली) के उस्ताद थे। पीरो-मुर्शिद बादशाह ‘ज़फ़र’ और मिर्ज़ा फ़ख़रू के बहुत नज़दीक थे। उन्हें और उनके दो बेटों तथा मौलाना बुकर को गोली मार दी गई। मौलाना फ़ज़ल हक़ और नवाब मुस्तफ़ा ‘शेफ़्ता’ को जेल में डाल दिया गया। बाज़ार की दुकानें प्रायः न खुलतीं। मेहतर, धोबी, नाई और फेरी वालों ने शहर छोड़ दिया। दिल्ली में न रात में रोशनी और न दिन में धुआँ दिखता। ग़ालिब ने लिखा-

घर से बाज़ार में निकलते हुए

जे़हरा आब होता है इंसां का

चौक जिसको कहें वो मक़तल है

घर नमूना हुआ है ज़िन्दां का।